कर्ण का चरित्र चित्रण

कर्ण का चरित्र चित्रण 

धृतराष्ट्र के बेटे कौरवों तथा पाण्ड पुत्र पाण्डवों ने पहले कृपाचार्य से और बाद में द्रोणाचार्य से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा पाई। जब उनको विद्या में काफी निपुणता प्राप्त हो गई तो एक बड़ा समारोह किया गया जिसमें सबने अपने-अपने कौशल का प्रदर्शन किया। सभी नगरवासी इस समारोह में शामिल हुए थे। उसमें तरह-तरह के खेल थे हरेक राजकुमार यही चाहता था कि मै ही सबसे बढ़कर निकलूं। लागडांट बड़े जोर की थी। पर तीर चलाने में पाण्डु-पुत्र अर्जुन का कोई सानी न था। 

अर्जुन ने धनुष विद्या में कमाल का खेल कर दिखाया। उसकी अद्भुत चतुरता को देख सारे दर्शक और उपस्थित राजवंश के लोग दंग रह गए। यह देखकर दुर्योधन का मन ईर्ष्या की आग में और जलने । लगा। अभी खेल हो ही रहा था कि इतने में रंग-भूमि के द्वार पर किसी के खम टोंकते हुए आने का शब्द सुनाई दिया। दर्शक और खिलाड़ी राजकुमारों का ध्यान उधर चला गया और उत्सुकता से उधर देखने लगे। 

क्या देखते हैं कि एक रोबीला और तेजस्वी युवक धीर-गंभीर चाल से रंगभूमि की ओर चला आ रहा है। दर्शकों ने उसे रास्ता दे दिया और वह रंगभूमि में आकर अर्जुन के सामने खड़ा हो गया। यह युवक और कोई नहीं, अधिरथ द्वारा पोषित कुन्ती-पुत्र कर्ण ही था। उसके कुन्ती पुत्र होने की बात किसी को मालूम न थी। रंगभूमि में आते ही उसने अर्जुन को ललकारा--"अर्जुन ! जो कुछ करतब तुमने कर दिखाये हैं उससे भी बढ़कर कौशल दिखाने के कर्ण लिए मैं तयार हूं।" 

इस चुनौती को सुनकर दर्शक-मंडली में बड़ी खलबली मच गई। पर ईर्ष्या की आग से जलने वाले दुर्योधन को बड़ी राहत मिली। वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने बड़े तपाक से कर्ण का स्वागत किया और उसे छाती से लगा लिया। बोला-"कहो, कर्ण, कैसे आये? बताओ, हम तुम्हारे लिए क्या कर सकते ह?" कर्ण बोला--- "राजन् ! मैं अर्जुन से द्वन्द्व-युद्ध करने आया हूं और आपसे मित्रता करना चाहता हूं।" कर्ण की चुनौती को सुनकर अर्जुन को बड़ा क्रोध आया। उसने कहा-- "कर्ण ! जो बिना बुलाये सभा में आते हैं और बिना किसी से पूछ बोलने लगते है वे निन्दा के योग्य हैं।" यह सुन कर कर्ण ने कहा-- "अर्जुन, यह उत्सव केवल तुम्हारे ही लिए नहीं मनाया जा रहा। सभी प्रजा-जन इसमें भाग लेने का अधिकार रखते है। क्षत्रियों का धर्म बल का अनुयायी है। व्यर्थ डींग मारने से फायदा क्या? चलो, तीरों से बातें करें !" जब कर्ण ने अर्जुन को यों चुनौती दी तो दर्शक लोगों ने तालियां बजाकर कोलाहल मचाया। उनके दो दल बन गए। एक दल अर्जुन को दाद देने लगा और दूसरा कर्ण को । 

