सभी रोगों का एक कारण
हमारे शरीर स्वस्थ और नीरोग क्यों नहीं हैं। दुबले पतले और जीर्ण-शीर्ण क्यों दिखाई देते हैं। छोटे-छोटे बच्चे और नवयुवक नाजुक क्यों हो रहे हैं? स्त्रियों के बदन पर रक्त और मांस क्यों सूखा हुआ है ? आदि-आदि प्रश्नों का एक ही उत्तर है और वह यह कि समस्त मानव समाज रोगी है।
यदि हम अपनी दिनचर्या पर विचार करें, तो मालूम होगा कि हमारा सम्पूर्ण जीवन रोगों का इलाज करने में ही व्यतीत होता है। हमें अपने जीवन का इतना बड़ा और कोई भी काम नहीं करना पड़ता, जितना कि हमें दवाओं का प्रबंध करना पड़ता है। पहले तो हमें स्वयं बीमारियों से छुट्टी नहीं है। कभी सिर में पीड़ा है, कभी कमर में दर्द है, किसी दिन हरारत है और किसी दिन बुखार है। जुकाम जैसी बीमारियाँ तो बनी ही रहती हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न रोगों से हमें छुट्टी नहीं मिलती। किन्तु उसी अवस्था में यदि ईश्वर ने संतान दी है और एक गृहस्थ का जीवन बिताना पड़ता है, तो फिर कहना ही क्या है। सवेरे उठकर डॉक्टर साहब के पास अथवा वैद्य जी के पास जाकर एक न एक मुसीबत रोना और दवा की शीशी या पुड़िया ले आना नित्य का नियम है। इसके बाद फिर खाना-पीना अथवा अन्य बाते हैं।

यह सब क्या है ? क्या हममें से कभी कोई इस अवस्था का विचार भी करता है ? क्या कभी हम लोग इन दुरवस्थाओं की ओर देखते और उनके कारणों की विवेचना भी करते हैं? और यदि करते हैं, तो कौन इस बात का उत्तर देगा कि शहरों में जितने मकान, नागरिकों के रहने के लिए होते हैं। उनके ठीक चौथाई मकानों और इमारतों में दवाखाने, औषधालय होते हैं, क्यों ? इसका उत्तर यही न, कि शहरों का जीवन, नागरिकों की ज़िन्दगी इन दवाखानों और औषधालयों पर निर्भर है।
इन दवाखानों और औषधालयों की संख्या यही तक नही है। इनका अभिप्राय उन दवाखानों और औषधालयों से है, जो किसी वैद्य या डॉक्टर के व्यक्तिगत हुआ करते हैं । इनसे कहीं अधिक भयानक सार्वजनिक औषधालय हैं, जो धर्मार्थ अथवा परोपकारार्थ हुआ करते हैं। इस प्रकार के औषधालयों की अधिक टीका-टिप्पणी करना व्यर्थ है। बताना केवल यह है, कि उनमें दवा लेने वालों की संख्या और उनका दृश्य रहस्यपूर्ण हुआ करता है। समाज रोगी है या स्वस्थ, हमारा जीवन रोगमुक्त है अथवा रोगपूर्ण ? इन प्रश्नों का निर्णय करने के लिए इन धर्मार्थ औषधालयों का निरीक्षण करने की आवश्यकता है।
समाज का इस रोग ग्रसित अवस्था का विचार करते हुये एक विद्वान ने लिखा था-"मानव समाज रोगों का दिन पर दिन शिकार होता जाता है। मनुष्य के जीवन का रोगों से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया है, कि जीवन का बहुत बड़ा अंश इसी उलझन में चला जाता है। समाज की इस अवस्था का परिणाम साधारण लोगों, गृहस्थों पर बहुत भयंकर मिलता है। यह अवस्था इस समय उतनी शोचनीय नहीं है, जितनी कि भविष्य में उसके शोचनीय होक्षजाने का निश्चय है। रोगों की इस बढ़ती हुई दुरावस्था का एक अनुचित कारण बहुत अधिक संख्या में डॉक्टरों, वैद्यों और हकीमों का होना है।"
