द्रोणाचार्य और द्रुपद मित्र से शत्रु कैसे हो गए

द्रोणाचार्य और द्रुपद मित्र से शत्रु कैसे हो गए
आचार्य द्रोण महर्षि भारद्वाज के पुत्र थे। उन्होंने पहले अपने पिता के पास वेद-वेदांगों का अध्ययन किया और बाद में धनुर्विद्या भी सीख ली। पांचाल-नरेश का पुत्र द्रुपद भी द्रोण के साथ भारद्वाजआश्रम में शिक्षा पा रहा था। दोनों में गहरी मित्रता थी। कभी-कभी राजकुमार द्रुपद उत्साह में आकर द्रोण से यहांतक कह देता था कि पांचाल देश का राजा बन जाने पर आधा राज्य तुम्हें दे दूंगा। शिक्षा समाप्त होने पर द्रोणाचार्य ने कृपाचार्य की बहन से व्याह कर लिया। उससे उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम उन्होंने अश्वत्थामा रखा । द्रोण अपनी स्त्री और बेटे को बड़ा प्रेम करते थे। द्रोण बड़े गरीब थे। वह चाहते थे कि किसी तरह धन प्राप्त किया जाय और स्त्री-पुत्र के साथ सुख से रहा जाय । उन्हें खबर लगी कि परशुराम अपनी सारी संपत्ति गरीब ब्राह्मणों को बांट रहे हैं तो दौड़े-दौड़े उनके पास गये। लेकिन उनके पहुंचने तक परशुराम अपनी सारी संपत्ति वितरण कर चुके थे और वन-गमन की तैयारी कर रहे थे। द्रोण को देखकर वह बोले--"ब्राह्मण-श्रेष्ठ ! आपका स्वागत हो । मेरे पास जो कुछ था वह में बांट चुका । अब यह मेरा शरीर और मेरो धनुर्विद्या ही बाकी बची है । बताइये, मैं क्या करूं ?" तब द्रोण ने उनसे सारे अस्त्रों का प्रयोग, उपसंहार तथा रहस्य सिखाने की प्रार्थना को । परशुराम ने ग्रह स्वीकार किया और द्रोण को धनुविद्या की पूरी शिक्षा दो। 

कुछ समय बाद राजकुमार द्रुपद के पिता का देहान्त हो गया और द्रुपद के पांचाल देश को राजगद्दी पर बैठने की खबर द्रोणाचार्य को लगी। यह सुनकर द्रोण बड़े प्रसन्न हुए और राजा द्रुपद से मिलने पांचाल देश को चल पड़े। उन्हें द्रुपद की, गुरु के आश्रम में लड़कपन में की गई, बातचीत याद थी । सोचा, यदि आधा राज्य न भी देगा तो भी कम-से-कम कुछ धन तो जरूर ही देगा। यह आशा लेकर द्रोणाचार्य राजा द्रुपद के पास पहुंचे और बोले"मित्र द्रुपद, मुझे पहचानते हो न? मैं हूं तुम्हारा लड़कपन का मित्र द्रोण।" ऐश्वर्य के मद में भूले हुए राजा द्रुपद को द्रोणाचार्य का आना बहुत बुरा लगा और द्रोण का अपने साथ मित्र का-सा व्यवहार करना भी अखरा । वह उसपर गुस्सा हो गया और बोला"ब्राह्मण, तुम्हारा यह व्यवहार सज्जनोचित नहीं । मुझे मित्र कहकर पुकारने का तुम्हें साहस कैसे हुआ ? सिंहासन पर बैठे हुए एक राजा के साथ एक गरीब, दरिद्र व प्रजाजन को मित्रता कभी हुई है ? तुम्हारी बुद्धि कितनी कच्ची है ! लड़कपन में लाचारी के कारण हम दोनों को जो साथ रहना पड़ा, उसके आधार पर तुम द्रुपद से मित्रता का दावा करने लगे ! दरिद्र की धनी के साथ, मूर्ख को विद्वान् के साथ और कायर को बोर के साथ मित्रता कहीं हो सकती है ? मित्रता बराबरी को हैसियतवालों में ही होती है। जो किसी राज्य का स्वामी न हो, वह किसी राजा का मित्र कभी हो नहीं सकता।" 

