ये 9 बातें आजमाए तो जीवन स्वर्ग बन जाए
१. यदि आप अपने माता-पिता का आदर करेंगे तो आपके बच्चे भी आपका आदर करना सीखेंगे।
२. दूसरे मनुष्यों से जैसा व्यवहार आप अपने लिए पसन्द करते हैं वैसा ही व्यवहार यदि आप दूसरों के साथ करे तो आपका जीवन बदलकर स्वर्ग बन सकता है। सामने वाले के स्थान पर अपने को रखकर जरा सोचने की आदत डालें यानि "मैं उसकी जगह होता तो क्या करता" तो बहुत सी विकट समस्याओं का समाधान स्वत: ही मिल जाएगा और साथ ही अनावश्यक तनाव से मुक्ति भी।
३. किसी को भी बिना मांगे और अनावश्यक सलाह देने और बात बात पर टोकने की आदत त्याग दें। इस तरीके से किसी व्यक्ति, चाहे बच्चा हो या बड़ा, सुधार लाने की आशा करना व्यर्थ है। प्रकृति, सत्संगति, महापुरुषों का जीवन और श्रेष्ठ लेखकों की प्रेरणादायक पुस्तकें ही वास्तविक प्रेरणा स्रोत हैं, जीवन में सुधार लाने के लिए।
४. जैसा मधुर व्यवहार विवाह से पहले प्रेमी-प्रेमिका के मध्य देखा जाता है वैसा ही प्रेमी-प्रेमिकावत् व्यवहार, एक-दूसरे को समझने की भावना और परस्पर तालमेल का विवाह के बाद जीवन में स्थान दिया जाय तो पति-पत्नी का वैवाहिक जीवन वास्तव में आनन्ददायक बन सकता है। फिर भला दाम्पत्य- जीवन में कटुता और क्लेश को स्थान कहाँ !
५. 'क्या खाते हैं' इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि खाये हुए आहार को ठीक से पचाना। अत: जो आहार आप ठीक से पचा न सके या जो खाद्य पदार्थ आपको अनुकूल न आता हो (Diet which does not suit you) उसका सेवन त्याग देना चाहिए। इसी प्रकार क्या कमाते हैं? इससे अधिक महत्त्वपूर्ण है आपको अपनी आय को विवेक और बुद्धिमत्ता से खर्च करना आना।
६. दूसरों की बढ़ोत्तरी से अपना मिलान या कम्पेरिज़न करके दुःखी मत होइए और न ही व्यर्थ की प्रतिस्पर्धा में उतरकर होश खोइए। प्रतिस्पर्धा का कहीं अन्त नहीं है। ईर्ष्या एवं दूसरों को सुखी देखकर दुःखी होने का स्वभाव मानसिक तनाव और अनेकानेक रोगों का कारण बनता है जबकि दूसरों को सुखी देखकर आनन्दित होने का मज़ा अपने आप में किसी स्वर्गिक सुख कम नहीं है। अपने जीवन रूपी 'आधी भरी, आधी खाली गिलास' के आधे खाली भाग को देख-देखकर और अपनी उपलब्धियों को नजरअन्दाज करके व्यर्थ में दुःखी मत होइए। 'जो पास में नहीं है' उसे देखकर निराश होने की बजाय 'जो पास में है' उसे देखकर आप सदा आशावादिता के साथ खुशियाँ बटोरिए । सदा सकारात्मक दृष्टिकोण (Positive Thinking) अपनाइए। 'जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि' । इस सृष्टि में सभी समान नहीं हो सकते। यहाँ तक एक ही माँ की कोख से उत्पन्न भाई-बहन में भी प्रत्येक का अपना एक अलग व्यक्तित्व है। यह भेद जन्म-जन्मान्तर के शुभाशुभ कर्मों का प्रतिफल है। कर्मवाद सदकर्मों की प्रेरणा देता है और सप्त-व्यसनों से बचाता है। जैसा कोई कर्म करेगा वैसा ही उसे फल मिलेगा। अच्छे कर्मों के द्वारा इस जीवन और अगले जन्म को निखारना आपके अपने हाथ में है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने फल की कामना किए बिना, अच्छे कर्म करने की प्रेरणा दी है: 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्' इस मर्म को समझने के बाद बहुत से मानसिक तनावों से सहज ही मुक्ति मिल जाती है और कर्तव्य परायणता का पथ प्रशस्त हो जाता है।