इसी प्रकार वहां इकट्ठी स्त्रियों के भी दो दल बन गये। इससे मालूम होता है कि संसार में 'पार्टीबाजी' की यह प्रथा मुद्दत से चली आई है। कुन्ती ने कर्ण को देखते ही पहचान लिया और भय और लाज के मारे मूच्छित हो गई। उसकी यह हालत देखकर विदुर ने दासियों को बुलाकर उसको सचेत करवाया और मीठे शब्दों में आश्वासन दिया और समझाया । कुंती किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई। इस बीच कृपाचार्य ने उठकर कर्ण से कहा-- "अज्ञात बोर ! महाराज पाण्डु का पुत्र और कुरुवंश का वीर अर्जुन तुम्हारे साथ द्वन्द्व करने के लिए तैयार है। पर तुम पहले अपना परिचय तो दो ! तुम कौन हो, किसके पुत्र हो, किस राज-कुल को तुम विभूषित करते हो ? क्योंकि द्वन्द्व-युद्ध बराबर वालों में ही होता है। कुल तथा कुलाचार का परिचय पाये बगैर राजकुमार कभी द्वन्द्व करने को तैयार नहीं होते।" 

कृपाचार्य की यह बात सुनकर कर्ण का सिर लज्जा से इस प्रकार झुक गया जैसे वर्षा के जल में भीगा हुआ कमल । कर्ण लज्जा के कारण श्री-विहीन हो गया । कर्ण को इस तरह लज्जित देखकर दुर्योधन उठ खड़ा हुआ और बोला--"अगर बराबरी को बात है तो में आज ही कर्ण को अंगदेश का राजा बनाता हूं।" यह कहकर दुर्योधन ने तुरन्त पितामह भीष्म एवं पिता धृतराष्ट्र से अनुमति लेकर वहीं रंगभूमि में ही राज्याभिषेक की सामग्री मंगाई और कर्ण का राज्याभिषेक करवाया और उसे अंगदेश का राजा घोषित कर दिया। इतने में बूढ़ा सारथी अधिरथ, जिसने कर्ण को पाला था, लाठी टेकता हुआ और भय के मारे कांपता हुआ सभा में प्रविष्ट हुआ। 

कर्ण जो अभी-अभी अंगदेश का नरेश बना दिया गया था, उसको देखते ही धनुष नीचे रख कर उठ खड़ा हुआ और पिता मानकर बड़े आदर के साथ उसके आगे सिर नवाया । बूढ़े ने भी 'बेटा' कहकर उसे गले लगा लिया और अभिषेक-जल से भीगे हुए कर्ण के सिर पर आनन्द के आंसू बहाकर उसे और भिगो दिया । यह देखकर भीम खूब कहकहा मारकर हंस पड़ा और बोला"सारथी के बेटे, धनुष छोड़कर हाथ में चाबुक लो, चाबुक ! वही तुम्हें शोभा देगा। तुम भला अर्जुन के साथ द्वन्द्व युद्ध करने के योग्य हो ?" इससे सभा में बड़ी खलबली मच गई। इस समय सूरज डूब रहा था। सभा विसर्जित हो गई। मशाल और दियों की रोशनी में दर्शक वृन्द तरह-तरह से शोर मचाते हुए चले गए। अपनी-अपनी पसन्द के अनुसार कुछ लोग अर्जुन को, कुछ कर्ण की और कुछ दुर्योधन को जय बोलते जाते थे। 

कर्ण इस घटना के बहुत काल बाद एक बार देवराज इन्द्र बूढ़े ब्राह्मण के वेश में अंग-नरेश कर्ण के पास आये और उसके पैदायशी कवच और कुण्डल की भीख मांगी। देवराज इन्द्र को डर था कि युद्ध में कर्ण को शक्ति से कहीं मेरे पुत्र अर्जुन पर विपत्ति न आ जाय । इस कारण कर्ण को ताकत कम करने की इच्छा से उन्होंने दानवीर कर्ण से यह भीख मांगी थी। इससे पहले कर्ण को उसके पिता सूर्यदेव ने चेता दिया था कि तुम्हें धोखा देने के लिए इन्द्र ऐसी चाल चलने वाले हैं, परन्तु कर्ण इतना दानी था कि किसी के कुछ मांगने पर वह नाहीं कर नहीं सकता था । 