द्रुपद की इन कठोर गर्वोक्तियों को सुनकर द्रोणाचार्य बड़े लज्जित हुए और उन्हें क्रोध भी बहुत आया । फिर भी मन-ही-मन कुछ निश्चय करके वहां से बिना कुछ कहे-सुने चल दिये । वह हस्तिनापुर पहुंचे और वहां अपनी पत्नी के भाई (अपने साले) कृपाचार्य के यहां गुप्त-रूप से रहने लगे। एक रोज हस्तिनापुर के राजकुमार नगर के बाहर कहीं गेंद खेल रहे थे कि इतने में उनकी गेंद एक अंधे कुएं जा गिरी। युधिष्ठिर उसको निकालने का प्रयत्न करने लगे तो उनकी अंगूठी भी कुएं के हवाले हो गई । सभी राजकुमार कुएं के चारों ओर खड़े हो गए और पानी के अन्दर चमकती हुई अंगूठी को झांक-झांककर देखने लगे । इतने में काला-काला-सा एक ब्राह्मण उधर से आ निकला और कुछ देर तक राजकुमारों का यह खेल देखता रहा। इसके बाद उनसे बोला-"राजकुमारो! तुम क्षत्रिय हो, भरतवंश के बीपक हो, तुम लोगों से इतना भी नहीं हो सका कि एक गेंद कुएं से निकाल लेते । बोलो, मैं गेंद निकाल दूं तो तुम मुझे क्या दोगे ?" "ब्राह्मण-श्रेष्ठ ! यदि आप गेंद निकाल दें तो कृपाचार्य के घर में आपके भोजन का प्रबन्ध किया जा सकता है।" युधिष्ठिर ने हंसते हुए कहा। 

तब द्रोणाचार्य ने मुस्कराते हुए पास में पड़ी हुई एक सींक उठा ली और उसपर मंत्र का प्रयोग कर उसे पानी में फेंका। सींक गेंद को ऐसे जाकर लगी जैसे तीर । और फिर इस तरह लगातार कई सीके मंत्र पढ़-पढ़कर वे कुएं में डालते गए। सोंके एक-दूसरे के सिर से चिपकती गई। जब आखिरी सींक का सिरा कुएं के बाहर तक पहुंचा, तो द्रोणाचार्य ने उसे पकड़कर खींच लिया और गेंद बाहर आ गई। सब राजकुमार आश्चर्य से इस ब्राह्मण का करतब देख रहे थे। जब गेंद निकल आई तो मारे खुशी के उछलने-कूदने लगे। उनके आनन्द को सीमा न रही। उन्होंने ब्राह्मण से विनती की कि युधिष्ठिर को अंगूठी भी निकाल दीजिए। द्रोण ने तुरन्त धनुष चढ़ाया और कुएं में तीर मारा। बाण पल भर में अंगूठी को अपनी नोक में लिये ऊपर आ गया। द्रोणाचार्य दे अंगूठी कुमारों को दे दी। यह चमत्कार देखकर राजकुमारों को और भी ज्यादा अचरज हुआ। उन्होंने द्रोण के आगे आदरपूर्वक सिर नवाया और हाथ जोड़ कर पूछा"महाराज ! हमारा प्रणाम स्वीकार कीजिए। हमें अपना परिचय दीजिए, आप कौन हैं ? हम आपको क्या सेवा कर सकते हैं। हमें आज्ञा कीजिए।"  

