हम बीमार क्यों पड़ते हैं ?
सर्वसाधारण का, इस प्रकार का विश्वास है, कि रोग अपने आप पैदा होते हैं। उनकी कुछ ऐसी धारणा होती है कि जो घात होनहार होती है। वह किसी न किसी प्रकार होती ही रहती है। इन होनहार बातों में, रोग भी एक होनहार ही है। जो समय-समय पैदा हो जाता है।
समाज के सर्वसाधारण लोगों का यह विचार और विश्वास कितना निर्बल और दयनीय है। उनकी यह भूल और अनजान उनकी बहुत बड़ी विपदाओं का कारण है। यदि उनको यह मालूम हो, कि रोग अपने आप नहीं उत्पन्न होते, उनके उत्पन्न करने के हम ही कारण हो जाते हैं। तो ये, निश्चय ही फिर यह जानने की चेष्टा करेंगे, कि हम स्वयं अपनी बीमारी को किस प्रकार पैदा करते हैं और जब उनको इन बातों का यथावत् रहस्य मालूम हो जाएगा। तो फिर जान-बूझकर वे कोई ऐसी भूल न करेंगे, जो उन्हीं के लिए कष्टदायक हो।

मनुष्य-जीवन में कितने प्रकार के रोग पैदा होते हैं, इस बात को निश्चित संख्या के साथ यद्यपि आज तक शरीर-शास्त्र का कोई भी विज्ञान नहीं कह सका और न आगे ही कभी कह सकेगा, इसलिए कि रोग जिन कारणों से उत्पन्न होते हैं। उन कारणों की जब तक संख्या और उनका परिमाण नहीं मालूम हो सकता, तब तक उनके द्वारा पैदा होने वाले रोगों के सम्बन्ध में ही कैसे बताया जा सकता है। परन्तु फिर भी, रोगों के सम्बन्ध में जहाँ तक अनुसन्धान किया जा सका है, किया गया है और इसके सम्बन्ध में तीन बहुत बड़े-बड़े विभाग अनुसन्धान करने वालों के पाये जाते हैं अर्थात् डाक्टरी, यूनानी और आयुर्वेदिक।
इनके आधार पर मनुष्य-जीवन में पैदा होने वाले लगभग डेढ़ हज़ार से लेकर दो हज़ार से कुछ अधिक रोगों की विवेचना, इनके लक्षण, रूप और प्रतिरूप पाये जाते हैं। अमेरिका से प्रकाशित होने वाली मेडिकल और सरजिकल बुलेटीन का कहना है, कि पेट की खराबी से और भोजन की गड़बड़ी से इन सभी रोगों की उत्पत्ति होती है, यह यूनानी और आयुर्वेदिक मत है। जिसको डाक्टरों ने भी स्वीकार किया है और फ्रांस के प्रसिद्ध डॉक्टर वाय और वोशरो तथा लंडन के लोकप्रिय डॉक्टर हेग ने विशेष रूप से इन बातों का समर्थन किया है।
मनुष्य जो खाना खाता है, उसके खाने के पदार्थों में कुछ इस प्रकार का अंश भी पाया जाता है, जो विकार उत्पन्न करता है। इस प्रकार का अंश प्रायः उन बहुत से पदार्थों में पाया जाता है, जो आज मनुष्य के भोजन के नाम से प्रसिद्ध हैं और उसी के अर्थ उनका उपयोग होता है। इन पदार्थों में जो यह विकार का अंश होता है। वह कितने ही प्रकार के मल तथा मूत्र के रूप में शरीर से बाहर हुआ करता है। मनुष्य जो खाता है, पेट में जाने पर उसकी बहुत-सी क्रियायें होती हैं और प्रत्येक क्रिया शुद्ध होकर उसका मल और विकार अलग हो जाता है। जिस प्रकार सोनार सोने और चाँदी को आग में तपाकर उसमें सोने और चाँदी के अतिरिक्त मिले हुए धातु-अंश जलाकर और शुद्धकर पृथक कर देता है, उसी प्रकार पेट के भीतर ये क्रियायें काम करती रहती हैं और ये क्रियायें तब तक बराबर होती रहती हैं। जब तक कि उनके भीतर से अशुद्ध अंश और विकार सब पृथक हो नहीं जाता। अंत में किये हुए भोजन का बहुत थोड़ा-सा कदाचित् कुच्छेक बूंदों के परिमाण में अंश रह जाता है। वही हमारे शरीर के काम में आता है।
