जीवन-शक्ति क्या है?

 

जीवन-शक्ति क्या है?

रेलगाड़ी को छोटे और बड़े-सभी जानते हैं, यदि उसके सम्बन्ध में प्रश्न किया जांए, कि रेलगाड़ी की शक्ति क्या है ? तो प्रायः सभी लोग संदिग्ध हो उठेंगे। वे सोचने लगेंगे, रेलगाड़ी की शक्ति क्या हो सकती है। यदि इस प्रश्न के स्थान पर पूछा जांए, कि रेलगाड़ी क्या खाती है। तो सभी लोग कह उठेंगे कि कोयला और पानी। अब प्रश्न यह है, कि यदि उसको कोयला और पानी न दिया जांए तो? सभी लोग कहेंगे, तो वह फिर चल न सकेगी। इस प्रकार, रेलगाड़ी की शक्ति क्या है। इस प्रश्न का उत्तर निकला, उसका भोजन कोयला और पानी। यदि उसका भोजन उसको न दिया जांए, तो रेलगाड़ी में न तो शक्ति है और न उसमें कोई पुरुषार्थ है। उसका भोजन ही उसकी शक्ति है। उसकी खुराक ही उसका पुरुषार्थ है। ठीक यही अवस्था हमारे जीवन की है।

जीवन-शक्ति क्या है?


हममें से प्रत्येक व्यक्ति भोजन करता है। छोटे और बड़े सभी को अपनी अवस्था के अनुकूल भोजन की आवश्यकता होती है। जिस दिन बालक पैदा होता है, पैदा होने के साथ ही उसको भूख की व्यथा होती है। जो कुछ वह खाता है, उसी से उसमें चैतन्य शक्ति उत्पन्न होती है। इस बात से यह स्पष्ट होता है, कि हमारी जीवन-शक्ति हमारा भोजन है। परन्तु वह भोजन क्या है, इस बात के जानने की आवश्यकता है। रेलगाड़ी को खाने के लिए कोयला और पानी दिया जाता है, किन्तु यह प्रश्न यही हल नहीं हो जाता। वह कोयला,कौन-सा हो सकता है। यह जानने की आवश्यकता होती है। कोई भी कोयला, उसको आवश्यक रूप में शक्ति और सहायता नहीं पहुंचा सकता और इसीलिए प्रत्येक कोयला उसमें प्रयोग नहीं किया जाता। इस बात को सभी जानते हैं, कि रेलगाड़ी के इंजन में पत्थर का कोयला लगता है। यदि उसमें इसके स्थान पर साधारण और असाधारण लकड़ी का कोयला प्रयोग किया जांए, तो इंजन, रेलगाड़ी के संचालन में अनेक व्याधियों को अनुभव करेगा।

यही अवस्था हमारे जीवन की भी है। हमको भोजन की आवश्यकता तो है ही, परन्तु हमारे लिए क्या भोजन हो सकता है। हमारी खुराक क्या है, यह एक अलग प्रश्न है। यह प्रश्न इतना साधारण नहीं है, जितना लोग समझ लेते हैं और न इतना अनावश्यक है, जितना प्रायः लोग अनुभव करते हैं।

   हमारे जीवन का सारा सुख और दुःख, हमारे शरीर के स्वास्थ्य और पुरुषार्थ पर निर्भर है। जो जितना ही स्वस्थ और पुरुषार्थी है, उतना ही वह सुखी और सन्तुष्ट है। रुपया-पैसा, धन-दौलत, आदि संसार की समस्त विभूतियाँ अस्वस्थ और पुरुषार्थ होन को सुखी नहीं बना सकती। इसलिए इस विषय का जानना और उसकी विवेचना करना जितना आवश्यक है, उतना आवश्यक और कोई भी विवेचन नहीं हो सकता। हमारा भोजन क्या है। इसके सम्बन्ध में आगे चलकर स्वतन्त्र रूप से विवेचन किया जाएगा, किन्तु यहाँ पर केवल यह बता देना बहुत आवश्यक है कि समाज में इस प्रकार के मनुष्य बहुत कम मिलेंगे, जिनको अपने भोजन का यथोचित ज्ञान हो।

   समाज की इस अवस्था का कारण क्या है ? यह प्रश्न हमारे सामने है और बहुत आवश्यक है। प्राकृति ने संसार के समस्त प्राणियों को इस प्रकार का ज्ञान प्रदान किया है, जिससे किसी भी प्राणी को अपने भोजन का ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी से शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती। यह सड होने पर भी मनुष्य को यह जानने की आवश्यकता है, कि हमारा वास्तविक भोजन क्या है। सभी लोग यह पढ़कर विस्मित होंगे, कि जिस ज्ञान की आवश्यकता संसार में किसी भी प्राणी को नहीं है, उसकी आवश्यकता मनुष्य-जाति को क्यों है ? उनका ऐसा सोचना आश्चर्यजनक नहीं है। इसलिए कि जो ऐसा सोचेंगे, वे तो यही जानते हैं, कि मनुष्य तो समस्त प्राणियों की अपेक्षा ज्ञान सम्पन्न है, फिर उसको किसी बात के जानने की आवश्यकता क्या है और विशेषकर, उन बातों के लिए, जिनको सभी प्राणी, स्वभावतः जानते और जिनके सम्बन्ध की जानकारी रखते हैं।

   यह सब ठीक होते हुए भी बात कुछ और है। जिन बातों का ज्ञान प्रकृति ने स्वभावतः समस्त प्राणियों को प्रदान किया है। उनसे मनुष्य जाति किसी प्रकार वंचित नहीं रखी गई, किन्तु  मनुष्य-जाति ने स्वयं अपने आपको उन जानकारियों से वंचित कर रखा है। यह सुनकर किसी को आश्चर्य न करना चाहिए। मनुष्य वंचित हुआ है, सभ्यता के प्रमाद में, अप्राकृतिक उन्माद में। यह प्रमाद और उन्माद क्या है। यहाँ पर इसके
सम्बन्ध में कुछ लिखना आवश्यक है।

   मानव समाज की सभ्यता का विकास, प्रकृति के विरुद् हुआ है। इस बात को संसार के प्रायः सभी महान पुरुष स्वीकार करते हैं, किन्तु इसके सम्बन्ध में हमें यहाँ पर किसी प्रकार की विवेचना नहीं करनी है और यदि करें, तो वह यहाँ पर अप्रासंगिक होगी। बताना केवल यह है, कि उस अप्राकृतिक सभ्यता के विकास में, मनुष्य अपने नैसर्गिक गुणों को भी भूल बैठा है। यह किसी प्रकार अस्वीकार नहीं किया जा सकता। प्राणविज्ञान-विशारदों ने भिन्न-भिन्न प्राणियों के सम्बन्ध में जो अनुभव किया है, उनका कहना है कि सृष्टि के सभी प्राणियों को अपने जीवन की आवश्यक बातों का स्वभावतः ज्ञान होता है। जिस प्राणि का जो भोजन होता है, वह उसके अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को नहीं खाता और सूंघ कर छोड़ देता है। 

   प्राणि-विज्ञान ने यह साबित किया है, कि सभी प्राणियों की सभी बातें- उनका खाना-पीना, जीवन का व्यवहार-बर्ताव, रहन-सहन, एक-सा नहीं होता। किसी एक प्राणी का जो आहार हो सकता है, दूसरा प्राणी उससे भिन्न पाया जाता है। यह विभिन्नता बहुत विस्तार के रूप में पायी जाती है। आश्चर्य की बात तो यह है, कि सभी को अपनी-अपनी इन बातों का यथोचित ज्ञान होता है। प्रकृति ने इन प्राणियों की नाक में घाणशक्ति की एक विशेषता प्रदान की है, जिसके द्वारा वे सभी अपना-अपना भोजन-पदार्थ पहचान लेते हैं। जो पदार्थ उनके खाने के नही होते उनको वे केवल सूंघकर छोड़ देते हैं। इस प्रकार की बातें, भिन्न-भिन्न प्राणियों के जीवन का थोड़ा-सा भी अध्ययन करने से जानी जा सकती हैं।

   संसार में खाने के क्या-क्या पदार्थ हो सकते हैं और वे कितने हो सकते हैं, यह बताना असम्भव है। मिट्टी, लकड़ी, फल, पत्ती, माँस, मदिरा, दूध, घी, आदि संसार में जितने भी पदार्थ देखने में आ सकते हैं, वे सभी किसी न किसी प्राणी के भोजन में प्रयोग किये जाते हैं। इनमें से किसी के सम्बन्ध में भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह उत्तम है, वह खराब है, वह शक्ति-वर्द्धक है और वह हानिकारक है। वास्तव में जो जिसका भोज्य पदार्थ है, वह उसी के लिए हितकर, शक्तिवर्द्धक और लाभकारक है। निरर्थक पदार्थों में सब से अधिक मिट्टी ही मानी जा सकती है, किन्तु वह मिट्टी कितने ही प्राणियों और जीवों का भोज्य पदार्थ है और उसी से उनको जीवन प्राप्त होता है। घृत अमृत पदार्थों में गिना जाता है, किन्तु उसकी गंध मात्र से कितने ही जीवों की मृत्यु होती है। इसीलिए कोई एक पदार्थ, सभी के लिए उत्तम और सभी के लिए ख़राब नहीं हो सकता।

   यहाँ पर बताना यह था, कि अपने नैसर्गिक गुणों के भूल जाने के कारण, मनुष्य-जाति अपने भोजनों की व्यवस्था को भी भुला बैठी है। यह ऊपर बताया जा चुका है, कि इस प्रकार का ज्ञान प्रकृति ने स्वभावतः सब को प्रदान किया है। उन समस्त नैसर्गिक गुणों के मानव जाति से अन्तर्हित हो जाने का कारण यह है, कि मनुष्य,अपने जीवन में विकास की ओर आगे बढ़ रहा है। वह जो कुछ जानता है, उसी पर उसे सन्तोष नहीं है। जो शक्तियां उसमें विद्यमान हैं, उन्हीं को वह अपने लिए पर्याप्त नहीं समझता। 

   इन बातों को लेकर उसने अपने जीवन में इतना उलट-पलट कर डाला है, जिससे यह प्राकृतिक जीवन से बहुत दूर हो गया है और अनेक बातों में उसने अपने नैसर्गिक गुणों और पुरुषार्थों को खो दिया है। विषयान्तर हो जाने के डर से अधिक विस्तार में न जाकर, यदि भोजन के सम्बन्ध में ही विचार किया जांए, तो इन बातों का स्पष्टीकरण हो जाता है। माँस-मदिरा से मनुष्य को स्वाभाविक अरुचि और घृणा होती है। जिन परिवारों में माँस खाया जाता है, उन परिवारों के बालक व बालिकाएँ और स्त्रियाँ असामान्य रूप से उसका विरोध करती हैं और अपनी घृणा का असाधारण परिचय देती हैं। 

इन अरुचि और घृणा रखने वालों में से ही कुछ आगे चलकर इन घृण्य वस्तुओं का उपयोग करना सीखते हैं। जो पदार्थ जिन प्राणियों के भोजन होते हैं, प्रत्येक अवस्था में उनको उनके खाने का ज्ञान होता है। किसी भी प्राणी के छोटे-छोटे बच्चों के आगे जब वे पदार्थ डाल दिए जाते हैं, जिनको वे खा सकते हैं। तो वे तुरन्त खा जाते हैं और जब उनको भोज्य पदार्थों के विरुद्ध कोई चीज़ खाने को दी जाती है, तो वे उसको सूंघकर छोड़ देते हैं। ये बातें पशुओं, पक्षियों, जानवरों और भिन्न-भिन्न प्राणियों में असाधारण रूप से पायी जाती हैं। मनुष्य जिन पदार्थों के खाने का स्वाभाविक अभ्यासी नहीं होता, वे पदार्थ वास्तव में उसके लिए भोजन नहीं होते। 