द्रोण ने कहा--"राजकुमार ! यह सारी घटना बताकर पितामह भीष्म से मेरा परिचय प्राप्त कर लेना।" राजकुमारों ने जाकर पितामह भीष्म को सारी बात कह सुनाई और उनसे पूछा कि पितामह, बताइए यह ब्राह्मण कौन थे ? भीष्म ताड़ गए कि हो-न-हो वे सुप्रसिद्ध द्रोणाचार्य ही होंगे । यह विचार करके उन्होंने यह भी निश्चय कर लिया कि अब आगे राजकुमारों को अस्त्र-शिक्षा द्रोणाचार्य के ही हाथों पूरी की जाय । यह सोच कर बड़े सम्मान के साथ उन्होंने द्रोण का स्वागत किया और राजकुमारों को आदेश दिया कि आगे वे धनुविद्या गुरु द्रोण से ही सीखा करें। राजकुमारों की शिक्षा कुछ समय बाद पूरी हो गई । द्रोणाचार्य ने उनसे गुरु-दक्षिणा के रूप में पांचाल-राज द्रुपद को कैद कर लाने के लिए कहा । उनको आज्ञानुसार पहले दुर्योधन और कर्ण ने द्रुपद के राज्य पर धावा किया; पर पराक्रमी द्रुपद ने उनको खब खबर ली और वे हार कर वापस आ गये। फिर द्रोण ने अर्जुन को भेजा । अर्जुन ने पांचालराज की सेना को तहस-नहस कर दिया और राजा द्रुपद को उनके मंत्री सहित कंद करके आचार्य के सामने ला खड़ा किया । द्रोणाचार्य के मलिन मुख-मण्डल पर मुस्कराहट की लहर दौड़ गई। उन्होंने कैदी द्रुपद से कहा--"हे वीर ! डरो नहीं । किसी प्रकार की विपत्ति की आशंका न करो। लड़कपन में तुम्हारी-हमारी मित्रता थी। साथ-साथ खेले-कूदे, उठे-बैठे। बाद में जब तुम राजा बन गये तो ऐश्चर्य के मद में आकर तुमने मुझे धोखा दिया और मेरा अपमान किया। तुम्हें याद है न, तुमने कहा था कि राजा के साथ राजा ही मित्रता कर सकता है ? इसी कारण मुझे युद्ध करके तुम्हारा राज्य छीनना पड़ा। परन्तु में तो तुम्हारे साथ मित्रता ही बरतना चाहता हूं, इसलिए आधा राज्य तुम्हें वापस लौटा देता हूं; क्योंकि मेरे मित्र बनने के लिए भी तो तुम्हें राज्य चाहिए न ! मित्रता तो बराबरी की हैसियत वालों में ही हो सकती है न !" 

लाख का घर द्रोणाचार्य ने यो व्यंग-बाणों से राजा द्रुपद से काफी बदला ले लिया । द्रुपद बड़ा अपमानित हुआ और लज्जा के मारे सिर झुकाये खड़ा रहा । द्रोणाचार्य का भी जो भर आया और उन्होंने द्रुपद को आधा राज्य भी लौटा दिया और बड़े सम्मान के साथ विदा किया । इस प्रकार राजा द्रुपद का गर्व तो चूर हो गया; लेकिन उसके साथ ही द्रोणाचार्य के प्रति उनके मन में बैर-भाव बढ़ा। राज्य लौटने पर राजा द्रुपद ने कई कठोर व्रत रखे और यह कामना की कि मेरे एक ऐसा पुत्र हो जो द्रोण को मार सके और ऐसी एक कन्या हो जो अर्जुन से ब्याही जा सके । आखिर उनको कामना पूरी हुई। उनके धृष्टद्युम्न नामक एक बेटा हुआ और द्रौपदी नामको एक बेटो । आगे चलकर कुरुश्रेत्र की रण-भूमि में अजेय द्रोणाचार्य इसी धृष्टद्युम्न के हाथों मारे गये थे । 
द्रोणाचार्य और द्रुपद मित्र से शत्रु कैसे हो गए द्रोणाचार्य और द्रुपद मित्र से शत्रु कैसे हो गए Reviewed by Tarun Baveja on August 05, 2021 Rating: 5

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