यहाँ पर यह विचार करने की बात है, कि खाये हुए भोजन का बहुत थोड़ा-सा अंश जो अंत में तैयार होता है, वह सभी प्रकार के भोजनों में समान रूप से नहीं तैयार होता, बल्कि किसी में कुछ कम और किसी में कुछ अधिक यह अंश निकलता है। इसी प्रकार, जो विकार के अश हुआ करते हैं, वे भी सभी प्रकार के भोजन में समान रूप से नहीं होते। किसी में कम और किसी में अधिक, किसी में बिल्कुल नहीं और किसी में बहुत अधिक निकलते हैं। लंडन के बहुत प्रसिद्ध और माननीय डॉक्टर मि० हेग ने बहुत बड़े परिश्रम के साथ यह निश्च्य किया है, कि जिन पदार्थों में यह विकार अधिक होता है, उनका प्रभाव मनुष्य के शरीर पर विष के समान पड़ता है और जिन अवस्थाओं में वह शरीर से उचित समय पर निकल नहीं जाता, उन दशाओं में वह तुरन्त अपने प्रभाव से रोग उत्पन्न करता है।
अब देखना यह चाहिए, कि यह विकार और विष शरीर से मल के साथ अथवा उसके रूप में किस प्रकार निकला करता है। यह देखा जाता है, जब किसी को दस्त साफ नहीं होता, या टट्टी खुल फर नही आती, तो वह बीमार पड़ जाता है। जिन्हें दस्त साफ़ न होने की शिकायत रहा करती है, उनको सदा बीमार रहने की शिकायत भी रहा करती है। मि० हेग का यह कहना भी सत्य है, कि कुछ पदार्थों में यह विकार इतना अधिक होता है, कि वह विष होकर प्रभावान्वित होता है। इसलिए कि प्रायः देखा जाता है, कि जिनको भयंकर से भयंकर रोग हो जाते हैं और उसी रोग में उनके प्राण जाते हैं, जब उस रोगी से बातें की जाती हैं, तो मालूम होता है कि उसको टट्टी साफ न होने की शिकायत है। मि० हेग ने इस विकार को यूरिक एसिड (uric acid) अर्थात् एक प्रकार का विष निश्चित किया है।
यह विष किन-किन खाने के पदार्थों में, किस-किस परिमाण में होता है और किस-किस प्रकार वह मनुष्य के शरीर में रोग उत्पन्न करता है, इस पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा है। उनके अनुभव और अनुसंधान समाज में खूब माने जाते हैं और इसमें कोई सन्देह नहीं, कि उन्होंने इसके सम्बन्ध मे बहुत परिश्रम और अन्वेषण किया है। यहाँ पर इस विष के सम्बन्ध में उचित प्रकाश डालने की चेष्टा की जाएगी और प्रत्येक वस्तु में इस विष के परिमाण की विवेचना की जाएगी। इसके साथ ही यह निश्चय किया जाएगा, कि कौन-कौन रोगों का श्रीगणेश किस-किस प्रकार होता है।
