* प्रश्न आत्मा का आकार कितना है ?
वेद विधान, गीता पुराण आदि ग्रंथों में आत्मा को सुक्ष्म अणु जैसे शब्दों से संबोधित किया गया है। लेकिन इन शब्दों से केवल इतना ज्ञात होता है कि आत्मा का आकार परमाणुओं से भी छोटा है और नेत्रों से देखा नहीं जा सकता। आत्मा अणु ही है। वह शरीराकार या सर्वव्यापक नहीं है।
तो प्रश्न यह है कि आत्मा का आकार या माप कितना है। कुछ तो साईज होगा आत्मा का। इसे वेद यानी उपनिषदों के प्रमाणो से समझेंगे।
आत्मा का आकार कितना है। यह सबसे स्पष्ट रुप से 'कृष्णयजुर्वेद के श्वेताश्वेतरोपनिषद' में कहा गया। श्वेताश्वेतरोपनिषदः 5.9 में कहा गया, कि "बाल की नोंक के 100 वे भाग को पुनः 100 भागों में कल्पना किया जाये, उसका जो एक भाग होता है, वही आत्मा का स्वरूप समझना चाहिए" और वह असीम भाव होने में समर्थ है। यानी बाल का जो अगला हिस्सा है, गोलाकार जैसा। उसको पहले 100 भागों में विभक्त किया जाए। फिर उसके एक भाग को लेकर पुनः 100 भागों में विभक्त किया जाए। अब उनमें से किसी एक भाग के बराबर, आत्मा का आकार है।
वैसे मनुष्य के बालों का व्यास डायमीटर 0.07 से लेकर 0.18 मिलीमीटर होता है। यदि औसत निकाला जाए तो 0.0985 मिली मीटर होता है। अतः श्वेताश्वेतरोपनिषद के प्रमाण को मानकर यदि आत्मा के आकार की गणना करें, तो बाल के 100 भाग को पुनः 100 भाग। यानी कुल 10000 भागों में विभक्त करना है। वहीं बाल का औसतन व्यास है 0.0985 मिलीमीटर। इस प्रकार आत्मा का आकार श्वेताश्वेतारोपनिषद के अनुसार 0.985 × 10^ -5 मिलीमीटर होता है। लेकिन इस प्रकार की गणना करना उचित नहीं है।
* पहलाः किसका बाल आप स्वीकार करेंगे ? मनुष्य का, हाथी का, घोड़े का, कुत्ते का या, गधे का। फिर इन शरीरों में भी पुरुष या स्त्री के शरीर का। फिर शरीर के किस अंग का बाल आंख का, हाथ का, पैर का, मस्तक का किसका। फिर मोटा बाल या पतला बाल। हम ये प्रश्न इसलिए पूछ रहे हैं, क्योंकि वेद में श्वेताश्वतरोपनिषद में केवल 'बाल' कहां है। किसका बाल, कैसा बाल यह कुछ नहीं कहा है। तो फिर आप जो गणना करेंगे तो उसमें किस के बाल को आधार मानेंगे।
यदि श्वेताश्वतरोपनिषदों को ध्यान से पढ़ें तो वहां "कल्पितस्य" शब्द आता है। अर्थात वेद 'कल्पना' करने को कह रहे हैं, कि 100 वे भागों को पुनः 100 भागों में कल्पना किया जाए। उसका जो एक भाग होता है। अतवः यह सोचना चाहिए कि यदि आत्मा के आकार को बताना संभव होता तो वेदों ने स्पष्ट बता दिया होता। वेदों का इस तरह से कहने का आशय है कि आत्मा का आकार स्पष्ट रूप से बताना संभव नहीं है।
* क्यों स्पष्ट रूप से आत्मा का आकार बताना संभव नहीं है- ऐसा इसलिए क्योंकि आत्मा "माया" का पदार्थ नहीं है। हम जो कुछ देखते हैं, सुनते हैं, स्पर्श करते हैं अथवा यह संसार सब "माया" का बना है। हम केवल माया के बनाए गए, चीजों का आकलन कर सकते हैं। वो भी माया की बनी हुई चीजों से। "आत्मा तो दिव्य है"।