इस कारण यह जानते हुए भी कि भिखारी के वेश में इन्द्र मुझ से चाल चल रहे हैं, दानवीर कर्ण ने तलवार से अपनी पसली चीरकर और अपने कान काटकर पैदायशी कवच और कुण्डल निकाल कर ब्राह्मण को दे दिए । इस अद्भुत दानवीरता को देखकर देवराज इन्द्र भी चकित हो गए और कर्ण की प्रशंसा करते हुए बोले--"कर्ण, तुमने आज वह काम किया है जो और किसी के बूते का नहीं था। तुमसे मैं बहुत प्रसन्न हूं। तुम जो भी वरदान मांगो दूंगा।" कर्ण ने देवराज से कहा--"आप प्रसन्न है तो शत्रुओं का संहार करने वाला अपना 'शक्ति' नामक शस्त्र मुझे प्रदान करें।" बड़ी प्रसन्नता के साथ शस्त्र कर्ण को देते हुए देवराज ने तुम जिस किसीको लक्ष्य करके इसका प्रयोग करोगे वह अवश्य मारा जायगा। परन्तु एक ही बार तुम इसका प्रयोग कर सकोगे। तुम्हारे शत्रु को मारने के बाद यह मेरे पास वापस आ जायगा।" इतना कह कर इन्द्र चले गए। 

एक बार कर्ण को परशुरामजी से ब्रह्मास्त्र का मंत्र सीखने की इच्छा हुई। उसे यह पता था कि परशुरामजी ब्राह्मणों को छोड़कर और किसीको शिष्य नहीं बनाते इसलिए वह ब्राह्मण के वेश में परशुरामजी के पास गया और प्रार्थना की कि मुझे शिष्य स्वीकार करने को कृपा करें। परशुरामजी ने उसे ब्राह्मण समझ कर शिष्य बना कहा--"युद्ध में महाभारत-कथा लिया। इस तरह धोखे से कर्ण ने ब्रह्मास्त्र चलाना सीख लिया । एक दिन परशुराम कर्ण को जांघ पर सिर रख कर सो रहे थे। इतने में एक भौंरा कर्ण को जांघ के नीचे घुस गया और काटने लगा। कोड़े के काटने से कर्ण को बहुत पीड़ा हुई। जांघ से लहू की धारा बहने लगी, पर कर्ण ने जरा भी जांघ को हिलाया-डुलाया नहीं-इस भय से कि कहीं गुरुदेव को नींद न खुल जाय। जब खून से परशुराम को देह भोगने लगी तो उनको नींद खुली। उन्होंने देखा कि कर्ण की जांध से जोरों से खून बह रहा है। यह देख परशुराम बोले-"बेटा, सच बताओ तुम कौन हो? इतनी शारीरिक पीड़ा सहते हुए स्थिर रहना ब्राह्मण के बूते का नहीं है। केवल क्षत्रिय ही यह पीड़ा सह सकता है।" अब कर्ण से असली बात छिपाते न बनी। उसने कबूल किया कि वह ब्राह्मण नहीं, बल्कि सूत-पुत्र है। यह जानकर परशुराम को बड़ा क्रोध आया। क्षत्रियों के तो वे दुश्मन थे ही। उन्होंने उसी घड़ी कर्ण को शाप देते हुए कहा--"चूंकि तुमने अपने गुरु को ही धोखा दिया इसलिए जो ब्रह्मास्त्रविद्या तुमने मुझसे सीखी है, वह अन्त समय में तुम्हारे काम न आयेगी । ऐन दक्त पर तुम उसे भूल जाओगे और रणक्षेत्र में तुम्हारे रथ का पहिया पृथ्वी में धंस जायगा।" परशुराम का यह शाप झूठा न हुआ। जीवन-भर कर्ण को उनको सिखलाई हुई ब्रह्मास्त्र विद्या याद रही। 

पर कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन से युद्ध करते समय कर्ण को वह याद न रही। दुर्योधन के घनिष्ट मित्र कर्ण ने अन्त समय तक कौरवों का साथ न छोड़ा। कुरुक्षेत्र के युद्ध में भीष्म तथा आचार्य द्रोण के आहत हो जाने के बाद दुर्योधन ने कर्ण को ही कौरव सेना का सेनापति बनाया था। कर्ण ने दो दिन तक युद्ध का अद्भुत कुशलता के साथ संचालन किया । आखिर जब शाप-वश उसके रथ का पहिया जमीन में धंस गया और वह धनुष-बाण रखकर जमीन में धंसा पहिया निकालने का प्रयत्न करने लगा तब अर्जुन ने उस महारथी को मारा । माता कुन्ती के दुःख का पार न रहा। :
कर्ण का चरित्र चित्रण कर्ण का चरित्र चित्रण Reviewed by Tarun Baveja on April 18, 2021 Rating: 5

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