जिन-जिन पदार्थों में यह यूरिक एसिड नामक विष होता है, उनका निम्नलिखित उल्लेख करके यह भी बताया जाएगा, कि किसमें कितना यह विष होता है। आजकल मनुष्यों के भोजन में विभिन्न प्रकार की चीजें हो गई हैं। फिर भी उनमें मछली, माँस, वनस्पति, शराब और चाय इत्यादि अधिक उपयोग में आती हैं। मछली की कई जातियाँ होती हैं और वे सभी मनुष्यों के भोजन में काम आती हैं। उन सब में यह विष समान नही होता। भिन्न-भिन्न जाति की मछलियों में विभिन्न परिणाम में यह विष पाया जाता है। यदि आध सेर प्रत्येक मछली के वज़न का गोश्त लिया जांए, तो उनमें काड मछली में चार ग्रेन, यलीस में पांच ग्रेन, हाइवट में सात ग्रेन और सामन में आठ ग्रेन तक यह विष पाया जाता है।
यही अवस्था पशुओं और विभिन्न जीवों के मांस की है। मांसाहारी मनुष्यों ने पालतू पशुओं से लेकर, पक्षियों और जंगली जानवरों तक को अपना भोजन बना रखा है। इन जीवों में ही इस विष की विभिन्नता नहीं होती, एक ही जीव के विभिन्न अंगों के मांस में विभिन्न परिमाण में यह विष पाया जाता है। जैसा कि नीचे के विश्लेषण से कहीं-कहीं पर प्रकट होगा। प्रत्येक मांस को आधा सेर वज़न में लेने पर, सुअर-मुर्दा में चार ग्रेन, खरगोश में छः ग्रेन, भेड़ और बकरी में छः ग्रेन से कुछ अधिक, गाय की खाल में सात ग्रेन, गाय की पसली में आठ ग्रेन, बछड़े में आठ ग्रेन, सुअर की कमर तथा रान में आठ ग्रेन, तुर्की मुर्ग में आठ ग्रेन से कुछ अधिक, चूज़े में नौ ग्रेन, गाय की पीठ तथा पीछे के अंग में नौ ग्रेन, गाय की भुनी हुई घोटी में चौदह ग्रेन, उसकी यकृत् में उन्नीस ग्रेन, मांस के जूस पचास ग्रेन तक यह विष पाया जाता है।
वानस्पतिक पद्धार्थों में यद्यपि इस विष की मात्रा बहुत कम पायी जाती है, परन्तु पायी थोड़ी-बहुत अवश्य जाती है। प्रत्येक वनस्पति पदार्थ को आध सेर वजन में लेने पर, भालू में अत्यन्त सूक्ष्म, प्याज में उससे कुछ अधिक, मारचोबा में एक ग्रेन, पीलमील में दो ग्रेन, जई के आटा मे तीन ग्रेन, हरी कूटवीन में चार ग्रेन और मसूर में चार ग्रेन विषम होता है।
शराब में भी वह विष बहुत कम पाया जाता है। जितनी भी शराबें हैं, उन में कदाचित् किसी में प्रत्येक आध सेर शराब में एक ग्रेन से अधिक यह विष नहीं होता। किन्तु चाय में यह विष बहुत परिमाण में पाया जाता है, उसको आधा सेर लेने पर कोका चाय में उनसठ ग्रेन, कहवा में सत्तर ग्रेन और लंका की चाय में एक सौ अस्सी ग्रेन तक यह विष पाया जाता है। अंडा, दूध, पनीर, चावल गोभी आदि में यह यूरिक एसिड नहीं पाया जाता।
ऊपर के उल्लेख से यह तो मालूम ही हो जाएगा, कि किस में कितना यह विष पाया जाता है। इन पद्धार्थों से बना हुआ भोजन खाने से और उसका ठीक-ठीक पाचन हो जाने पर यह विष साधारणतया, विशेष हानि नहीं पहुंचाता। किन्तु ठीक-ठीक उन पदार्थों का पाचन न होने पर और दस्त के साफ न होने पर यह पेट में ही रुक जाता है, इसका रुक जाना हो हानिकारक है और जिन अवस्थाओं में यह अधिक समय तक एकत्रित हुआ करता है, उनमें यह बड़े भीषण रोग उत्पन्न करता है। विशेषकर उन परिस्थितियों में जब यह विष शरीर से नहीं निकलता और लगातार रुक कर शरीर के रक्त के साथ मिश्रित हो जाता है। यहाँ पर यह एक प्रसिद्ध डॉक्टर की कही हुई बात सत्य प्रमाणित होती है, कि संसार में एक ही रोग है और उस रोग का सम्बन्ध पेट की ख़राबी से है। यदि पेट में कोई खराबी न हो, तो कभी कोई रोग हो ही नहीं सकता।