श्वेताश्वतरोपनिषद 1.10 में कहा गया कि "प्रकृति तो विनाशशील है। इनको भोगने वाला जीवात्मा अमृतस्वरूप अविनाशी है। इन विनाशशील जड़-तत्व और चेतन आत्मा दोनों को एक ईश्वर अपने शासन में रखता है"। इस प्रमाण से ये स्पष्ट होता है कि माया और आत्मा दो अलग-अलग तत्व है। जहां 'माया', 'भोग्य विनाशशील' और 'जड़-तत्व' है। वही 'आत्मा' 'भोक्ता' अर्थात 'भोगने वाला' अविनाशी चेतन तत्व है। बिल्कुल विपरीत स्वभाव है, दोनों का। तो 'भोक्ता' और 'भोग्य' कैसे एक हो सकते हैं। यह दोनों तत्व, एक-दूसरे से विपरीत है। अतएव माया के पदार्थ से कैसे दिव्य आत्मा के विषय में ज्ञात हो सकता है। हां अनुमान लगा सकते हैं.. उसे उपमाओं से समझा सकते हैं।
जिस प्रकार जब कभी किसी के स्वरूप को बताने में असमर्थ होते हैं। किसी भाव को बताने में असमर्थ हो जाते हैं। तब वे उपमा देते हैं। अनुमान द्वारा समझाने का प्रयत्न करते हैं। जैसे- "प्यार छुपा है खत में इतना, जितने सागर में मोती" अब प्यार को बताने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। "नारद भक्ति सूत्र- 51" इसका समर्थन करता है। नारद भक्ति सूत्र में कहा गया कि प्रेम का स्वरूप बताया नहीं जा सकता; क्योंकि वो अनुभव की जाने वाली चीज है।
वेद विधान, गीता पुराण आदि ग्रंथों में आत्मा को सुक्ष्म अणु जैसे शब्दों से संबोधित किया गया है। लेकिन इन शब्दों से केवल इतना ज्ञात होता है कि आत्मा का आकार परमाणुओं से भी छोटा है और नेत्रों से देखा नहीं जा सकता। आत्मा अणु ही है। वह शरीराकार या सर्वव्यापक नहीं है।
तो प्रश्न यह है कि आत्मा का आकार या माप कितना है। कुछ तो साईज होगा आत्मा का। इसे वेद यानी उपनिषदों के प्रमाणो से समझेंगे।
आत्मा का आकार कितना है। यह सबसे स्पष्ट रुप से 'कृष्णयजुर्वेद के श्वेताश्वेतरोपनिषद' में कहा गया। श्वेताश्वेतरोपनिषदः 5.9 में कहा गया, कि "बाल की नोंक के 100 वे भाग को पुनः 100 भागों में कल्पना किया जाये, उसका जो एक भाग होता है, वही आत्मा का स्वरूप समझना चाहिए" और वह असीम भाव होने में समर्थ है। यानी बाल का जो अगला हिस्सा है, गोलाकार जैसा। उसको पहले 100 भागों में विभक्त किया जाए। फिर उसके एक भाग को लेकर पुनः 100 भागों में विभक्त किया जाए। अब उनमें से किसी एक भाग के बराबर, आत्मा का आकार है।
वैसे मनुष्य के बालों का व्यास डायमीटर 0.07 से लेकर 0.18 मिलीमीटर होता है। यदि औसत निकाला जाए तो 0.0985 मिली मीटर होता है। अतः श्वेताश्वेतरोपनिषद के प्रमाण को मानकर यदि आत्मा के आकार की गणना करें, तो बाल के 100 भाग को पुनः 100 भाग। यानी कुल 10000 भागों में विभक्त करना है। वहीं बाल का औसतन व्यास है 0.0985 मिलीमीटर। इस प्रकार आत्मा का आकार श्वेताश्वेतारोपनिषद के अनुसार 0.985 × 10^ -5 मिलीमीटर होता है। लेकिन इस प्रकार की गणना करना उचित नहीं है।
ध्यान दें.. इस प्रकार की गणना करना उचित नहीं है। फिर भी कुछ लोग जो लकीर के फकीर है और अपने आप को 'श्रोत कर्ता' कहते हैं। वे बाल के आकार को अलग-अलग मानकर, किसी प्रकार आत्मा का आकार बताएंगे। जिसमें कुछ प्रश्न पैदा होते है।
* पहलाः किसका बाल आप स्वीकार करेंगे ? मनुष्य का, हाथी का, घोड़े का, कुत्ते का या, गधे का। फिर इन शरीरों में भी पुरुष या स्त्री के शरीर का। फिर शरीर के किस अंग का बाल आंख का, हाथ का, पैर का, मस्तक का किसका। फिर मोटा बाल या पतला बाल। हम ये प्रश्न इसलिए पूछ रहे हैं, क्योंकि वेद में श्वेताश्वतरोपनिषद में केवल 'बाल' कहां है। किसका बाल, कैसा बाल यह कुछ नहीं कहा है। तो फिर आप जो गणना करेंगे तो उसमें किस के बाल को आधार मानेंगे।
यदि श्वेताश्वतरोपनिषदों को ध्यान से पढ़ें तो वहां "कल्पितस्य" शब्द आता है। अर्थात वेद 'कल्पना' करने को कह रहे हैं, कि 100 वे भागों को पुनः 100 भागों में कल्पना किया जाए। उसका जो एक भाग होता है। अतवः यह सोचना चाहिए कि यदि आत्मा के आकार को बताना संभव होता तो वेदों ने स्पष्ट बता दिया होता। वेदों का इस तरह से कहने का आशय है कि आत्मा का आकार स्पष्ट रूप से बताना संभव नहीं है।
* क्यों स्पष्ट रूप से आत्मा का आकार बताना संभव नहीं है- ऐसा इसलिए क्योंकि आत्मा "माया" का पदार्थ नहीं है। हम जो कुछ देखते हैं, सुनते हैं, स्पर्श करते हैं अथवा यह संसार सब "माया" का बना है। हम केवल माया के बनाए गए, चीजों का आकलन कर सकते हैं। वो भी माया की बनी हुई चीजों से। "आत्मा तो दिव्य है"।
श्वेताश्वतरोपनिषद 1.10 में कहा गया कि "प्रकृति तो विनाशशील है। इनको भोगने वाला जीवात्मा अमृतस्वरूप अविनाशी है। इन विनाशशील जड़-तत्व और चेतन आत्मा दोनों को एक ईश्वर अपने शासन में रखता है"। इस प्रमाण से ये स्पष्ट होता है कि माया और आत्मा दो अलग-अलग तत्व है। जहां 'माया', 'भोग्य विनाशशील' और 'जड़-तत्व' है। वही 'आत्मा' 'भोक्ता' अर्थात 'भोगने वाला' अविनाशी चेतन तत्व है। बिल्कुल विपरीत स्वभाव है, दोनों का। तो 'भोक्ता' और 'भोग्य' कैसे एक हो सकते हैं। यह दोनों तत्व, एक-दूसरे से विपरीत है। अतएव माया के पदार्थ से कैसे दिव्य आत्मा के विषय में ज्ञात हो सकता है। हां अनुमान लगा सकते हैं.. उसे उपमाओं से समझा सकते हैं।
जिस प्रकार जब कभी किसी के स्वरूप को बताने में असमर्थ होते हैं। किसी भाव को बताने में असमर्थ हो जाते हैं। तब वे उपमा देते हैं। अनुमान द्वारा समझाने का प्रयत्न करते हैं। जैसे- "प्यार छुपा है खत में इतना, जितने सागर में मोती" अब प्यार को बताने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। "नारद भक्ति सूत्र- 51" इसका समर्थन करता है। नारद भक्ति सूत्र में कहा गया कि प्रेम का स्वरूप बताया नहीं जा सकता; क्योंकि वो अनुभव की जाने वाली चीज है।
इसलिए कवि उपमा देते हुए कहते हैं कि "जितने सागर में मोती है इतना प्यार तुम्हारे खत में छुपा है"। इसी तरह संत भी ऐसा कहते हैं, जब उन्हें भगवान का स्वरूप बताना होता है। जैसे- भगवान कमलनयन है यानी उनका आंख कमल के समान है, उनका मुख सूर्य समान तेजस्वी है। "हरि पद कोमल कमल से" यहां हरि के पैरों को कमल के सामान कोमल बताया गया है। अतवः आत्मा दिव्य है, और उसका आकार सुक्ष्म जैसा है। अणु जैसा है। आत्मा सुक्ष्म या अणु नहीं है। ध्यान रहे.. जैसा और वही होने में अंतर है। वेदों ने उपमा देते हुए आत्मा का आकार अणु बताया है।
आत्मा का आकार कितना है
Reviewed by Tarun Baveja
on
July 21, 2020
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