समाज की यह अवस्था सचमुच विचारणीय है। संसार के विद्वानों ने समाज की अवस्था को अनुभव किया है और उसके कारणों पर भली-भाँति विचार किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं है, कि मुकदमेबाज़ी के बढ़ जाने का कारण वकीलों की संख्या है। राजनीतिक जीवन को फैलाने और बढ़ाने के कारण, समाचार पत्र हैं। व्यभिचार को बढ़ाने वाली वेश्याएं हैं, भिखमंगों को पैदा करने वाले, दाता हैं, और रोग तथा बीमारियों के बढ़ने का कारण दवाखाने, औषधालय और अस्पताल हैं। ये दवाखाने और अस्पताल किस प्रकार रोगों की वृद्धि करते हैं। संक्षेप में यहाँ पर कुछ प्रकाश डालना है। हम ऐसा कोई भी काम नही कर सकते, जिसमें हमको दंड मिल सकता है। किन्तु जब हमको विश्वास होता है कि उस दंड से हम मुक्त हो सकते हैं, तो उस अपराध के करने में जो डर होता है, वह हमारे हृदयों से निकल जाता है। चोरी करने से दंड मिलता है, इसीलिए हम चोरी करने से डरते हैं। किन्तु जब हम यह जान लेते हैं, कि वकील की पैरवी से हम बचाए जा सकते हैं, तो फिर चोरी करने का हमें कौन-सा डर हो सकता है।
यह निश्चित है, कि रोग या बीमारी का उत्पन्न होना, हमारे ही जीवन का कोई न कोई अपराध है और उस अपराध का दंड स्वरूप यह रोग है, तो फिर उस रोग से किसी को बचाने का प्रयत्न करना यह साबित करता है, कि अपराध करने वालों की संख्या बढ़ाई जा रही है। हम स्वभाव और प्रकृति के विरुद्ध खाना खाकर बीमार होते हैं और जब बीमार होते हैं, तो दवाओं की सहायता से उससे मुक्ति पाने की चेष्टा करते हैं। मुक्ति पाने का यह ढंग यदि न होता तो एक बार उसका कष्ट भोगकर हम दूसरी बार कभी उस अपराध का साहस नहीं कर सकते थे। जो लोग, धर्मार्थ औषधालय खोलते हैं, वे परोक्ष में धर्म करते हैं। किन्तु समाज के लिए वह हानिकर ही होता है। जिन कोठी वालों के दरवाज़ों पर भिखमंगों की भीड़ लगती है और वहाँ पर उनको मुट्ठी-मुट्ठी अनाज मिलता है। यहाँ पर उनके साथ उदारता और दया होती है। परन्तु इसका फल यह होता है, कि उन भिखमंगों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जाती है। इस प्रकार अपरोक्ष में समाज का पतन होता है।
मनुष्य का वास्तविक आहार क्या है। यह बात पीछे बताई जा चुकी है। इस स्वाभाविक आहार और प्राकृतिक भोजन को छोड़ देने के कारण आज मनुष्य-जाति की यह अधोगति हुई है। यदि ये रोग जीवन के कोई आवश्यक अंग होते, तो वह मनुष्यों के अतिरिक्त अन्य सभी प्राणियों के लिए भी तो होने चाहिए थे। किन्तु पशुओं, पक्षियों, जंगली जानवरों, कीड़ों-मकोड़ों आदि के लिए कभी किसी दवा की आवश्यकता नहीं पड़ती। उनको बीमारियाँ नही होती और न उनकी बीमारियों के लिए दवाखाने तथा औषधालय ही खुले हैं। कोई भी बीमारी, जो संयोगवश पैदा होती है, वह अपने आप अच्छी भी होती है। फोड़ा-फुन्सी से लेकर, तरह-तरह की बीमारियाँ और भयंकर से भयंकर रोग अपने आप सेहत होना चाहिए, यह प्रकृति का नियम है। यहाँ पर एक रोगी का उदाहरण देना आवश्यक जान पड़ता है। एक आदमी की अवस्था लगभग अड़तीस वर्ष की थी, पानी पीने में उसके दांतों में पानी लगता था। वह आदमी कुछ पैसे वाला था। उसने भिन्न-भिन्न वैद्यों की दवा की और अंत में एक प्रसिद्ध दांत बनाने वाले (Dentist) के पास गया। उसने दांतों को देख कर बताया कि दांतों पर जो enamel (एक प्रकार की पालिश) लगी होती है, उसके निकल जाने से पानी लगने लगता है।
उस आदमी के पूछने पर उसने बताया कि यह पानी का लगना बन्द हो सकता है और इसके लिए उसे करीब पैंतीस रुपये खर्च करने का अन्दाज़ बताया। उस आदमी ने वैसा ही किया। किन्तु उतने रुपये खर्च हो जाने के बाद उसका पानी लगना बन्द न हुआ। इसके बाद उस आदमी ने अधिक रुपये खर्च करना उचित न समझा। उसने दवा करना बन्द कर दिया। कुछ दिनों के बाद उसे कुछ ऐसे आदमियों से बातें करने को मिलीं, जिनके दांतों में पानी लगने की बीमारी हो चुकी थी। इन बातों के साथ-साथ, उन लोगों ने यह भी बताया कि यह पानी को लगना अपने आप बन्द भी हो गया। यह बात सुनकर उस आदमी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने एक अंगरेज दांत बनाने वाले से बात की तो उसने बताया कि दांतों पर जो enamel अर्थात् एक प्रकार की पालिश होती है, उसके निकल जाने से दांतों में पानी लगता है। यह enamel अपने आप फिर दांतों पर पैदा हो जाती है। इसके निकल जाने का कारण खाने-पीने का व्यतिक्रम होता है। चिकित्सा के द्वारा कुछ जल्दी वह पैदा होती है।
यही अवस्था प्रत्येक रोग की है। कोई भी रोग, कुछ न कुछ कारण पाकर पैदा हो जाता है और अपने आप सेहत हो जाता है। यह अवस्था उस समय होती है, जब प्राकृतिक जीवन बिताया जा सकता है। समाज ने अस्वाभाविक जीवन में पदार्पण करके इतना बड़ा भार अपने सिर पर ले लिया है। जिसको देखकर सहज ही घृणा होती है। हमें अपने जीवन को समझने और उसको ठीक-ठीक बिताने के लिए न जाने कितनी पुस्तकें और ग्रन्थों को पढ़ना पढ़ता है। परन्तु इन पुस्तकों और ग्रन्थों का अंत नही होता। इन पुस्तकों और ग्रन्थों में से एक-एक पुस्तक के भीतर न जाने कितने नियम कितने उपनियम होते हैं। इन पुस्तकों और ग्रंथों एवम् उनके नियमों और उपनियमों का याद करना तो दूर रहा, एक बार पढ़ डालना ही असंभव हो गया है। यह जीवन भी क्या एक चला है। व्यर्थ का यह भार देखकर जी ऊब उठता है। इन सब व्यर्थ आडम्बरों की क्या आवश्यकता है।
प्रकृति ने हमारे जीवन को एक बला एवम् आडम्बर के रूप में नहीं निर्माण किया। यह जीवन इतना सहज और सरल है, जितना कुछ भी सहज और सरल हो सकता है। जिसने हमें जीवन दिया है, उसने हमको उस जीवन को आवश्यकतानुसार बिताने के लिए स्वाभाविक प्रवृत्तियां प्रदान की है। प्रकृति की प्रदान की हुई ये स्वाभाविक प्रवृतियाँ हमारे जीवन में वहीं पर नष्ट हो जाती हैं, जब हमारा जीवन प्रकृति के विरुद्ध प्रवाहित होता है। उसी अवस्था में हमको अपना जीवन बिताने के लिए बैलगाड़ियों में लादी जाने वाली इन पोथियों की ज़रूरत होती है। किन्तु क्या इनसे कुछ वास्तव में उपकार भी होता है ? हमें जल कैसा पीना चाहिए, हमें किस प्रकार की वायु का सेवन करना चाहिए? कौन-सा भोजन हमें खाना चाहिए और कहाँ कैसे स्थानों में हमें रहना चाहिए, यह सब सीखते-सीखते हम बाल्यकाल से बुढ़ापें तक पहुंचते हैं। किन्तु यदि कोई पूछे, कि उससे फ़ायदा क्या उठाते हैं तो कदाचित् यही उत्तर देना पड़ेगा कि कुछ नहीं?
हमें अपने जीवन के लिए जिन-जिन बातों की आवश्यकता है। उनको ठीक उसी रूप में प्राप्त करने के लिए प्रकृति ने सभी प्राणियों को शक्तियाँ प्रदान की हैं और समूचे विश्व में उनकी व्यवस्था की है। फिर उनको बताने और पुस्तकों के पन्ने रटाने की क्या ज़रूरत है और यही कारण है कि मनुष्य को छोड़कर अन्य किसी प्राणी को उसकी आवश्यकता नहीं पड़ती। जंगलों और वन-पर्वतों पर रहने वाले जानवर तथा पशु-पक्षी पीने के लिए सुन्दर प्रवाहित जलाशयों, नदियों तथा झरनों का पानी पीते हैं। खाने के लिए अपने-अपने स्वभाव के अनुकूल भोजन प्राप्त करते हैं और अपने रहने के लिए सुरक्षित स्थानों की व्यवस्था करते हैं। यही तो जीवन है। फिर इस जीवन को संचालित करने के लिए हमें जीवन भर क्यों रोना पड़ता है ?
हमारे स्वास्थ्य का रोना इतना विस्तार पा चुका है, कि विशेष रूप से उसके बताने की आवश्यकता नहीं है। समाज को रात-दिन, सदा-सर्वदा एक न एक बीमारी के कष्ट में दुखी रहना पड़ता है। ऐसी अवस्था में भी यदि कोई इस दुरवस्था से अपरिचित रहे हों तो उनको चाहिये कि वे समाचारपत्र, मासिकपत्र तथा भिन्न-भिन्न पत्र-पत्रिकाओं के पन्नों को उलट कर देखें, तो उनको उन में देखने को मिलेगा कि समाज के बिगड़े हुए स्वास्थ्य, बढ़ते हुए स्वाभाविक और अस्वाभाविक रोग किस-किस प्रकार के हैं और उनके कारण समाज की शक्ति कितनी निर्बल हो गई है। चिकित्सा करते-करते विज्ञापन दाताओं और इश्तहारवाजों ने तो समाज का जीवन ही अश्लील कर डाला है।
थोड़े से संतोष की बात यह है, कि समाज में कुछ दूरदर्शी विद्वानों का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ है और वे सोचने लगे हैं, कि इस दुरवस्था का मूल कारण क्या है। यहाँ पर भिन्न-भिन्न लोगों के विचारों और रिपोर्टों के उद्धरण देकर इस बढ़ती हुई दुरवस्था पर विशेष रूप से प्रकाश डालना चाहते हैं। लार्ड केलवन ने इस स्थिति की मीमांसा करते हुए लिखा है "मैं बहुत समय के पश्चात् , इस नतीजे पर पहुँच सका हूं कि हमारे शरीर में जो रोग उत्पन्न होकर हमारे जीवन के सुखो को भिन्न-भिन्न कर डालते हैं। वे प्रायः सभी हमारे अस्वाभाविक भोजनों के द्वारा उत्पन्न होते हैं।"
यह बात सभी को मालूम है, कि जीवन का सारा सुख स्वाथ्य पर निर्भर है। इस स्वास्थ्य को प्राप्त करने के लिए समाज में आए दिनों कौन-से प्रयत्न नहीं किये जा रहे? परंतु वे निष्फल हो जाते हैं अथवा यों कहा जांए, कि मनुष्य के जीवन में जो शक्ति और पुरुषार्थ होना चाहिये, वह नहीं दिखाई देता। दक्षिणी अफ्रिका में दस हज़ार मैञ्चसेंट्रल युवकों ने देश और सरकार की सेवा करने के लिए प्रार्थना-पत्र दिए, उन प्रार्थना-पत्रों पर वे दस हज़ार युवक बुलाये गये। आश्चर्य की बात है, कि उन दस हज़ार नवयुवकों में केवल बारह सौ इस योग्य निकले जो सैनिक कार्य कर सकते थे। समाज की दुर्बल-अवस्था के और क्या प्रमाण हो सकते हैं।
एक सरकारी रिपोर्ट से पता चलता है, कि सन् १६०० में जिन युवकों ने सेना में भर्ती होने का प्रयत्न किया था। उनमें से डॉक्टरों ने २८ प्रतिशत युवकों को किसी न किसी रोग में रोगी होने के कारण निकाल दिया। इसके बाद जो शेष रहे, उनमें से परिश्रम कर सकने और कष्टों को सहन करने के योग्य केवल ५० प्रतिशत युवकों को निर्वाचित किया। इस प्रकार बहुत बड़ी संख्या में अयोग्य और रोगी कहकर वापस किये गए। सन् १९०८ में रंग रूटों की भर्ती के लिए जो कितने ही सहस्र जवान एकत्रित हुए थे। उनमें से ४२ प्रतिशत तो केवल इसलिए निकाल दिये गए, कि वे विभिन्न सूक्ष्म बीमारियों के रोगी थे। अब सोचने की बात यह है, कि यह अवस्था उन लोगों की है, जो समाज में युवक, स्वस्थ, शक्तिशाली और नीरोग समझे जाते हैं, क्योंकि सेना में भर्ती होने के लिए कोई रोगी, निर्बल युवक प्रार्थी नही हो सकता। मानव समाज की यह अधोगति न किसी एक देश की है वरन् सारे संसार की है। संसार के मानव समाज में वे लोग इस दुरवस्था से किसी प्रकार पृथक हैं, जो किसी शहर के नागरिक नहीं हैं, जो धनिफ, पैसे वाले नहीं हैं अथवा जो देहातों, जंगलों और पर्वतों पर रहते हैं। कारण यह है, कि इन लोगों का अधिकांश में उतना अस्वाभाविक जीवन नहीं होता, जितना कि इनके विरुद्ध हैसियत वालों का।
इस दुरवस्था के कैसे-कैसे भीषण दृश्य हमारी आँखों के सामने से नित्य प्रति गुज़रा करते हैं, यह बात ध्यान पूर्वक देखने के योग्य है। पैदाइश और मृत्यु विभाग की रिपोर्टों में इस बात का पता चलता है, कि मनुष्य की अवस्था लगातार कम होती जाती है अर्थात् ३५ और ४० वर्ष के उपरान्त ही स्त्री-पुरुषों की अधिकांश में मृत्यु हो जाती है। इन रिपोर्टों में एक बात बड़ी भयंकर है, जो विशेष रूप से जानने के योग्य है। मरने वालों में बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है, जो असमय और किसी रोग विशेष के कारण मर जाते हैं। इन मरने वाले व्यक्तियों के रोगों का अनुसन्धान करने से पता चलता है, कि क्षयी रोग किस प्रकार समाज में तरक्की कर रहा है। हम आगे चलकर बतायेंगे कि क्षयीरोग जैसी बीमारियों के उत्पन्न होने के मांस जैसे अस्वाभाविक भोजन किस प्रकार कारण हो रहे है।
विलायत के डॉक्टरों ने जो वहाँ समस्त स्कूलों के विद्यार्थियों के सम्बन्ध में रिपोर्ट प्रकाशित की हैं, वे कितनी हृदय विदारक हैं। उनका कहना है, कि प्रतिशत २५ विद्यार्थी ऐसे निकल जाते हैं, जिनके रक्त खराब हो गए हैं। प्रतिशत ८ ऐसे लड़के हैं, जिनको हृदय की निर्बलता है और ४५ प्रतिशत लड़के गले और नाक की बीमारियों से बीमार हैं। अमीर घरानों के लड़कों का स्वास्थ्य किसी प्रकार संन्तोषजनक नहीं है।
इन रिपोर्टों की एक-एक बात इस बात को स्पष्ट करती है, कि प्रकृति और स्वभाव के भिन्न, भोजन करने का यह एक मात्र परिणाम है। यह अस्वाभाविकता अमीर घराने में जिस प्रकार होती है, उसका यह परिणाम ही होना चाहिए। जैसा कि उनके बालकों के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में डॉक्टरों ने लिखा है। खाने-पीने के सम्बन्ध में जितनी स्वेच्छा चारिता बढ़ती जा रही है, उतनी ही हमारी श अधोगति भी हमारे लिए अनिवार्य हो गई है। पशु और दूसरे पक्षियों में एक स्वाभाविक वुद्धि होती है, जिससे वे अपना भोजन खाते हैं और जो अभोज्य होता है, उसको कभी भी वे स्वीकार नहीं करते। परन्तु मनुष्य इन बातों को कभी भी विचार नहीं करता, करे भी कैसे, उसकी तो स्वाभाविक वुद्धि ही नष्ट हो जाती है और उसका सारा जीवन ही कृतिम हो जाता है।
फिर उसका भोजन स्वाभाविक और प्राकृतिक कैसे हो सकता है। उनको भूख नहीं लगती, खाना हज़म नही होता। पाचनशक्ति दिन पर दिनदोहाई देती है। परन्तु उनको इस बात का ख्याल नहीं होता कि हम जो खाते हैं, वह वास्तव में हमारा भोजन नहीं है। इसीलिये यह सब अनिष्ट हो रहा है। यह सब न सोचकर वे उसी भोजन को पचाने का प्रयत्न करेंगे। वैद्य जी से चूर्ण लाएगे, दूसरी औषधियों का प्रयोग करेंगे और अपनी हठ से पेट को एक प्रकार का बोरा बना डालेंगे, जिसमें कोई भी पदार्थ उचित और अनुचित भरे जा सके।
पिछले पृष्ठों मे बताया जा चुका है, कि मनुष्य का शारीरिक उसके दांत, आमाशय और कितने ही अवयव इस बात का प्रमाण देते हैं कि मनुष्य का भोजन फलों को छोड़कर और कुछ नहीं हो सकता। उसका सबसे उत्तम और आरोग्यवर्द्धक यही भोजन है। किन्तु स्वभाव से भिन्न किन-किन पदार्थों को खाकर मनुष्य रोगी होता है, इसका विस्तार के साथ आगे विवेचन किया जाएगा। यहाँ पर यह बताना आवश्यक हो गया है, कि सभ्य मानव समाज ने फल और वनस्पति जो उसके लिए उपयोगी हैं, छोड़कर किस प्रकार के पदार्थों का भोजन अपने लिए आवश्यक समझा है। यहाँ पर उनके सम्बन्ध में थोड़ा-सा उल्लेख कर देने से मालूम हो जाएगा कि शरीर और स्वास्थ्य को ख़राब करने के लिए किस प्रकार वे भोजन कारण हुए है।
कोरिया के लोगों में कुत्ते पालने की बहुत पुरानी प्रथा है और प्रायः सभी लोग वहाँ कुत्ते पालते हैं। किन्तु इन कुत्तों के पालने का सिवाय इसके और कोई अभिप्राय नहीं है, कि वे लोग कुत्ता खाते हैं। हमारे देश के बहुत से लोग इस बात को सुनकर चौंकेंगे, किन्तु चौंकने की बात नहीं है। हमारे यहाँ बकरी और बकरे पाले जाते और बकरी और बकरे खाये भी जाते हैं। कितने ही ऐसे पक्षी पालने की हम लोगों में प्रथा है, जो हमारे ही देश में भोजन के काम में भी आते हैं। मुसलमान लोग गाय पालते हैं और उसी का हनन करके भोजन के काम में लाते हैं।
फ्रांस जैसे सभ्य देश में मेंढक और इस प्रकार के जीव बड़ी रुचि और स्वाद के साथ खाये जाते हैं और उनके द्वारा वहाँ पर भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन बनाए जाते हैं। यूरोप के देशों में मछलियों की गली-सड़ी आँतों से एक बहुत स्वादिष्ट भोजन तैयार किया जाता है और उसे लोग बहुत महत्व देते हैं। शाम में अंडा तो खाया ही जाता है, किन्तु उसको सड़ाकर और गलाकर खाने की बहुत प्रथा है और वहाँ के लोग इसे बहुत उत्तम समझते हैं। दक्षिणी अफ्रिका में जो वहशी लोग रहते हैं, वे जानवरों की बातों को बड़े शौक से खाते हैं। जूलू वहशियों में सड़ा हुआ माँस खाने को बहुत स्वादिष्ट माना जाता है। यह माँस जितना ही सड़ जाता है और जितने ही अधिक उसमें कीड़े पड़कर रेंगने लगते हैं, उतना ही अधिक वह उपयोगी समझा जाता है। अंगरेज़ों में उस पक्षी के मांस को खाने में स्वाद अनुभव किया जाता है, जो सड़ने लगता है। उनका विश्वास है कि सड़ने पर उसमें जो उपयोगिता पैदा हो जाती है, वह सड़ने के पूर्व उसमें नहीं होती। वहाँ पर आज भी ऐसी बहुत-सी जातियाँ पाई जाती हैं, जो रेगने वाले कीड़े-मकोड़ों को बड़े स्वाद और शौक के साथ खाती हैं।
यह मानव समाज और ये उनके भोजन जिसकी यह अवस्था हो, वह यदि स्वास्थ्य और शक्ति के लिए रोये तो आश्चर्य ही क्या है। हमारे देश में भी इससे कम आश्चर्य के भोजन नहीं पाए जाते। यदि इतने भयंकर अस्वाभाविक भोजन नही हैं, तो किसी प्रकार इनसे मिलते-जुलते हैं। जो लोग इसको अस्वीकार करें अथवा बिगड़ें, यदि उनको एक-एक बात सुनाई जांए, तो फिर उनको मालूम हो कि इस अध्यात्म-प्रिय देश की आज क्या अवस्था है।

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