   परन्तु वह उनके खाने का अभ्यासी बनता है। इसका परिणाम, वही होता है, जो कुछ होना चाहिए। इन बातों के पुष्टिकरण' में एक बात का स्मरण दिलाना आवश्यक जान पड़ता है। समाज में छोटे और बड़े, नीच और ऊँच सभी लोग सुनते हैं, अनुभव करते हैं और जानते हैं कि उनके पूर्वज शारीरिक शक्ति और स्वास्थ्य में उनसे बहुत आगे थे और यही बात वे पूर्वज भी अपने पूर्वजों के सम्बन्ध में समझते और जानते थे। समाज की इस धारणा का यह अर्थ है, कि मनुष्य का शारीरिक स्वास्थ्य और पुरुषार्थ उत्तरोत्तर नष्ट हो रहा है और इस अभाव का गम्भीर सम्पर्क हमारी सभ्यता से है। जितना ही हम प्राकृतिक जीवन के औचित्य से दूर होते जाते हैं, उतना ही हम में स्वास्थ्य और पुरुषार्थ का प्रभाव होता जाता है।

   ऊपर यह बताया जा चुका है, कि हमको भोजन की आवश्यकता है, भोजन ही हमारी जीवन-शक्ति है, भोजन ही हमारा चल है और वही हमारा पुरुषार्थ है। यदि हमें भोजन न मिले, तो हम किसी प्रकार जीवित नहीं रह सकते। इसी प्रकार हमको यह भी जानने की ज़रूरत है, कि हमारा भोजन वास्तव में क्या है। भोजन का प्रश्न प्रत्येक प्राणी के लिए इतना साधारण और व्यापक है कि उसके सम्बन्ध में उसको कोई बात अज्ञेय नहीं मालूम होती। वास्तव में अज्ञेय होना भी न चाहिए और इसीलिए साधारणतया कोई भी व्यक्ति इसके सम्बन्ध की बातें जानने के लिए कुतूहल नहीं हुआ करता। किन्तु मनुष्य जीवन-पथ से इतना विपथ हो चुका है, जिसकी कोई सीमा नहीं है। इसीलिए उसको इन बातों को विशेष रूप से जानने की आवश्यकता है।

   इस विषय पर संसार के विभिन्न देशीय विद्वानों ने समय-समय पर बहुत कुछ विचार किया है और समाज की वर्तमान अवस्था पर बहुत असन्तोष अनुभव किया है। इस दुरावस्था के मिटाने के लिए बहुत कुछ प्रयत्न किया है। मनुष्य-जाति का वास्तविक आहार क्या है। इसके सम्बन्ध में एक-एक बात पर यहाँ भली-भाँति विवेचन किया जाएगा।

   इस शीर्षक की पंक्तियों में केवल यह बताना था, कि हमें अपनी जीवन-शक्ति के लिए भोजन की आवश्यकता है और हमारा भोजन क्या है, यह सब जानने की आवश्यकता है। इसके आगे चलकर जो विवेचना की जाएगी, वह इस विषय के एक-एक अंग को पृथक-पृथक स्पष्ट करेगी। इस प्रकार का यथावत् ज्ञान होने पर ही हम अपनी जीवन-शक्ति की यथेष्ट रूप में रक्षा कर सकेंगे, अन्यथा रोग-शोकपूर्ण  संसार का कटु अनुभव लेकर एक दिन असमय यहाँ से विदा हो जाना पड़ेगा। जीवन का सुख तो जीवन को भली भांति समझ सकने पर ही मिल सकता है।


जीवन-शक्ति क्या है? जीवन-शक्ति क्या है? Reviewed by Tarun Baveja on August 11, 2021 Rating: 5

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