शरीर में इस विष के रुक जाने या एकत्रित हो जाने के दो विशेष कारण हुआ करते हैं, या तो यह रक्त के साथ मिश्रित हो जाता है अथवा शरीर के किसी जोड़, या अंग में बैठ जाता है। इन दो अवस्थाओं में यह विष शरीर से न निकलकर, विभिन्न रोगों की उत्पत्ति करता है। जब यह रक्त के साथ मिश्रित हो जाता है, तो उससे मस्तक की बीमारियाँ, हिस्टीरिया, सुस्ती, नींद का अधिक आना, श्वास-रोग, जिगर की खराबी, अजीर्ण रोग, शरीर में रक्त की कमी आदि बहुत-सी बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं, और जब वह किसी गांठ या जोड़ में रुक जाता है, तो उससे वात-रोग, गठिया-रोग, नाक और ले की दाह, पेट में विभिन्न रोग, शरीर में विभिन्न दर्द, निमोनियाँ, जुकाम, इनफ्ल्यूइंजा और क्षयी रोग उत्पन्न होते हैं।
जिस रक्त में यूरिक एसिड मिल जाता है, उसमें ठंण्डक पहुंचने से या किसी प्रकार की खटाई पैदा होने से यूरिक एसिड उस रक्त से पृथक हो जाता है। इसकी यह अवस्था प्रकट करती है, कि यूरिक एसिड के मिल जाने से, रक की गति स्थिर हो जाती है। डाकृर हेग ने जिन्होंने इसके सम्बन्ध मे बहुत अधिक छान बीन की है, लिखा है --
"मैंने जहाँ तक परीक्षा की है, इस बात को निश्चित रूप से पाया है कि यूरिक एसिड की गति में अन्तर होने से की सूक्ष्म और बारीक नसों में रक्त का दौड़ा रुक जाता है अर्थात् जो बहुत बारीक और पतली नसें होती हैं, उनके अन्दर जो रक्त बराबर गतिमान रहा करता है, रक्त की उस गति में तुरन्त अंतर पड़ जाता है, जब यूरिक एसिड की अवस्था में कुछ अन्तर होता है। ऐसी दशा में मैंने निश्चय किया है, कि जब खून में यूरिक एसिड अधिक परिमाण में हो जाता है, तो रक्त की गति में बहुत-सी स्थिरता उत्पन्न हो जाती है और जब रक्त में उसका परिमाण कम हो जाता है, तो रक्त शरीर की सभी छोटी-बड़ी नालियों में समान रूप से गतिमान रहता है। इससे यह साबित होता है, कि सूक्ष्म नसों पर यूरिक एसिड का बहुत शोधू प्रभाव पड़ता है।"
यह बात सही है और सन्देह होने पर बिना किसी यंत्र की सहायता के अनुभव की जा सकती है अर्थात् अपनी किसी उँगली को थोड़ा-सा जोर से दबाने पर वह सफेद हो जाएगी और छोड़ने पर फिर लाल हो उठेगी। डॉक्टर हेग का यह भी कहना है, कि जो लोग मांसाहारी होते हैं, उनकी उँगली में इतनी जल्दी सफेदी नही आ सकती, जितनी कि वानस्पतिक पद्धार्थों का भोजन करने वाले की उँगली में।
इस यूरिक एसिड के रुक जाने का एक और भी कारण और जिसके सम्बन्ध मे कुछ संक्षेप में पहले ही लिखा भी गया है। यूरिक एसिडदार पद्धार्थों का सेवन करने से जिन अवस्थाओं में मल निकलने से रुक जाता है। उनमें यह विष शरीर की किसी हड्डी या पट्ठों में बैठ जाता है और वहाँ पर धीरे-धीरे अधिक परिमाण में एकत्रित होता रहता है और उसके बाद, वायु जनित गांठो, हड्डियों, पुट्ठों आदि में अनेक बीमारियां पैदा करता है। शरीर में यूरिक एसिड होने न होने की पहचान बड़ी आसानी से और दूसरे ढंग से हो सकती है। परिश्रम पूर्ण कार्य करने से या व्यायाम करने से जब अधिक सुस्ती आती है, तो समझ लेना चाहिये कि शरीर में यूरिक एसिड मौजूद है। क्योंकि जब यह विष शरीर में नहीं होता और परिश्रम तथा व्यायाम आदि किया भी जाता है, तो उसकी थकावर और सुस्ती बहुत शीघ्र दूर हो जाती है और इसलिए कि हड्डियों नलियों और नसों में जो रक्त प्रवाहित होता रहता है, वह तुरन्त फिर नवीन रक्त के द्वारा नई स्फूति उत्पन्न कर देता है। परन्तु जब यूरिक एसिड शरीर में होता है, तो वह रुधिर की गति को स्थिर कर देता है और परिश्रम तथा व्यायाम द्वारा शरीर के जोड़ों, पुट्ठों आदि में जो क्लान्ति उत्पन्न हो जाती है, उसको दूर करने के लिए नवीन रक्त शीघ्र नही पहुंचने पाता, जिससे नवीन स्फूर्ति शीघ्र नही उत्पन्न होती।
यह बात सभी को मालूम है, कि जो लोग परिश्रम नहीं करते और न व्यायाम ही करते हैं, वे सदा निर्बल और रोगी रहा करते हैं, इसका कारण क्या है? बात यह है, कि पारिश्रमिक कार्य करने से जो शरीर मे पसीना आता है, उस पसीने में हमारे शरीर से रक्त का यूरिक एसिड निकल जाता है। उसका शरीर से निकल जाना ही शरीर का स्वास्थ्य और पुरुषार्थ है। उसका रुक जाना या शरीर में रुधिर, हड्डी या किसी जोड़ आदि में बना रहना शरीर को निकम्मा, रोगी और निर्बल बनाता है। सभी लोग जानते हैं, कि पक्के महलों और बँगलों में रहने वाले स्त्री-पुरुषों और बच्चों के शरीरों में वह शक्ति, पुरुषार्थ, स्वास्थ्य नहीं होता, जो कि सड़क पर कंकड़ कूटने वाले, खेतों पर काम करने वाले पुरुषों, स्त्रियों और मज़दूर किसानों के शरीरों में होता है। यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है, कि इन दोनों प्रकार के मनुष्यों के भोजनों और उनके भोजन के पद्धार्थों में किस प्रकार अंतर होता है।
दोनों के शरीरों में इस विशाल अंतर होने के दो बड़े कारण हैं। एक तो यह कि वे मज़दूर और किसान वानस्पतिक पदार्थों के द्वारा बने हुए उन भोजनों को खाते हैं, जिनमें यूरिक एसिड बहुत कम परिमाण में होता है। दूसरा कारण यह है, कि वे दिन-भर इतना परिश्रम करते हैं कि उनके शरीरों में रक्त के साथ जो यूरिक एसिड होता है, वह पसीने के साथ शरीर से निकल जाता है।
यह बात देखी गई है और परीक्षा से मालूम हुई है, कि यूरिक एसिड विष का प्रभाव प्रातःकाल अधिक रहता है और दोपहर, संध्याकाल कुछ फुरसत सी रहती है। इसी आधार पर मि० हेग ने लिखा है, कि "लंडन के अमीर और बड़े आदमी तो प्रातःकाल देर तक सोते ही हैं, सर्वसाधारण की भी यही अवस्था होती जाती है, इसलिए कि उनके भोजनों में मांस का बाहुल्य होता है और यूरिक एसिड पैदा करने में माँस सबसे अधिक है।" वास्तव में यह बात न केवल लंडन या अमेरिका के बड़े आदमियों के सम्बन्ध में है वरन् किसी भी देश में यदि देखा जांज, तो यही अवस्था मिलेगी। प्रायः सभी देशों के बड़े आदमी पैसे वाले, समर्थ व्यक्ति माँस तथा इस प्रकार के भोजन करते हैं, जो यूरिक एसिड अधिक उत्पन्न करते हैं और इसी के फलस्वरूप उनको प्रातःकाल बहुत देर तक सोना पड़ता है और उठने पर भी, उनकी आँखों का आलस नहीं छूटता। साधारण समाज में भी जिनके भोजनों का सम्बन्ध यूरिक एसिड से होता है, उनकी भी यही अवस्था होती है। वानस्पतिक पद्धार्थ जिनके भोजन होते हैं, उनकी तेज़ी उनके शरीरों का चैतन्य मांसाहारी लोगों में नहीं हो सकता।
मनुष्य के भोजन के विषय में फलों और तरकारियों की आवश्यकता और उपयोगिता दिन पर दिन संसार के बुद्धिमान् और विचार शक्ति अनुभव करते जाते हैं। लोगों का ध्यान इस ओर गया है और वे समझने लगे हैं, कि मनुष्य जाति की स्वास्थ्य सम्बन्धी दुरावस्था का कारण उसके अस्वाभाविक भोजन के कारण है। इस ओर लोगों ने बड़े-बड़े अनुसन्धान करने प्रारम्भ कर दिये हैं और उनमें से जो जिस नतीजे पर पहुंचते हैं। अपने विचारों को बरावर प्रकट करते हैं। संसार के सर्वश्रेष्ठ महापुरुष, महात्मा गाँधी ने फलों के ऊपर कई बार लिखा है और उन्होंने स्वयं अपने जीवन में अधिक समय केवल फलाहार करके समय बिताया है, ऐसा करने पर उनके जीवन को जो शक्ति, पुरुषार्थ और आरोग्य प्राप्त हुआ है। वह सब उस प्राकृतिक भोजन का ही एक-मात्र परिणाम है, उन्होंने ये स्वीकार किया है। मि• पावल ने अपनी अंगरेजी पुस्तक में, इसके सम्बन्ध में कुछ लोगों की सम्मतियाँ लिखी हैं। जिनसे यह प्रकट होता है, कि अस्वाभाविक और हानिकारक खाने की चीजों का समाज में भंडाफोड़ होता जाता है। इस प्रकार की सम्मतियाँ यहाँ पर दे देना अनावश्यक न होगा। डाकृर प्रोक्स ने लिखा है --
यूरिक एसिड उत्पन्न करने वाले पद्धार्थो के भोजन करने वालों की अवस्था उस आदमी की भाँति है, जो अपनी जेब में बारुद भरकर आग वाले कारखाने में घूमता है। जिसमें आग की एक चिंनगारी की ही केवल कमी रहती है और उसकी प्रत्येक घड़ी आशंका की जाती है।
विलायत में गो-मांस की चाय खाने की बहुत प्रथा है। यह बीफ़टी (Beaf tea ) के नाम से प्रसिद्ध है। यह चाय गौ के माँस द्वारा तैयार की जाती है। प्रारम्भ में बताया जा चुका है, कि गौ के माँस में कितना यूरिक एसिड होता है। इस बीफ़टी का अनुचित प्रभाव देखकर और अनुभव करके मि० राबर्ट वारथोले ने लिखा है -- "यह बात भली-भांति अब समझ में आ गई है, कि बीफ़टी के प्रयोग से कुछ उत्तेजना के अलावा और कोई फायदा नहीं होता। बल्कि बहुत अंशों में वह नुकसान ही पहुँचाता है।"
सर विलियम राबर्टस का कहना है कि "बीफ़टी को किसी प्रकार मनुष्य का आहार समझना बड़ी भूल करना है। वह तो एक प्रकार से मादक पद्धार्थों की भाँति उत्तेजना मात्र का प्रवर्तक है और अन्त में बहुत दूषित अंश उत्पन्न करती है"।