७. 'सादा जीवन, उच्च विचार' के अपनाने से जहाँ आत्मा चमकती हैं वहाँ फैशनपरस्ती और कुत्सित विचारों से आत्मा मलीन होती है। हमारी संस्कृति आत्मोन्मुखी होने से आत्मा-प्रधान है। यहाँ व्यक्ति के चरित्र और गुणों की पूजा होती है, शरीर और शरीर पर धारण किए गए वस्त्र-आभूषणों या उनके नकल (फैशन) की नहीं। आवश्यकताओं को कम करने में ही सच्चा सुख छिपा है। चाह घटाने से चिन्ताओं से मुक्ति मिलती है। किसी ने सच कहा हैचाह गई, चिन्ता मिटी, मनुवा बेपरवाह । जिसको कुछ नहीं चाहिए, है शहनशाह ।।
८. सभी धर्म, देवी-देवता, आस्थाएं, पूजा-पद्धतियों का हमें सम्मान करना चाहिए क्योंकि ये सब केवल माध्यम अथवा मार्ग हैं—एकमात्र लक्ष्य परमात्मा तक पहुँचने के लिए। जिस प्रकार अनेक नदियों और जल-धाराओं के जल का एकमात्र लक्ष्य आगे जाकर अन्त में विशाल सागर में विलीन होकर उस सागर से एकाकार हो जाना है, उसी प्रकार समस्त धर्म, देवी-देवता, आस्थाएं और उनसे जुड़ी पूजा-पद्धतियों के उपासक का अन्तिम लक्ष्य भी आगे जाकर अन्त में परमात्मा-प्राप्ति या आत्मा का विराट् परमात्मा में लीन होकर परमात्मा से एकाकार हो जाना ही है। 'सर्वधर्मसम्मानभाव' की इतनी सी बात ठीक से समझकर जीवन में आचरण में लाई जाय तो साम्प्रदायिकता का नामोनिशान न रहेगा और इन्सानियत जागेगी जिससे हमारा जीवन स्वर्ग बन जाएगा।
९. किसी भी भारतीय को किसी के आगे नतमस्तक होने की जरूरत नहीं है क्योंकि हमारी संस्कृति महान् है जो कि राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, गुरुनानक जैसे धर्मनायकों द्वारा स्थापित महान् मानवीय मूल्यों और आदर्शों यथा-'सादा जीवन, उच्च विचार', ब्रह्मचर्य, शाकाहार, सर्वधर्मसम्मानभाव, सभी देवी-देवताओं के प्रति सम्मान, नारी के प्रति सम्मान, माता-पिता-बुजुर्गों के प्रति सम्मान, सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा की भावना, क्षमा, करुणा, सत्य, अस्तेय, समन्वयवाद, कर्मवाद, सन्तोष, दान, शील, तप, त्याग, समर्पण, प्रेम, भाईचारा पर आधारित है और जो सर्वधर्म सहिष्णुता, अनेकता में एकता, सह-अस्तित्व, ‘जीओ और जीने दो' और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का सन्देश देती है। आज विरासत में मिली मानवीय मूल्यों की ऊँचाई को छूने वाली इसी संस्कृति के कारण हमारा सिर सदैव ऊँचा रहा है और इसी से हमारा देश भारत महान् है। भारत के सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करना और उन्हें जीवन में उतारना हमारा परम धर्म है 1
याद रखें ज़िन्दगी धन और सत्ता के संचय का नाम नहीं है बल्कि आशीर्वादों के मोतियों को एकत्र करने का नाम है। जहाँ धन और सत्ता की प्राप्ति के लिए शोषण और जुल्म अनिवार्य है वहाँ आशीर्वादों के मोती बटोरने के लिए किसी को पीड़ित करने की नहीं बल्कि दूसरों की पीड़ा हरने की जरूरत रहती है। सच्चा सुख अनन्त इच्छाओं की पूर्ति के पीछे भागने का नाम नहीं है (जो कि मृगतृष्णा मात्र है) बल्कि जीवन में सादगी, संतोष और सदाचरण अपनाने का नाम है। सच्चा धर्म दिखावे और आडम्बर का नाम नहीं है बल्कि. मानव सेवा और त्याग-भावना द्वारा दीन-दुःखियों के आँसू पोंछने और प्यार बाँटने का नाम है।

No comments: