हमारे भोजन क्या है - शाकाहार या मांसाहार

 


हमारे भोजन क्या है - शाकाहार या मांसाहार

   पिछले पृष्ठों में बताया जा चुका है, कि भोजन ही हमारा जीवन है। यदि भोजन हमें न मिले, तो हम किसी प्रकार जीवित नहीं रह सकते। इसके साथ ही यह भी बताया जा चुका है, कि साधारणतया जो भोजन और उसके पदार्थ हमारे खाने में उपयोग हुआ करते हैं, वे पदार्थ वास्तव में हमारे भोजन के नहीं हैं। यहाँ पर भोजन के सम्बन्ध में कुछ विस्तार के साथ लिखकर इस बात का विचार करना है, कि प्रकृति ने किस प्रकार का भोजन करने के योग्य हमारे शरीर की रचना की है।


हमारे भोजन क्या है - शाकाहार या मांसाहार


हमारे भोजन क्या है - शाकाहार या मांसाहार

   पिछले पृष्ठों में बताया जा चुका है, कि भोजन ही हमारा जीवन है। यदि भोजन हमें न मिले, तो हम किसी प्रकार जीवित नहीं रह सकते। इसके साथ ही यह भी बताया जा चुका है, कि साधारणतया जो भोजन और उसके पदार्थ हमारे खाने में उपयोग हुआ करते हैं, वे पदार्थ वास्तव में हमारे भोजन के नहीं हैं। यहाँ पर भोजन के सम्बन्ध में कुछ विस्तार के साथ लिखकर इस बात का विचार करना है, कि प्रकृति ने किस प्रकार का भोजन करने के योग्य हमारे शरीर की रचना की है।



   भोजन के सम्बन्ध में सबसे पूर्व यह जानने की आवश्यकता है, कि जो भोजन जितना शीघ्र पच सकता है, वही उतना लाभदायक होता है। किन्तु इस बात का भ्रम न केवल सर्वसाधारण में वरन् समाज के समझदार, विचारशील व्यक्तियों में भी अधिक से अधिक परिमाण में पाया जाता है, कि अमुक पदार्थ अधिक बल और रक्त पैदा करने वाले हैं। इस भ्रम के कारण समस्त व्यक्ति उसी प्रकार के भोजन खाने और खिलाने के अभ्यासी होते हैं। इस छोटे से भ्रम के कारण, मनुष्य के स्वास्थ्य को बड़ी हानि पहुंचती है। जिन वस्तुओं में इस प्रकार के गुण पाये जाते हैं, वे कितने भारी और अपाचक होते हैं। सामान्यतः इस बात का कभी विचार भी नहीं किया जाता। होता यह है, कि उन पदार्थों से बने हुए भोजन को पचने के लिए जितना समय चाहिए, उतना समय नहीं मिलता। 

   ऐसी अवस्था में लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। जब तक एक बार का खाया हुआ भोजन भली-भाँति पच न जांए, तब तक दूसरी बार कदापि न खाना चाहिए। किन्तु हम लोग भूख लिए भोजन नहीं करते, भोजन करने की आवश्यकता और व्यवस्था ही कुछ और है। दोपहर को जो हमने भोजन किया है, वह पूर्णरूप से पचा है या नही। यह जानने की कोशिश नहीं होती। किन्तु होता यह है, कि सायंकाल भोजन का समय होने पर भोजन करना पड़ता है। यदि दोपहर को इस प्रकार के भोजन किए गए हैं, जो सायंकाल तक पूर्णरूप से नही पचे, तो उसको बिना पचाए, भोजन करना शरीर के लिए रोग का निमंत्रण देना है।

   शरीर का कोई भी रोग अकारण नहीं हुआ करता और ना उसके पैदा होने का कोई ईश्वरीय कारण होता है। उसके पैदा होने का एकमात्र कारण हमारे जीवन की अव्यवस्था है। हमें थोड़ी-सी बुद्धि से काम लेना चाहिए और समझना चाहिए, कि हम जो खाना खाते हैं, वह भूख के लिए, न कि भोजन का समय हो जाने के लिए।

   जो पदार्थ बहुत भारी होते हैं, वे अत्यन्त अपाचक भी होते हैं। उन अपाचक और भारी वस्तुओं की अपेक्षा हल्के भोजन कई बार खाये जा सकते हैं और फिर भी वे पच सकते हैं। ऐसी अवस्था में यदि वे भारी पदार्थ ठीक तौर पर पचाऔए भी जा सकें, तो दोनों प्रकार के आहारों में कोई वैषम्य उपस्थित नहीं होता। परन्तु ये सब बातें सभी के लिए एक-सी नहीं हैं। सभी की प्रकृति और खाने-पीने की शक्तियों में अन्तर होता है। इस प्रकृति और शक्ति के अनुकूल ही भोजन सुखकर, लाभकर और उपयोगी होता है।

   प्रत्येक प्राणी का वही भोजन है, जिसका अपना रूप, आकार और स्वाद खाने वाले के लिए रुचिकर प्रतीत होता है। वही उसके लिए पाचक होता है और उसके जीवन को शक्ति देने वाला होता है। जो पदार्थ भाग में पकाकर, भिन्न-भिन्न प्रकार के मसाले लगाकर और घृत में भूनकर बनाए जाते हैं। वे भोजन खाने वालों के लिए किसी प्रकार उतने लाभदायक नहीं होते, जितने कि असली रूप में खाये जाने वाले पदार्थ हो सकते है। कोई भी पदार्थ या उससे बना हुआ भोजन जब आग में पकाया जाता है अथवा भूना जाता है, तो उसमें जीवन-शक्ति पैदा करने वाला जो अंश होता है, वह जलकर नष्ट हो जाता है और इसके बाद भी जब अनेक प्रकार के मसालों का सम्मिश्रण किया जाता है, तो वे भोजन पाचन क्रिया के लिए बहुत कठोर हो जाते हैं। उनका यह अपाचन-गुण खाने वाले के लिए हानिकारक हो जाता है। जो भोजन रसेदार बनाए जाते हैं, वे कठिनाई के साथ पचने वाले होते हैं। उनके ठीक-ठीक न पचने पर पेट के विभिन्न रोग उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार पेट की ही ख़राबी समस्त शरीर के स्वास्थ्य बिगड़ने और उसको रोगी बनाने की कारण होती है।

   जो भोजन अथवा पदार्थ अपने असली रूप में होते हैं, वे हमारे लिए कभी भी लाभदायक नहीं होते और इस प्रकार के पदार्थो और भोजनों में सबसे अधिक हानिकारक माँस होता है। प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी को उसके भोजन अथवा भोज्य पदार्थों के प्रति सहज ही रुचिकारक प्रवृत्ति उत्पन्न की है। जिसका जो भोजन नहीं होता। उसके प्रति सहज ही उसमें अरुचि का भाव उत्पन्न होता है। संसार का कोई भी जीव अपनी भोज्य वस्तुओं के अतिरिक किसी वस्तु को ग्रहण नही कर सकता।

   मनुष्य की स्वाभाविक बुद्धि और रुचि कभी भी माँस को स्वीकार नहीं कर सकती। सर्वसाधारण को उस पर समान रूप से अरुचि और घृणा होती है। समय और संयोग पाकर जो लोग माँस खाने लगते हैं, उनको भी मांस के घृणा-जनक असली रूप पर कितनी घृणा और अरुचि होती है, यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं।

   प्रत्येक पदार्थ पक जाने की अपेक्षा, कच्चा अधिक पाचक और जीवन-शक्ति देने वाला होता है। परन्तु यह खेद की बात है, कि सर्वसाधारण में कच्चे पदार्थों के खाने का अभ्यास कम पाया जाता है। बहुत लोगों में तो इस बात का मिथ्या ज्ञान पाया जाता है, कि कच्चे पदार्थ हानिकारक होते हैं। किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। अनाज, जो साधारणतया हमारे खाने के काम में आता है। अपने स्वाभाविक रूप में अधिक पाचक होता है। प्रत्येक अनाज कच्चा समूचा चबा-चबाकर खाने से जो जीवन-शक्ति प्राप्त हो सकती है, वह शक्ति उस अनाज के पीस डालने और आग पर पकाने या भूनने से कदापि नहीं प्राप्त हो सकती। उनके समूचे दाने को चबा-चबाकर खाने से उनमें पाचन-क्रिया उत्पन्न हो जाती है। 

   इस पाचन-क्रिया के उत्पन्न हो जाने का कारण उनको मुख में अधिक देर तक चबाना है। कोई भी भोजन मुंह में जितनी ही देर तक चबाकर निगला जाता है, उतना ही वह शीघ्र पाचक हो जाता है। आटे की भूसी छानकर, रोटी बनाने के पूर्व ही अलग कर दी जाती है। वह उस रोटी का एक बहुत आवश्यक अंग होता है, परन्तु यह भूल समाज में बहुत पाई जाती है। यह छनी हुई भूसी जो उस अनाज की छिलका होती है। उसके साथ बने हुए भोजन के पचाने में बहुत बड़ी सहायता करती है। लोग इस छिलके को निकाल कर अलग कर देते हैं, इसलिए कि वे उसको बेकार समझते हैं। किन्तु उनको समझना चाहिए, कि उस छिलके के निकल जाने से अनाज का गूदा भाग, जो महीन आटे के रूप में मिल जाता है, उस अनाज के गुणों को अनेक अंशों में खो देता है।

   इस प्रकार खाने के सम्बन्ध में दो प्रधान अव्यवस्थाएँ हमारे सामने हैं। पहली अव्यवस्था यह है, कि जो पदार्थ हमारे खाने के नहीं हैं, उनके खाने की व्यवस्था अथवा प्रथा का होना। मांस, मदिरा और मादक पदार्थ, मनुष्य का भोजन नहीं है और इस बात का इससे अधिक उत्तम और क्या प्रमाण हो सकता है, कि मनुष्य स्वभावतः उससे अरुचि और घृणा करता है। छोटे-छोटे बालक और बालिकाएँ, जिनका स्वाभाविक ज्ञान नष्ट नहीं हुआ। माँस और मदिरा जैसे पदार्थों का नाम सुनते ही अत्यन्त घृणा के साथ मुँह बनाती हैं। उनके उस समय के भाव यह प्रकट करते हैं, कि वे इन वस्तुओं को ग्रहण करने योग्य नहीं समझतीं। किन्तु उन्हीं के सामने यदि दूध, मक्खन अथवा किसी फल का नाम ले दिया जांए, तो वे चालक और बालिकाएँ उसके लिए कातर और उत्सुक हो उठेगी। इसका तो यही अर्थ होता है, कि उनकी स्वाभाविक बुद्धि यह बताती है, कि अमुक वस्तुएँ उनके खाने के योग्य हैं और अमुक नहीं।

   दूसरी अव्यवस्था यह है, कि जो पदार्थ हम खा भी सकते हैं। उनको खाने के पूर्व  उनके असली रूप और गुण को नष्ट कर डालते हैं। इसका यह फल होता है, कि उनसे जो लाभ होना चाहिए, वह नहीं होता और बहुत अंशों में उनसे हानि ही होती है। इन दोनों अव्यवस्थाओं से बचने के लिए जो वास्तविक हमारे जीवन का भोजन है, उसके प्रति हमारा ध्यान नहीं है। प्रकृति ने भिन्न-भिन्न प्राणियों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थों की व्यवस्था की है। इस प्रकार जो पदार्थ, जिसके लिए निर्माण किया है, उसी के योग्य उसके शरीर का आकार-प्रकार और यंत्र निर्माण किया है। अस्तु, हमारे शरीर की अवस्था क्या है और हमारे जीवन का प्राकृतिक भोजन क्या है। इस बात का सूक्ष्म-रूप से विवेचन करना है।

   प्रकृति के नियम अत्यन्त सरल, सुबोध और अपने आप प्रतिपादित होने वाले हैं। किन्तु उनकी स्वाभाविकता जहाँ तोड़ी-मरोड़ी जाती है, वहाँ कुछ का कुछ होना अवश्यम्भावी है। जो वृक्ष और पौधे, जहाँ जिस जमीन या मिट्टी से अपने लिए खाना प्राप्त कर सकते हैं, उसी प्रकार की मिट्टी वाली भूमि में उनका जन्म होता है। उनके भोजन का प्रबन्ध किसी को करना नहीं पड़ता। वे स्वंय अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं। किन्तु जब कोई वृक्ष दूसरी प्रकार की मिट्टी वाली भूमि में ले जाकर लगाया जाता है, तो वह सूखकर मुरझा जाता है। इसलिए कि उस मिट्टी से उसको अपने योग्य खुराक नहीं मिलती। उसका यह अर्थ नहीं है, कि पौधों को खुराक पहुंचाने वाले उस मिट्टी में गुण नही थे। गुण थे, उसमें वृक्षो के लायक। भोजन के अंश भी थे, परन्तु वृक्षों में अन्तर है। 

   सभी वृक्षों के लिए एक ही प्रकार की खुराक आवश्यक नहीं होती। समुद्र के किनारे जो वृक्ष वहाँ की नमकीन मिट्टी में खूब हरे-भरे रहते हैं और फलते-फूलते हैं, वे अन्यत्र कही, किसी दूसरे प्रकार की मिट्टी में हरे-भरे नही रह सकते। कारण स्पष्ट है, कि उनके लिए जो भोजन और खुराक के पदार्थ उस मिट्टी से प्राप्त होते हैं, वे दूसरी मिट्टी से नहीं प्राप्त हो सकते। इससे भी अधिक सुन्दर और आश्चर्य की बात यह है, कि वे वृक्ष उसी भूमि में पैदा होते हैं, जो उनके लिए अनुकूल होती है। प्रकृति का यह नियम कितना मनोहर और सुबोध है। अब देखना यह है, कि वृक्षों के भीतर अर्थात् एक ही जांति में इतना अन्तर पाया जाता है, तब दूसरी की लिए क्या कहना है।

   समस्त जीवों के सम्बन्ध में ये बातें विभिन्नता रखती हैं। सृष्टि के समस्त जीवों को उनकी भोजन सम्बन्धी प्रकृति में दो भागों में बाँटा जा सकता है। कुछ तो 'मांस-भोजी' होते हैं और कुछ 'शाक-भोजी'। तीसरी एक और श्रेणी उन लोगों की हो सकती है, जो मांस और शाक दोनों के अभ्यासी होते हैं। परन्तु थोड़ी-सी गम्भीर आलोचना करने से मालूम होगा, कि उनके खाने के पदार्थ कोई तीसरी श्रेणी की नहीं है। 

   इस प्रकार माँस-भोजी और शाक-भोजी, दो प्रकार के जीव संसार में पाये जाते हैं। अब इन दोनों प्रकार के भोजन उनके खाने वालों की प्रकृति और उनके शारीरिक यंत्रों की ओर सबसे पहले ध्यान देने की आवश्यकता है। प्रत्येक जीव के शरीर में तीन प्रकार के अवयव इस बात का निर्णय करते हैं, कि उसका भोजन क्या है। यह मांस-भोजी है अथवा शाक-भोजी। वे तीन अवयव हैं-  दांत, आमाशय और मुख से लेकर पेट तक। वे अवयव जो भोजन में हर प्रकार से सहायक होते हैं। ये तीन अंग प्रत्येक जीव के भोजन की व्यवस्था का निर्णय करते हैं।

   दांत तीन प्रकार के होते हैं--
(१) काटने वाले दांत (In cisors)
(२) कीले अर्थात् कुत्ते के-से दांत (Canine)
(३) पीसने या चबाने वाले दांत (Molars)।

   जो जीव मांस-भोजी होते हैं, उनके काटने और कुतरने वाले दांत बहुत छोटे होते हैं। उन दांतों का उनको बहुत कम प्रयोग करना पड़ता है। उनके कीले दांत बहुत लम्बे होते हैं। ये लम्बे दांत उनके मुख में आगे तक होते हैं, जो बनावट में नोकदार, चिकने और कुछ टेढ़े होते हैं। ये लम्बें दांत चबाने या पीसने के काम में नहीं आते। ये दांत केवल शिकार को पकड़ने के लिए होते हैं। जंगल के भयानक जानवरों के दांत और भी बहुत बड़े ऐसे
ढंग के बने होते हैं, जिनको देखते ही उनका काम और अर्थ सहज ही समझ में आ जाता है। 

   इन बड़े दांतों के पीछे काँटेदार नोकीले दांत होते हैं, जो मांस के छोटे-छोटे टुकड़े करने में काम आते हैं। ये कांटेदार दांत मुँह चलाते समय कभी एक-दूसरे से टकराते नहीं। बल्कि कैंची के दोनों परतों की भाँति एक-दूसरे से मिल जाते हैं। इसके द्वारा मांस का एक-एक टुकड़ा अलग-अलग हो जाता है। इन मांसाहारी जीवों के दांत और जबड़े इस योग्य नहीं होते, कि वे मांस को पीस या चबा सकें। सभी लोग कुत्तों को देखते हैं, कि जब उनको रोटी दी जाती है, तो वे उसके बहुत बड़े-बड़े टुकड़े मुँह में लेते ही निगल जाते हैं। कारण यह है, कि उनके दांत और जबड़े भोजन को आदमी की भाँति चबाने और पीसने का काम नहीं करते।

   शाक और वनस्पति खाने वाले जीवों के कुतरने अथवा काटने वाले दांत बड़े-बड़े होते हैं। जिनसे वे शाक और घास के छोटे-छोटे टुकड़े करने का काम लेते हैं। पीसने वाले दांत, ऊपर की ओर कुछ चौड़े होते हैं, जो शाक-पात के चबाने और पीसने का काम करते हैं।

   हमें और आगे बढ़कर, बन्दरों के दातों पर विचार करना चाहिए। बन्दर के दांत और मनुष्य के दांत, प्रायः समान होते हैं। मनुष्य के दाँतों की भांति, बन्दरों के दांत भी प्रायः समान लम्बाई के होते हैं। इन दातों से स्पष्ट पता चलता है, कि जो जीव शाकाहारी, फलाहारी और घास-पात का आहार करने वाले हैं। उनके दांत मांसाहारी जानवरों के दाँतों की भाँति नहीं होते। इससे प्रकट होता है, कि प्रकृति ने उनके दांतों को केवल वनस्पति खाने के योग्य बनाया है और इसीलिए वे मांस खाने वाले नहीं हैं। 

   अब यदि प्रश्न किया जांए, कि मनुष्य के दांत किस जीव के साथ मिलते हैं, तो सहज ही समझ में आता है कि मनुष्य के दांत बन्दरों के दांतों से मिलते हैं। दाँतों के अतिरिक्त शरीर की बनावट आदि, मनुष्य-जीवन की अन्यान्य बातें, बन्दरों के साथ समानता रखती हैं। मनुष्य-जाति के आदि-काल का वैज्ञानिक अन्वेष्ण करने वालों ने तो यहाँ तक निश्चय करके बताया है, कि मनुष्य बन्दर की संतान है। 

   सृष्टि के बहुत पुरातन काल में मनुष्य, बन्दरों के रूप-प्रति रूप में हुआ करते थे। जो हो, यहाँ पर इस बात के समर्थन और अन्वेषण से कोई सम्पर्क नहीं है। परन्तु, इसमें कोई सन्देह नही कि मनुष्य दाँतों की बनावट में बिल्कुल बन्दरों के समान है। इसलिए कि न तो मनुष्य के दाँत मांसहारी जीवों से मिलते हैं, इसलिये वह मांसाहारी नही हैं। मनुष्य के दाँत, उन पशुओं से नहीं मिलते जो वनस्पति, शाक-पात खाते हैं। इसलिये मनुष्य  वनस्पति या शाक-पात खाने वाला नहीं है। मनुष्य के दाँत उन जीवों से भी नहीं मिलते जो मांस, मेवा, अनाज आदि सभी कुछ खा सकते। इसलिए मनुष्य मांस, मेवा और अनाज आदि सभी कुछ खाने के योग्य नही बनाया गया। किन्तु मनुष्य के दाँत, बन्दरों के समान होते हैं, जो फलाहारी होते हैं। इस प्रकार यह प्रमाणित होता है, कि मनुष्य का प्राकृतिक भोजन फलाहार है।

   जो लोग मांसाहार के पक्ष में होते हैं, वे इस बात को पुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं, कि मनुष्य न तो मांसाहारी है और न शाकाहारी। वरन् वह दोनों प्रकार का जीव है अर्थात वह दोनों प्रकार के भोजन खा सकता है। किन्तु यह बात सर्वथा मिथ्या है। किसी बात को बिना किसी वाद विवाद के मान लेना और बात है। किन्तु किसी विवेचना के साथ किसी बात का समझना और बात है। किसी भी जीव का भोजन, उस पदार्थ का रूप, ज्यों का त्यों होता है। जो जानवर मांस खाते हैं, उनको मांस को आग पर भूनने की आवश्यकता नहीं होती। जो पशु, शाक और वनस्पति खाते हैं, उनको भी अपने भोजन के पदार्थ आग पर तपोकर बनाने की आवश्यकता नहीं होती। 

   पक्षियों से लेकर छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े तक अपने भोज्य पदार्थ, उन पदार्थों की असली दशा में ही खाते हैं। यही अवस्था मनुष्य की भी है। मनुष्य का वही भोज्य पदार्थ है, जिसको वह उस पदार्थ की असली हालत में खा सकता है। इस अवस्था में मनुष्य कच्चा शाक और वनस्पति नही खा सकता, कच्चा मांस भी नहीं खा सकता। किन्तु बडी रुचि और स्वाद के साथ वह फलों को खा सकता है। इसलिए प्रत्येक अवस्था में यह प्रमाणित होता है, कि मनुष्य का भोजन फलों को छोड़कर और कुछ हो ही नहीं सकता।

   यह तो बहुत साधारण बात है और बड़ी सुविधा के साथ समझी जा सकती है, कि यदि मनुष्य मांसाहारी होता तो वह मांस को बिना पकाये और बिना उसमें कुछ मिलाये बड़े स्वाद के साथ खा सकता था। किन्तु ऐसा नहीं है। कोई भी मनुष्य कच्चा मांस नहीं खा सकता और न किसी भी युग में मनुष्य कच्चा मांस खा सका है। इसलिए यह तो निश्चय ही है, कि मांस मनुष्य का भोज्य पदार्थ नहीं हो सकता। यही अवस्था वनस्पति के सम्बन्ध में भी हैं। यदि मनुष्य वनस्पति और घास-पात बिना पकाए कच्चा खा सकता, तो यह मानने में किसी को कुछ भी आपत्ति न होती कि मनुष्य वनस्पति या शाक-पात का भोजी है। किन्तु ऐसा भी नहीं है। उसके खाने के एक मात्र पदार्थ फल हैं, जिनको वह कच्चे-पक्के सभी रूपों और अवस्थाओं में रुचि और स्वाद के साथ खा सकता है। ऐसी अवस्था में मनुष्य को किसी भी तर्कना के साथ मांसाहारी सोचना या प्रमाणित करना न केवल मनुष्य-जीवन के साथ, वरन् प्रकृति के साथ अनर्थ करना है।

   मनुष्य फलाहारी है, फल ही उसके जीवन का उपयोगी और प्राकृतिक भोजन है। इस बात को अनेक रूप से समझा जा सकता है। प्रत्येक जीव अपनी इन्द्रियों के द्वारा अपना भोजन पहचानता है। भोजन की पहचान बताने वाली इन्द्रियों में जिह्वा और नाक है। जंगली जानवर दूर से ही बिना देखे सुने, केवल नाक के द्वारा शिकार की गन्ध पाकर सचेत होता है और गन्ध के सहारे-सहारे वह चलकर अपने शिकार को खोजता है। इस प्रकार जब वह शिकार को आँख से देखता है, तो बड़ी तेजी के साथ, उस पर झपटता है और बात की त में लोहू-लुहान करके तुरन्त उसका मांस और रक्त खा-पीकर प्रसन्न होता है। उन जानवरों की नाक में ऐसी शक्ति होती है, जिससे दूर से ही अपने शिकार की गन्ध उनको मालूम हो जाती है। नाक के द्वारा वे अपने शिकार के पास पहुँचते हैं और जिह्वा के द्वारा वे उसका स्वाद पाते हैं और प्रसन्न तथा संतोष अनुभव करते हैं। 

   यही अवस्था प्रत्येक जीव की है।सभी जीवों को भोजन के सम्बन्ध में नाक, गंध के द्वारा अनेक बातों की जानकारी कराती है। मांसाहारी पक्षी बहुत दूरी से मांस की गन्ध को मालूम करते हैं। अनेक पर्तों के भीतर कोई खाने की वस्तु बँधी हुई रखी होगी, किन्तु चूहे उसकी गन्ध से उसे बड़ी आसानी के साथ हूँढ लेंगे और उसके पास पहुंच जांएगे। चीटियाँ और चीटे, मीलों की दूरी से अपने भोजन की गंध पाते हैं और उसी के आधार पर वे वहाँ तक पहुंचते हैं। मनुष्य को भी प्रकृति ने इस प्रकार की शक्ति प्रदान की है, परन्तु मनुष्य ने अपने इस गुण को नष्ट कर डाला है। फिर भी उसका अस्तित्व बराबर काम करता है। किसी भी भोज्य पदार्थ की पहचान मनुष्य नाक के द्वारा सूंघ कर ही किया करता है। यदि कोई पदार्थ सड़कर या गलकर खराब हो गया है, तो मनुष्य नाक के द्वारा सूंघकर ही जानता है। 

   पशु जो वनस्पति खाते हैं, सूंघने के बाद ही खाना प्रारम्भ करते हैं। यदि उनके भोज्य पदार्थों में कोई रक्त इधर-उधर छिड़का दे या मांस के टुकड़े डाल दे, तो वे अपने खाने के सामान को छोड़ देंगे। इस प्रकार नाक और जिह्वा दो इन्द्रियों के द्वारा प्रत्येक जीव को अपना भोजन मालूम होता है। यदि इन दोनों इन्द्रियों के द्वारा विचार किया जांए,  तो मालूम होगा कि किसी भी मनुष्य की नाक और जिह्वा को कच्चे मांस की गन्ध और उसका स्वाद रुचिपूर्ण न मालूम होगा। जो लोग बकरे का मांस खाते हैं, यदि उनसे कहा जांए, कि जिन्दा बकरे के बदन में दाँत मारकर अपने मांसाहारी होने का प्रमाण दें, तो किसी मांसाहारी मनुष्य का इसके लिए प्रस्तुत होना असम्भव है। यदि मनुष्य मांसाहारी होता तो

कच्चे मांस के प्रति उसकी अरुचि और घृणा कभी भी न होती।

   सर्वसाधारण में मांस के प्रति घृणा होती है, जो मांस खाते हैं। उनको भी उस समय जब वे मांसाहारी न थे, घृणा थी। इस का कारण क्या है ? किसी जीव को मारकर या वधकर और उसका मांस काटकर खाने के लिए मांस तैयार किया जाता है। मारना और वध करना ही मानव प्रकृति का विरोधी है। प्रत्येक मनुष्य को स्वभावतः किसी का वध अच्छा नहीं लग सकता। जहाँ पर पशुओं का वध किया जाता है, वे स्थान सार्वजनिक रास्तों से हटकर यथासम्भव एकान्त में बनाये जाते हैं। मांस बेचने की दुकानों पर नियमपूर्वक पर्दा पड़ा रहता है। इन सब बातों का कारण क्या है ? वास्तव में यह बताना अनावश्यक है, कि न तो वध-क्रिया हमारी आँखों और नासिका को रुचिकर प्रतीत हो सकती है और न मांस ही। 

   इसी आधार पर जब कोई मार्ग में मांस लेकर निकलता है, तो कदाचित् उसे म्युनिसिपल बोर्डो के नियमानुसार उस मांस को बन्द करके या ढककर के ले चलना पड़ता है। क्या यही सब बाते साबित करती हैं, कि मांस, मनुष्य के भोज्य पदार्थों में से है? जिसको देखकर हमारी आँख और नाक को इतनी घृणा होती है। वह पदार्थ हमारे खाने के योग्य हो सकता है? किसी भी फल की सुगंध क्यों हमारे मन और मस्तिष्क को प्रसन्न कर देती है ? फलों को देखकर ही उनके खाने के लिए क्यों हमारे मुंह में पानी आ जाता है और हमारी मानसिक प्रवृतियाँ क्यों ललचा उठती हैं ? इसलिए न कि फल हमारे भोज्य पदार्थ है ? प्रकृति ने फल खाने के योग्य मनुष्य को निर्माण किया है। इसलिए स्वभावतः उनको फलों से प्रेम होता है।

   मनुष्य को प्राकृतिक मांस से घृणा होती है। इसलिए वह मांस नहीं खाता। किन्तु दूसरे से वह मांस खाना सीखता है। मांसाहारी लोगों से बातें करने पर बहुत से ऐसे लोग मिलते हैं, जो कहते हैं कि पहले हम मांस न खाते थे और हमको बड़ी उनसे घृणा थी। किन्तु अमुक प्रकार की घटनाओं में पड़कर अथवा अमुक-अमुक व्यक्ति की संगति में पड़कर हम भी खाने लगे। इसी से कहा जाता है, कि मनुष्य मांसाहारी नहीं है। वह मांसाहारी बनाया जाता है। दी न्यू साइन्स आफ़ हीलिंग (The new Science of healing) के लेखक ने अपनी पुस्तक में आँखों देखी एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है, कि एक कुटुम्ब में एक हिरन पाला गया था। हिरन का भोजन वनस्पति है। 

   यह बात सभी लोग जानते हैं। उस कुटुम्ब में एक कुत्ता भी पला था। कुत्ते को बने हुए मांस का रसा और कभी-कभी मांस भी मिला करता था। कुत्ते का यह भोजन जब कभी उस हिरन के आगे रख दिया जाता, तो उसको सूंघकर वह छोड़ देता। हिरन का खाना अलग वहीं पर दिया जाता। कुत्ता अपने आगे का भोजन समाप्त करके बचा हुआ भोजन का रस अन्त जिह्वा से चाट-चाटकर खाया करता था। हिरन भी कभी-कभी कुत्ते के बर्तन में मुँह डाल देता और नाक सिकोड़कर अपना मुँह खींच लेता। कुछ दिनों के बाद देखा गया, कि वह हिरन गोश्त के रसे को चाटने लगा। इस प्रकार धीरे-धीरे वह मांसक्षके टुकड़े भी खाने लगा। यह अत्यन्त रहस्य पूर्ण बात थी। कुछ दिनों के बाद वह हिरन बीमार पड़ा और अक्सर बीमार रहने लगी। बहुत दिनों तक उसका जीवन रोगीला बीता और अंत में वह मर गया।

   ऊपर की इस घटना से प्रकट होता है, कि किसी भी जीव को उसके प्रकृति भोजन के विपरीत भोजन करना सिखाया जा सकता है। किन्तु इसका फल  उसके लिए कभी हितकर नहीं हो सकता। उसको भिन्न-भिन्न प्रकार के रोग घेरे रहेंगे और वह रोगी होकर निर्भल हो जाएगा। स्वभाव के विरुद्ध भोजन किसी को भी लाभ नहीं पहुंचा सकता। मानव जाति अपने स्वाभाविक भोजन को छोड़कर दूसरे अप्रिय अरुचिकर और प्रतिकूल भोजन करने के कारण उत्तरोत्तर रोग-ग्रसित होती जाती है। उसकी स्वाभाविक शक्ति नष्ट हो गई है और वह बराबर निर्बल होती जाती है। मनुष्य अपने स्वाभाविक भोजन के द्वारा जितना शक्तिशाली और नीरोग रह सकता था। वह आज मनुष्य-जाति के लिए सपना है। अस्वस्थ और रोगी मनुष्य कभी भी पूर्ण आयु नही प्राप्त कर सकता। सर्वसाधारण का यह विश्वास अत्यन्त भ्रमात्मक है, कि हमारी आयु निश्चित होती है। अवस्था का कोई परिमाण नही होता। हम स्वस्थ और आरोग्य रहकर बहुत बड़ी अवस्था तक जीवित रह सकते हैं। 

   स्वस्थ और आरोग्य बनाने वाला एक मात्र हमारा स्वाभाविक भोजन है, उसके प्रतिकूल भोजन हमें सदा अस्वस्थ और रोगी बनायेगा। जिससे हमारे शरीर की जीवन शक्ति निर्बल होकर समय से पूर्व ही हमारे जीवन को समाप्त कर देगी। इसी बात की पुष्टि के लिए एक बात और हम प्रमाण में देना चाहते हैं। जब डॉक्टर या वैद्य किसी रोगी को अच्छा करने में असमर्थ हो जाते हैं और कोई उपाय उनके सामने शेष नही रह जाता, तो वे अधिक समय तक के लिए उस रोगी को फलाहार कराते हैं और उसके दूसरे भोजन बन्द करा देते हैं। इस प्रकार का संयोग प्राप्त होने पर क्या कभी यह कोई सोचता है, कि डॉक्टर साहब ने अथवा वैद्य साहब ने ऐसा क्यों किया। क्या यह भी कोई चिकित्सा है? बात यह है, कि स्वभाव के विरुद्ध भोजन प्राण-संहारक होता है। फिर भी मनुष्य के जिन्दा रहने का कारण औषधि की व्यवस्था है। 

   ये औषधियाँ हमको उस विषाक्त भोजन में भी जीवित रखने की चेष्टा करती है। किन्तु जब किसी रोगी को अच्छा करने में वे औषधियाँ समर्थ नहीं होती, तो उस रोग के पैदा करने की जड़ कुछ समय तक के लिए काट दी जाती है और ऐसा करने पर वह रोगी अच्छा हो जाता है। कारण क्या है? वे विषाक्त पदार्थ जो रोग को बढ़ा रहे थे, वे बन्द कर दिए गए और नई जीवन-शक्ति पैदा करने वाले उसके स्वाभाविक पदार्थ फल खिलाने प्रारम्भ कर दिये गए। ऐसी अवस्था में रोगी को अच्छा हो ही जाना चाहिए।

   हमारा वास्तविक भोजन क्या है। इस पर अब अधिक समझाने की आवश्यकता नहीं है। यदि हम प्रकृति के भिन्न-भिन्न अंगों पर ध्यान पूर्वक विचार करें, तो हम सहज ही समझ सकते हैं कि प्रकृति ने हमारे भोजनों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के फलों की व्यवस्था की है और हमारे इस स्वाभाविक भोजन के अनुकूल ही हमारे शरीर की रचना की है। हमारे पेट का आमाशय और पाचन-शक्ति इन फलों को ठीक-ठीक रूप में पचा सकती है। फलों को खा सकने और उनके पचा सकने के योग्य हमारे शरीर-यंत्र का निर्माण करके प्रकृति ने मानों हमारे लिए फलों के खाने का उपदेश दिया है। यह तो सोचने की बात है, कि प्रकृति के इस आदेश को उल्लंघन कर के भला हम किस प्रकार सुखी और स्वस्थ रह सकते हैं। हमारे जीवन का यही प्रायश्चित है, कि हम जीवनभर चिकित्सा करते रहें और एक दिन के लिए भी स्वास्थ्य के सच्चे सुख का अनुभव न कर सकें।

   कुछ लोगों का यह भ्रम हो सकता है, कि केवल फल खाकर हम कैसे जीवित रह सकते हैं। वास्तव में जो इस प्रकार का भ्रम करते हैं, उनको इन बातों के तथ्य का कुछ भी ज्ञान नहीं होता। हमारे भोजन की जो वर्तमान प्रणाली है। उसको हटाकर, यदि हम अपने आप को फलों के खाने का अभ्यासी बनावें, तो हमारा अनुभव हमको बतायेगा कि फलों के आहार से जो शक्ति और पुरुषार्थ हमको प्राप्त होता है। वह अस्वाभाविक किसी प्रकार के भोजन से सम्भव नहीं है। भिन्न-भिन्न प्रकार के फल, मेवे, अन्न और कन्दमूल जो हमारी आँखों और नासिका को रोचक मालूम हों और खाने में स्वादिष्ट जान पड़ें। वे सब हमारे भोजन के सर्वोत्तम पदार्थ हैं। 

   ये फल, संसार के सभी देशों मे यथेष्ट रूप से पाए जाते हैं और यदि कहीं पर इनकी पैदावार कम हो, तो उनकी पैदावार बढ़ाई जा सकती है। जिससे कि हमारे जीवन के साधन सहज और अधिक परिमाण में प्राप्त हो सकें और यदि किसी देश विशेष में ये फल नहीं हो सकते, तो समझ लेना चाहिए कि वह देश मानव प्रकृति के अनुकूल नहीं है। अतएव वह मनुष्यों के निवास करने के सर्वथा अयोग्य है। वास्तव में हमारा भोजन वही है, जिसको खाने के लिए आग पर पकाने, नमक, मिर्च, मसालों के लगाने और तेल या घी में भूनने की आवश्यकता न पड़े। इस नियम के अनुसार विभिन्न फलों को छोड़कर और कोई चीज़ हमारे खाने के योग्य हो ही नहीं सकती।


   भोजन के सम्बन्ध में सबसे पूर्व यह जानने की आवश्यकता है, कि जो भोजन जितना शीघ्र पच सकता है, वही उतना लाभदायक होता है। किन्तु इस बात का भ्रम न केवल सर्वसाधारण में वरन् समाज के समझदार, विचारशील व्यक्तियों में भी अधिक से अधिक परिमाण में पाया जाता है, कि अमुक पदार्थ अधिक बल और रक्त पैदा करने वाले हैं। इस भ्रम के कारण समस्त व्यक्ति उसी प्रकार के भोजन खाने और खिलाने के अभ्यासी होते हैं। इस छोटे से भ्रम के कारण, मनुष्य के स्वास्थ्य को बड़ी हानि पहुंचती है। जिन वस्तुओं में इस प्रकार के गुण पाये जाते हैं, वे कितने भारी और अपाचक होते हैं। सामान्यतः इस बात का कभी विचार भी नहीं किया जाता। होता यह है, कि उन पदार्थों से बने हुए भोजन को पचने के लिए जितना समय चाहिए, उतना समय नहीं मिलता। 

   ऐसी अवस्था में लाभ के स्थान पर हानि ही होती है। जब तक एक बार का खाया हुआ भोजन भली-भाँति पच न जांए, तब तक दूसरी बार कदापि न खाना चाहिए। किन्तु हम लोग भूख लिए भोजन नहीं करते, भोजन करने की आवश्यकता और व्यवस्था ही कुछ और है। दोपहर को जो हमने भोजन किया है, वह पूर्णरूप से पचा है या नही। यह जानने की कोशिश नहीं होती। किन्तु होता यह है, कि सायंकाल भोजन का समय होने पर भोजन करना पड़ता है। यदि दोपहर को इस प्रकार के भोजन किए गए हैं, जो सायंकाल तक पूर्णरूप से नही पचे, तो उसको बिना पचाए, भोजन करना शरीर के लिए रोग का निमंत्रण देना है।

   शरीर का कोई भी रोग अकारण नहीं हुआ करता और ना उसके पैदा होने का कोई ईश्वरीय कारण होता है। उसके पैदा होने का एकमात्र कारण हमारे जीवन की अव्यवस्था है। हमें थोड़ी-सी बुद्धि से काम लेना चाहिए और समझना चाहिए, कि हम जो खाना खाते हैं, वह भूख के लिए, न कि भोजन का समय हो जाने के लिए।

   जो पदार्थ बहुत भारी होते हैं, वे अत्यन्त अपाचक भी होते हैं। उन अपाचक और भारी वस्तुओं की अपेक्षा हल्के भोजन कई बार खाये जा सकते हैं और फिर भी वे पच सकते हैं। ऐसी अवस्था में यदि वे भारी पदार्थ ठीक तौर पर पचाऔए भी जा सकें, तो दोनों प्रकार के आहारों में कोई वैषम्य उपस्थित नहीं होता। परन्तु ये सब बातें सभी के लिए एक-सी नहीं हैं। सभी की प्रकृति और खाने-पीने की शक्तियों में अन्तर होता है। इस प्रकृति और शक्ति के अनुकूल ही भोजन सुखकर, लाभकर और उपयोगी होता है।

   प्रत्येक प्राणी का वही भोजन है, जिसका अपना रूप, आकार और स्वाद खाने वाले के लिए रुचिकर प्रतीत होता है। वही उसके लिए पाचक होता है और उसके जीवन को शक्ति देने वाला होता है। जो पदार्थ भाग में पकाकर, भिन्न-भिन्न प्रकार के मसाले लगाकर और घृत में भूनकर बनाए जाते हैं। वे भोजन खाने वालों के लिए किसी प्रकार उतने लाभदायक नहीं होते, जितने कि असली रूप में खाये जाने वाले पदार्थ हो सकते है। कोई भी पदार्थ या उससे बना हुआ भोजन जब आग में पकाया जाता है अथवा भूना जाता है, तो उसमें जीवन-शक्ति पैदा करने वाला जो अंश होता है, वह जलकर नष्ट हो जाता है और इसके बाद भी जब अनेक प्रकार के मसालों का सम्मिश्रण किया जाता है, तो वे भोजन पाचन क्रिया के लिए बहुत कठोर हो जाते हैं। उनका यह अपाचन-गुण खाने वाले के लिए हानिकारक हो जाता है। जो भोजन रसेदार बनाए जाते हैं, वे कठिनाई के साथ पचने वाले होते हैं। उनके ठीक-ठीक न पचने पर पेट के विभिन्न रोग उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार पेट की ही ख़राबी समस्त शरीर के स्वास्थ्य बिगड़ने और उसको रोगी बनाने की कारण होती है।

   जो भोजन अथवा पदार्थ अपने असली रूप में होते हैं, वे हमारे लिए कभी भी लाभदायक नहीं होते और इस प्रकार के पदार्थो और भोजनों में सबसे अधिक हानिकारक माँस होता है। प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी को उसके भोजन अथवा भोज्य पदार्थों के प्रति सहज ही रुचिकारक प्रवृत्ति उत्पन्न की है। जिसका जो भोजन नहीं होता। उसके प्रति सहज ही उसमें अरुचि का भाव उत्पन्न होता है। संसार का कोई भी जीव अपनी भोज्य वस्तुओं के अतिरिक किसी वस्तु को ग्रहण नही कर सकता।

   मनुष्य की स्वाभाविक बुद्धि और रुचि कभी भी माँस को स्वीकार नहीं कर सकती। सर्वसाधारण को उस पर समान रूप से अरुचि और घृणा होती है। समय और संयोग पाकर जो लोग माँस खाने लगते हैं, उनको भी मांस के घृणा-जनक असली रूप पर कितनी घृणा और अरुचि होती है, यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं।

   प्रत्येक पदार्थ पक जाने की अपेक्षा, कच्चा अधिक पाचक और जीवन-शक्ति देने वाला होता है। परन्तु यह खेद की बात है, कि सर्वसाधारण में कच्चे पदार्थों के खाने का अभ्यास कम पाया जाता है। बहुत लोगों में तो इस बात का मिथ्या ज्ञान पाया जाता है, कि कच्चे पदार्थ हानिकारक होते हैं। किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। अनाज, जो साधारणतया हमारे खाने के काम में आता है। अपने स्वाभाविक रूप में अधिक पाचक होता है। प्रत्येक अनाज कच्चा समूचा चबा-चबाकर खाने से जो जीवन-शक्ति प्राप्त हो सकती है, वह शक्ति उस अनाज के पीस डालने और आग पर पकाने या भूनने से कदापि नहीं प्राप्त हो सकती। उनके समूचे दाने को चबा-चबाकर खाने से उनमें पाचन-क्रिया उत्पन्न हो जाती है। 

   इस पाचन-क्रिया के उत्पन्न हो जाने का कारण उनको मुख में अधिक देर तक चबाना है। कोई भी भोजन मुंह में जितनी ही देर तक चबाकर निगला जाता है, उतना ही वह शीघ्र पाचक हो जाता है। आटे की भूसी छानकर, रोटी बनाने के पूर्व ही अलग कर दी जाती है। वह उस रोटी का एक बहुत आवश्यक अंग होता है, परन्तु यह भूल समाज में बहुत पाई जाती है। यह छनी हुई भूसी जो उस अनाज की छिलका होती है। उसके साथ बने हुए भोजन के पचाने में बहुत बड़ी सहायता करती है। लोग इस छिलके को निकाल कर अलग कर देते हैं, इसलिए कि वे उसको बेकार समझते हैं। किन्तु उनको समझना चाहिए, कि उस छिलके के निकल जाने से अनाज का गूदा भाग, जो महीन आटे के रूप में मिल जाता है, उस अनाज के गुणों को अनेक अंशों में खो देता है।

   इस प्रकार खाने के सम्बन्ध में दो प्रधान अव्यवस्थाएँ हमारे सामने हैं। पहली अव्यवस्था यह है, कि जो पदार्थ हमारे खाने के नहीं हैं, उनके खाने की व्यवस्था अथवा प्रथा का होना। मांस, मदिरा और मादक पदार्थ, मनुष्य का भोजन नहीं है और इस बात का इससे अधिक उत्तम और क्या प्रमाण हो सकता है, कि मनुष्य स्वभावतः उससे अरुचि और घृणा करता है। छोटे-छोटे बालक और बालिकाएँ, जिनका स्वाभाविक ज्ञान नष्ट नहीं हुआ। माँस और मदिरा जैसे पदार्थों का नाम सुनते ही अत्यन्त घृणा के साथ मुँह बनाती हैं। उनके उस समय के भाव यह प्रकट करते हैं, कि वे इन वस्तुओं को ग्रहण करने योग्य नहीं समझतीं। किन्तु उन्हीं के सामने यदि दूध, मक्खन अथवा किसी फल का नाम ले दिया जांए, तो वे चालक और बालिकाएँ उसके लिए कातर और उत्सुक हो उठेगी। इसका तो यही अर्थ होता है, कि उनकी स्वाभाविक बुद्धि यह बताती है, कि अमुक वस्तुएँ उनके खाने के योग्य हैं और अमुक नहीं।

   दूसरी अव्यवस्था यह है, कि जो पदार्थ हम खा भी सकते हैं। उनको खाने के पूर्व  उनके असली रूप और गुण को नष्ट कर डालते हैं। इसका यह फल होता है, कि उनसे जो लाभ होना चाहिए, वह नहीं होता और बहुत अंशों में उनसे हानि ही होती है। इन दोनों अव्यवस्थाओं से बचने के लिए जो वास्तविक हमारे जीवन का भोजन है, उसके प्रति हमारा ध्यान नहीं है। प्रकृति ने भिन्न-भिन्न प्राणियों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थों की व्यवस्था की है। इस प्रकार जो पदार्थ, जिसके लिए निर्माण किया है, उसी के योग्य उसके शरीर का आकार-प्रकार और यंत्र निर्माण किया है। अस्तु, हमारे शरीर की अवस्था क्या है और हमारे जीवन का प्राकृतिक भोजन क्या है। इस बात का सूक्ष्म-रूप से विवेचन करना है।

   प्रकृति के नियम अत्यन्त सरल, सुबोध और अपने आप प्रतिपादित होने वाले हैं। किन्तु उनकी स्वाभाविकता जहाँ तोड़ी-मरोड़ी जाती है, वहाँ कुछ का कुछ होना अवश्यम्भावी है। जो वृक्ष और पौधे, जहाँ जिस जमीन या मिट्टी से अपने लिए खाना प्राप्त कर सकते हैं, उसी प्रकार की मिट्टी वाली भूमि में उनका जन्म होता है। उनके भोजन का प्रबन्ध किसी को करना नहीं पड़ता। वे स्वंय अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं। किन्तु जब कोई वृक्ष दूसरी प्रकार की मिट्टी वाली भूमि में ले जाकर लगाया जाता है, तो वह सूखकर मुरझा जाता है। इसलिए कि उस मिट्टी से उसको अपने योग्य खुराक नहीं मिलती। उसका यह अर्थ नहीं है, कि पौधों को खुराक पहुंचाने वाले उस मिट्टी में गुण नही थे। गुण थे, उसमें वृक्षो के लायक। भोजन के अंश भी थे, परन्तु वृक्षों में अन्तर है। 

   सभी वृक्षों के लिए एक ही प्रकार की खुराक आवश्यक नहीं होती। समुद्र के किनारे जो वृक्ष वहाँ की नमकीन मिट्टी में खूब हरे-भरे रहते हैं और फलते-फूलते हैं, वे अन्यत्र कही, किसी दूसरे प्रकार की मिट्टी में हरे-भरे नही रह सकते। कारण स्पष्ट है, कि उनके लिए जो भोजन और खुराक के पदार्थ उस मिट्टी से प्राप्त होते हैं, वे दूसरी मिट्टी से नहीं प्राप्त हो सकते। इससे भी अधिक सुन्दर और आश्चर्य की बात यह है, कि वे वृक्ष उसी भूमि में पैदा होते हैं, जो उनके लिए अनुकूल होती है। प्रकृति का यह नियम कितना मनोहर और सुबोध है। अब देखना यह है, कि वृक्षों के भीतर अर्थात् एक ही जांति में इतना अन्तर पाया जाता है, तब दूसरी की लिए क्या कहना है।

   समस्त जीवों के सम्बन्ध में ये बातें विभिन्नता रखती हैं। सृष्टि के समस्त जीवों को उनकी भोजन सम्बन्धी प्रकृति में दो भागों में बाँटा जा सकता है। कुछ तो 'मांस-भोजी' होते हैं और कुछ 'शाक-भोजी'। तीसरी एक और श्रेणी उन लोगों की हो सकती है, जो मांस और शाक दोनों के अभ्यासी होते हैं। परन्तु थोड़ी-सी गम्भीर आलोचना करने से मालूम होगा, कि उनके खाने के पदार्थ कोई तीसरी श्रेणी की नहीं है। 

   इस प्रकार माँस-भोजी और शाक-भोजी, दो प्रकार के जीव संसार में पाये जाते हैं। अब इन दोनों प्रकार के भोजन उनके खाने वालों की प्रकृति और उनके शारीरिक यंत्रों की ओर सबसे पहले ध्यान देने की आवश्यकता है। प्रत्येक जीव के शरीर में तीन प्रकार के अवयव इस बात का निर्णय करते हैं, कि उसका भोजन क्या है। यह मांस-भोजी है अथवा शाक-भोजी। वे तीन अवयव हैं-  दांत, आमाशय और मुख से लेकर पेट तक। वे अवयव जो भोजन में हर प्रकार से सहायक होते हैं। ये तीन अंग प्रत्येक जीव के भोजन की व्यवस्था का निर्णय करते हैं।

   दांत तीन प्रकार के होते हैं--
(१) काटने वाले दांत (In cisors)
(२) कीले अर्थात् कुत्ते के-से दांत (Canine)
(३) पीसने या चबाने वाले दांत (Molars)।

   जो जीव मांस-भोजी होते हैं, उनके काटने और कुतरने वाले दांत बहुत छोटे होते हैं। उन दांतों का उनको बहुत कम प्रयोग करना पड़ता है। उनके कीले दांत बहुत लम्बे होते हैं। ये लम्बे दांत उनके मुख में आगे तक होते हैं, जो बनावट में नोकदार, चिकने और कुछ टेढ़े होते हैं। ये लम्बें दांत चबाने या पीसने के काम में नहीं आते। ये दांत केवल शिकार को पकड़ने के लिए होते हैं। जंगल के भयानक जानवरों के दांत और भी बहुत बड़े ऐसे
ढंग के बने होते हैं, जिनको देखते ही उनका काम और अर्थ सहज ही समझ में आ जाता है। 

   इन बड़े दांतों के पीछे काँटेदार नोकीले दांत होते हैं, जो मांस के छोटे-छोटे टुकड़े करने में काम आते हैं। ये कांटेदार दांत मुँह चलाते समय कभी एक-दूसरे से टकराते नहीं। बल्कि कैंची के दोनों परतों की भाँति एक-दूसरे से मिल जाते हैं। इसके द्वारा मांस का एक-एक टुकड़ा अलग-अलग हो जाता है। इन मांसाहारी जीवों के दांत और जबड़े इस योग्य नहीं होते, कि वे मांस को पीस या चबा सकें। सभी लोग कुत्तों को देखते हैं, कि जब उनको रोटी दी जाती है, तो वे उसके बहुत बड़े-बड़े टुकड़े मुँह में लेते ही निगल जाते हैं। कारण यह है, कि उनके दांत और जबड़े भोजन को आदमी की भाँति चबाने और पीसने का काम नहीं करते।

   शाक और वनस्पति खाने वाले जीवों के कुतरने अथवा काटने वाले दांत बड़े-बड़े होते हैं। जिनसे वे शाक और घास के छोटे-छोटे टुकड़े करने का काम लेते हैं। पीसने वाले दांत, ऊपर की ओर कुछ चौड़े होते हैं, जो शाक-पात के चबाने और पीसने का काम करते हैं।

   हमें और आगे बढ़कर, बन्दरों के दातों पर विचार करना चाहिए। बन्दर के दांत और मनुष्य के दांत, प्रायः समान होते हैं। मनुष्य के दाँतों की भांति, बन्दरों के दांत भी प्रायः समान लम्बाई के होते हैं। इन दातों से स्पष्ट पता चलता है, कि जो जीव शाकाहारी, फलाहारी और घास-पात का आहार करने वाले हैं। उनके दांत मांसाहारी जानवरों के दाँतों की भाँति नहीं होते। इससे प्रकट होता है, कि प्रकृति ने उनके दांतों को केवल वनस्पति खाने के योग्य बनाया है और इसीलिए वे मांस खाने वाले नहीं हैं। 

   अब यदि प्रश्न किया जांए, कि मनुष्य के दांत किस जीव के साथ मिलते हैं, तो सहज ही समझ में आता है कि मनुष्य के दांत बन्दरों के दांतों से मिलते हैं। दाँतों के अतिरिक्त शरीर की बनावट आदि, मनुष्य-जीवन की अन्यान्य बातें, बन्दरों के साथ समानता रखती हैं। मनुष्य-जाति के आदि-काल का वैज्ञानिक अन्वेष्ण करने वालों ने तो यहाँ तक निश्चय करके बताया है, कि मनुष्य बन्दर की संतान है। 

   सृष्टि के बहुत पुरातन काल में मनुष्य, बन्दरों के रूप-प्रति रूप में हुआ करते थे। जो हो, यहाँ पर इस बात के समर्थन और अन्वेषण से कोई सम्पर्क नहीं है। परन्तु, इसमें कोई सन्देह नही कि मनुष्य दाँतों की बनावट में बिल्कुल बन्दरों के समान है। इसलिए कि न तो मनुष्य के दाँत मांसहारी जीवों से मिलते हैं, इसलिये वह मांसाहारी नही हैं। मनुष्य के दाँत, उन पशुओं से नहीं मिलते जो वनस्पति, शाक-पात खाते हैं। इसलिये मनुष्य  वनस्पति या शाक-पात खाने वाला नहीं है। मनुष्य के दाँत उन जीवों से भी नहीं मिलते जो मांस, मेवा, अनाज आदि सभी कुछ खा सकते। इसलिए मनुष्य मांस, मेवा और अनाज आदि सभी कुछ खाने के योग्य नही बनाया गया। किन्तु मनुष्य के दाँत, बन्दरों के समान होते हैं, जो फलाहारी होते हैं। इस प्रकार यह प्रमाणित होता है, कि मनुष्य का प्राकृतिक भोजन फलाहार है।

   जो लोग मांसाहार के पक्ष में होते हैं, वे इस बात को पुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं, कि मनुष्य न तो मांसाहारी है और न शाकाहारी। वरन् वह दोनों प्रकार का जीव है अर्थात वह दोनों प्रकार के भोजन खा सकता है। किन्तु यह बात सर्वथा मिथ्या है। किसी बात को बिना किसी वाद विवाद के मान लेना और बात है। किन्तु किसी विवेचना के साथ किसी बात का समझना और बात है। किसी भी जीव का भोजन, उस पदार्थ का रूप, ज्यों का त्यों होता है। जो जानवर मांस खाते हैं, उनको मांस को आग पर भूनने की आवश्यकता नहीं होती। जो पशु, शाक और वनस्पति खाते हैं, उनको भी अपने भोजन के पदार्थ आग पर तपोकर बनाने की आवश्यकता नहीं होती। 

   पक्षियों से लेकर छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े तक अपने भोज्य पदार्थ, उन पदार्थों की असली दशा में ही खाते हैं। यही अवस्था मनुष्य की भी है। मनुष्य का वही भोज्य पदार्थ है, जिसको वह उस पदार्थ की असली हालत में खा सकता है। इस अवस्था में मनुष्य कच्चा शाक और वनस्पति नही खा सकता, कच्चा मांस भी नहीं खा सकता। किन्तु बडी रुचि और स्वाद के साथ वह फलों को खा सकता है। इसलिए प्रत्येक अवस्था में यह प्रमाणित होता है, कि मनुष्य का भोजन फलों को छोड़कर और कुछ हो ही नहीं सकता।

   यह तो बहुत साधारण बात है और बड़ी सुविधा के साथ समझी जा सकती है, कि यदि मनुष्य मांसाहारी होता तो वह मांस को बिना पकाये और बिना उसमें कुछ मिलाये बड़े स्वाद के साथ खा सकता था। किन्तु ऐसा नहीं है। कोई भी मनुष्य कच्चा मांस नहीं खा सकता और न किसी भी युग में मनुष्य कच्चा मांस खा सका है। इसलिए यह तो निश्चय ही है, कि मांस मनुष्य का भोज्य पदार्थ नहीं हो सकता। यही अवस्था वनस्पति के सम्बन्ध में भी हैं। यदि मनुष्य वनस्पति और घास-पात बिना पकाए कच्चा खा सकता, तो यह मानने में किसी को कुछ भी आपत्ति न होती कि मनुष्य वनस्पति या शाक-पात का भोजी है। किन्तु ऐसा भी नहीं है। उसके खाने के एक मात्र पदार्थ फल हैं, जिनको वह कच्चे-पक्के सभी रूपों और अवस्थाओं में रुचि और स्वाद के साथ खा सकता है। ऐसी अवस्था में मनुष्य को किसी भी तर्कना के साथ मांसाहारी सोचना या प्रमाणित करना न केवल मनुष्य-जीवन के साथ, वरन् प्रकृति के साथ अनर्थ करना है।

   मनुष्य फलाहारी है, फल ही उसके जीवन का उपयोगी और प्राकृतिक भोजन है। इस बात को अनेक रूप से समझा जा सकता है। प्रत्येक जीव अपनी इन्द्रियों के द्वारा अपना भोजन पहचानता है। भोजन की पहचान बताने वाली इन्द्रियों में जिह्वा और नाक है। जंगली जानवर दूर से ही बिना देखे सुने, केवल नाक के द्वारा शिकार की गन्ध पाकर सचेत होता है और गन्ध के सहारे-सहारे वह चलकर अपने शिकार को खोजता है। इस प्रकार जब वह शिकार को आँख से देखता है, तो बड़ी तेजी के साथ, उस पर झपटता है और बात की त में लोहू-लुहान करके तुरन्त उसका मांस और रक्त खा-पीकर प्रसन्न होता है। उन जानवरों की नाक में ऐसी शक्ति होती है, जिससे दूर से ही अपने शिकार की गन्ध उनको मालूम हो जाती है। नाक के द्वारा वे अपने शिकार के पास पहुँचते हैं और जिह्वा के द्वारा वे उसका स्वाद पाते हैं और प्रसन्न तथा संतोष अनुभव करते हैं। 

   यही अवस्था प्रत्येक जीव की है।सभी जीवों को भोजन के सम्बन्ध में नाक, गंध के द्वारा अनेक बातों की जानकारी कराती है। मांसाहारी पक्षी बहुत दूरी से मांस की गन्ध को मालूम करते हैं। अनेक पर्तों के भीतर कोई खाने की वस्तु बँधी हुई रखी होगी, किन्तु चूहे उसकी गन्ध से उसे बड़ी आसानी के साथ हूँढ लेंगे और उसके पास पहुंच जांएगे। चीटियाँ और चीटे, मीलों की दूरी से अपने भोजन की गंध पाते हैं और उसी के आधार पर वे वहाँ तक पहुंचते हैं। मनुष्य को भी प्रकृति ने इस प्रकार की शक्ति प्रदान की है, परन्तु मनुष्य ने अपने इस गुण को नष्ट कर डाला है। फिर भी उसका अस्तित्व बराबर काम करता है। किसी भी भोज्य पदार्थ की पहचान मनुष्य नाक के द्वारा सूंघ कर ही किया करता है। यदि कोई पदार्थ सड़कर या गलकर खराब हो गया है, तो मनुष्य नाक के द्वारा सूंघकर ही जानता है। 

   पशु जो वनस्पति खाते हैं, सूंघने के बाद ही खाना प्रारम्भ करते हैं। यदि उनके भोज्य पदार्थों में कोई रक्त इधर-उधर छिड़का दे या मांस के टुकड़े डाल दे, तो वे अपने खाने के सामान को छोड़ देंगे। इस प्रकार नाक और जिह्वा दो इन्द्रियों के द्वारा प्रत्येक जीव को अपना भोजन मालूम होता है। यदि इन दोनों इन्द्रियों के द्वारा विचार किया जांए,  तो मालूम होगा कि किसी भी मनुष्य की नाक और जिह्वा को कच्चे मांस की गन्ध और उसका स्वाद रुचिपूर्ण न मालूम होगा। जो लोग बकरे का मांस खाते हैं, यदि उनसे कहा जांए, कि जिन्दा बकरे के बदन में दाँत मारकर अपने मांसाहारी होने का प्रमाण दें, तो किसी मांसाहारी मनुष्य का इसके लिए प्रस्तुत होना असम्भव है। यदि मनुष्य मांसाहारी होता तो

कच्चे मांस के प्रति उसकी अरुचि और घृणा कभी भी न होती।

   सर्वसाधारण में मांस के प्रति घृणा होती है, जो मांस खाते हैं। उनको भी उस समय जब वे मांसाहारी न थे, घृणा थी। इस का कारण क्या है ? किसी जीव को मारकर या वधकर और उसका मांस काटकर खाने के लिए मांस तैयार किया जाता है। मारना और वध करना ही मानव प्रकृति का विरोधी है। प्रत्येक मनुष्य को स्वभावतः किसी का वध अच्छा नहीं लग सकता। जहाँ पर पशुओं का वध किया जाता है, वे स्थान सार्वजनिक रास्तों से हटकर यथासम्भव एकान्त में बनाये जाते हैं। मांस बेचने की दुकानों पर नियमपूर्वक पर्दा पड़ा रहता है। इन सब बातों का कारण क्या है ? वास्तव में यह बताना अनावश्यक है, कि न तो वध-क्रिया हमारी आँखों और नासिका को रुचिकर प्रतीत हो सकती है और न मांस ही। 

   इसी आधार पर जब कोई मार्ग में मांस लेकर निकलता है, तो कदाचित् उसे म्युनिसिपल बोर्डो के नियमानुसार उस मांस को बन्द करके या ढककर के ले चलना पड़ता है। क्या यही सब बाते साबित करती हैं, कि मांस, मनुष्य के भोज्य पदार्थों में से है? जिसको देखकर हमारी आँख और नाक को इतनी घृणा होती है। वह पदार्थ हमारे खाने के योग्य हो सकता है? किसी भी फल की सुगंध क्यों हमारे मन और मस्तिष्क को प्रसन्न कर देती है ? फलों को देखकर ही उनके खाने के लिए क्यों हमारे मुंह में पानी आ जाता है और हमारी मानसिक प्रवृतियाँ क्यों ललचा उठती हैं ? इसलिए न कि फल हमारे भोज्य पदार्थ है ? प्रकृति ने फल खाने के योग्य मनुष्य को निर्माण किया है। इसलिए स्वभावतः उनको फलों से प्रेम होता है।

   मनुष्य को प्राकृतिक मांस से घृणा होती है। इसलिए वह मांस नहीं खाता। किन्तु दूसरे से वह मांस खाना सीखता है। मांसाहारी लोगों से बातें करने पर बहुत से ऐसे लोग मिलते हैं, जो कहते हैं कि पहले हम मांस न खाते थे और हमको बड़ी उनसे घृणा थी। किन्तु अमुक प्रकार की घटनाओं में पड़कर अथवा अमुक-अमुक व्यक्ति की संगति में पड़कर हम भी खाने लगे। इसी से कहा जाता है, कि मनुष्य मांसाहारी नहीं है। वह मांसाहारी बनाया जाता है। दी न्यू साइन्स आफ़ हीलिंग (The new Science of healing) के लेखक ने अपनी पुस्तक में आँखों देखी एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है, कि एक कुटुम्ब में एक हिरन पाला गया था। हिरन का भोजन वनस्पति है। 

   यह बात सभी लोग जानते हैं। उस कुटुम्ब में एक कुत्ता भी पला था। कुत्ते को बने हुए मांस का रसा और कभी-कभी मांस भी मिला करता था। कुत्ते का यह भोजन जब कभी उस हिरन के आगे रख दिया जाता, तो उसको सूंघकर वह छोड़ देता। हिरन का खाना अलग वहीं पर दिया जाता। कुत्ता अपने आगे का भोजन समाप्त करके बचा हुआ भोजन का रस अन्त जिह्वा से चाट-चाटकर खाया करता था। हिरन भी कभी-कभी कुत्ते के बर्तन में मुँह डाल देता और नाक सिकोड़कर अपना मुँह खींच लेता। कुछ दिनों के बाद देखा गया, कि वह हिरन गोश्त के रसे को चाटने लगा। इस प्रकार धीरे-धीरे वह मांसक्षके टुकड़े भी खाने लगा। यह अत्यन्त रहस्य पूर्ण बात थी। कुछ दिनों के बाद वह हिरन बीमार पड़ा और अक्सर बीमार रहने लगी। बहुत दिनों तक उसका जीवन रोगीला बीता और अंत में वह मर गया।

   ऊपर की इस घटना से प्रकट होता है, कि किसी भी जीव को उसके प्रकृति भोजन के विपरीत भोजन करना सिखाया जा सकता है। किन्तु इसका फल  उसके लिए कभी हितकर नहीं हो सकता। उसको भिन्न-भिन्न प्रकार के रोग घेरे रहेंगे और वह रोगी होकर निर्भल हो जाएगा। स्वभाव के विरुद्ध भोजन किसी को भी लाभ नहीं पहुंचा सकता। मानव जाति अपने स्वाभाविक भोजन को छोड़कर दूसरे अप्रिय अरुचिकर और प्रतिकूल भोजन करने के कारण उत्तरोत्तर रोग-ग्रसित होती जाती है। उसकी स्वाभाविक शक्ति नष्ट हो गई है और वह बराबर निर्बल होती जाती है। मनुष्य अपने स्वाभाविक भोजन के द्वारा जितना शक्तिशाली और नीरोग रह सकता था। वह आज मनुष्य-जाति के लिए सपना है। अस्वस्थ और रोगी मनुष्य कभी भी पूर्ण आयु नही प्राप्त कर सकता। सर्वसाधारण का यह विश्वास अत्यन्त भ्रमात्मक है, कि हमारी आयु निश्चित होती है। अवस्था का कोई परिमाण नही होता। हम स्वस्थ और आरोग्य रहकर बहुत बड़ी अवस्था तक जीवित रह सकते हैं। 

   स्वस्थ और आरोग्य बनाने वाला एक मात्र हमारा स्वाभाविक भोजन है, उसके प्रतिकूल भोजन हमें सदा अस्वस्थ और रोगी बनायेगा। जिससे हमारे शरीर की जीवन शक्ति निर्बल होकर समय से पूर्व ही हमारे जीवन को समाप्त कर देगी। इसी बात की पुष्टि के लिए एक बात और हम प्रमाण में देना चाहते हैं। जब डॉक्टर या वैद्य किसी रोगी को अच्छा करने में असमर्थ हो जाते हैं और कोई उपाय उनके सामने शेष नही रह जाता, तो वे अधिक समय तक के लिए उस रोगी को फलाहार कराते हैं और उसके दूसरे भोजन बन्द करा देते हैं। इस प्रकार का संयोग प्राप्त होने पर क्या कभी यह कोई सोचता है, कि डॉक्टर साहब ने अथवा वैद्य साहब ने ऐसा क्यों किया। क्या यह भी कोई चिकित्सा है? बात यह है, कि स्वभाव के विरुद्ध भोजन प्राण-संहारक होता है। फिर भी मनुष्य के जिन्दा रहने का कारण औषधि की व्यवस्था है। 

   ये औषधियाँ हमको उस विषाक्त भोजन में भी जीवित रखने की चेष्टा करती है। किन्तु जब किसी रोगी को अच्छा करने में वे औषधियाँ समर्थ नहीं होती, तो उस रोग के पैदा करने की जड़ कुछ समय तक के लिए काट दी जाती है और ऐसा करने पर वह रोगी अच्छा हो जाता है। कारण क्या है? वे विषाक्त पदार्थ जो रोग को बढ़ा रहे थे, वे बन्द कर दिए गए और नई जीवन-शक्ति पैदा करने वाले उसके स्वाभाविक पदार्थ फल खिलाने प्रारम्भ कर दिये गए। ऐसी अवस्था में रोगी को अच्छा हो ही जाना चाहिए।

   हमारा वास्तविक भोजन क्या है। इस पर अब अधिक समझाने की आवश्यकता नहीं है। यदि हम प्रकृति के भिन्न-भिन्न अंगों पर ध्यान पूर्वक विचार करें, तो हम सहज ही समझ सकते हैं कि प्रकृति ने हमारे भोजनों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के फलों की व्यवस्था की है और हमारे इस स्वाभाविक भोजन के अनुकूल ही हमारे शरीर की रचना की है। हमारे पेट का आमाशय और पाचन-शक्ति इन फलों को ठीक-ठीक रूप में पचा सकती है। फलों को खा सकने और उनके पचा सकने के योग्य हमारे शरीर-यंत्र का निर्माण करके प्रकृति ने मानों हमारे लिए फलों के खाने का उपदेश दिया है। यह तो सोचने की बात है, कि प्रकृति के इस आदेश को उल्लंघन कर के भला हम किस प्रकार सुखी और स्वस्थ रह सकते हैं। हमारे जीवन का यही प्रायश्चित है, कि हम जीवनभर चिकित्सा करते रहें और एक दिन के लिए भी स्वास्थ्य के सच्चे सुख का अनुभव न कर सकें।

   कुछ लोगों का यह भ्रम हो सकता है, कि केवल फल खाकर हम कैसे जीवित रह सकते हैं। वास्तव में जो इस प्रकार का भ्रम करते हैं, उनको इन बातों के तथ्य का कुछ भी ज्ञान नहीं होता। हमारे भोजन की जो वर्तमान प्रणाली है। उसको हटाकर, यदि हम अपने आप को फलों के खाने का अभ्यासी बनावें, तो हमारा अनुभव हमको बतायेगा कि फलों के आहार से जो शक्ति और पुरुषार्थ हमको प्राप्त होता है। वह अस्वाभाविक किसी प्रकार के भोजन से सम्भव नहीं है। भिन्न-भिन्न प्रकार के फल, मेवे, अन्न और कन्दमूल जो हमारी आँखों और नासिका को रोचक मालूम हों और खाने में स्वादिष्ट जान पड़ें। वे सब हमारे भोजन के सर्वोत्तम पदार्थ हैं। 

   ये फल, संसार के सभी देशों मे यथेष्ट रूप से पाए जाते हैं और यदि कहीं पर इनकी पैदावार कम हो, तो उनकी पैदावार बढ़ाई जा सकती है। जिससे कि हमारे जीवन के साधन सहज और अधिक परिमाण में प्राप्त हो सकें और यदि किसी देश विशेष में ये फल नहीं हो सकते, तो समझ लेना चाहिए कि वह देश मानव प्रकृति के अनुकूल नहीं है। अतएव वह मनुष्यों के निवास करने के सर्वथा अयोग्य है। वास्तव में हमारा भोजन वही है, जिसको खाने के लिए आग पर पकाने, नमक, मिर्च, मसालों के लगाने और तेल या घी में भूनने की आवश्यकता न पड़े। इस नियम के अनुसार विभिन्न फलों को छोड़कर और कोई चीज़ हमारे खाने के योग्य हो ही नहीं सकती।


हमारे भोजन क्या है - शाकाहार या मांसाहार हमारे भोजन क्या है - शाकाहार या मांसाहार Reviewed by Tarun Baveja on August 11, 2021 Rating: 5

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