बीफ़टी के सम्बन्ध में एक बार प्रकाशित हुआ था, कि "जो स्त्रियाँ बीफ़टी तैयार करती हैं और उनका उपयोग करती हैं, वे किसी प्रकार यह नहीं समझती, कि उसमें मनुष्य के भोजन का अंश बिल्कुल नहीं होता। बहुत से रोगियों के साथ देखा गया है कि इस बीफ़टी ने उनको बहुत हानि पहुँचाई हैं। इसलिए कि बहुत दिनों से उनका यह आहार हो रहा था।"
अमेरिका के एक यूनीवर्सिटी के डॉक्टर साहब ने लिखा था, कि जो लोग मांस के शोरवे का आहार करते हैं, वे एक ऐसी गलती करते हैं। जिसके फलस्वरूप उनको अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं।
मि० ए० एच० अमीन ने लिखा है -- "माँस को भोजन समझना और भोजन के स्थान पर उसका प्रयोग करना सख्त गलती है। ऐसी भूलों के परिणाम-स्वरूप बुरी-बुरी बीमारियों में पड़ना होता है"।
समाज में मांसाहार के बढ़ते हुए परिणाम को देखकर और उसके भयंकर परिणामों को अनुभव करके डा० टी० आर० 'आलिंसन' ने उन लोगों को चुनौती देते हुए लिखा है। जो माँसाहार के पक्ष में हैं, कि जो कोई माँस को गेहूँ के आटे से अधिक उपयोगी प्रमाणित कर देगा, उसको पन्द्रह सौ रुपये इनाम में दिये जाएगे।
डॉक्टर ब्रिटन हे का कहना है, कि मैंने अपने अनुभव पर यह सम्मति निश्चित की है कि बीफ़टी के लिए जो बीफ प्रयोग किया जाता है। वह मनुष्य के लिए बहुत हानिकारक है।
मि० डब्ल्यू० डंकन का कहना है, कि लोगों का यह विश्वास है, कि माँस के भोजनों से सर्दी, जुकाम, इन्फ्ल्युएंजा आदि बीमारियाँ दूर हो सकती हैं, मिथ्या धारणा है। उनको जानना चाहिए, कि माँसाहार से एक प्रकार का ऐसा विष शरीर में प्रवेश करता है। जो इन बीमारियों को शरीर में पैदा करता है।
बीफ़टी के सेवन से मनुष्यों के स्वास्थ्य को जो हानि हुई है और उसके द्वारा उत्पन्न हुई भिन्न-भिन्न बीमारियों से जो सर्वसाधारण की मृत्यु हुई है, उसका अनुमान लगाकर और उससे कातर होकर डाक्टर मिल्स फ़ोदागले ने लिखा --
लोगों में बीफ़टी का प्रचार बराबर बढ़ता जाता है। उससे इस कदर ज्यादा हानि हो रही है, कि केवल मेरे ही न जाने कितने मित्र सम्बन्धी और शुभ-चिन्तक मर गए। उनकी मृत्यु का एक-मात्र कारण यह था, कि उनको बीफ़टी दी जाती थी। इस बीफ़टी के द्वारा इतनी अधिक मृत्युएँ होती हैं, कि उसके सामने नेपोलियन का भयानक युद्ध कोई चीज़ नहीं है।
इस लेख में अकारण रोगों के पैदा होने का कारण और क्रम भली-भांति दिखाया गया है। हम लोग जो बिना सोचे समझे कोई भी भोजन कर लिया करते हैं, और सभी को भोज्य समझ लेते हैं, इस लेख को पढ़कर हमारे हृदय का वह मिथ्या भाव उड़ जाएगा और हम समझने लगेंगे, कि हमें वास्तव में किस प्रकार का भोजन करना चाहिए और किससे हमको क्या लाभ और किससे क्या हानि हो रही है।
भोजन से जो शरीर में यूरिक एसिड उत्पन्न हो जाती है। उसका शरीर से निकलना बहुत आवश्यक है और उसके निकालने के लिए परिश्रम पूर्ण कार्यों और व्यायाम से बढ़कर दूसरा कोई मार्ग नहीं है। जिससे हमारा सम्पूर्ण शरीर एक बार पसीने से खूब नहा जांए।

No comments: