फलाहार क्यों सर्वोत्तम है ?
भोजन के प्रत्येक पदार्थ की वैज्ञानिक विवेचना मनुष्य के खाने-पीने के सम्बन्ध में पिछले पृष्ठों में यथास्थान कुछ बातें बताई गई हैं, किन्तु उनका क्रम और उचित उपयोग अभी तक नहीं बताया गया। यहाँ पर भोजन की वैज्ञानिक विवेचना करके यह निश्चय करना है, कि मनुष्य के अन्य भोजनों की अपेक्षा फलों का सेवन क्यों सर्वोत्तम है ।
प्रारम्भ में मनुष्य के शरीर की उपमा रेलगाड़ी के इंजन के साथ दी जा चुकी है। मनुष्य के शरीर-यंत्र को सुगमता समझने के लिए यहाँ पर फिर उसी इंजन का आश्रय लिया जाता है। इंजन जब काम करता है, तो उसके पहले ही उसमें गर्मी उत्पन्न करने की आवश्यकता होती है। जिसके लिए उसमें कोयला और पानी का प्रयोग किया जाता है। दूसरी बात उसके काम करने से कल और पुर्जे-सभी छोटे और बड़े घिसते रहते हैं, इसके लिए ऐसी चीज़ों का प्रयोग करना पड़ता है। जिनसे उनकी मरम्मत होती रहती है। तीसरे उसके कल-पुर्ज़ों को सहज ही गतिमान बनाने के लिए तेल की आवश्यकता पड़ती है।

मनुष्य के शरीर में पेट इंजन है, इस इंजन के द्वारा ही सारे शरीर का काम होता है। पेट में जो भोजन पहुंचता है, उसकी गर्मी शरीर में शक्ति, उत्तेजना उत्पन्न करती है और इस अवस्था में ही शरीर कार्य करने के योग्य होता है। इसके बाद, कार्य करने से शरीर के अंग प्रत्यंग जो घिसते रहते हैं और आगे के लिए अपनी शक्ति का ह्रास करते हैं, उसको पूर्ण करने के लिए हमें आवश्यकता होती है। तीसरी बात, जिस प्रकार इंजन के कल-पुर्ज़ों के लिए तेलक्षअथवा चिकनई की ज़रूरत होती है। उसी प्रकार हमारे शरीर के लिए भी ज़रूरत होती है, इन तीन बातों के लिए हमें शरीर का प्रबन्ध करना पड़ता है। शरीर की ये तीनों आवश्यकताएँ हमारे भोजन से ही पूर्ण होती हैं। इसलिए हमें उस भोजन की आवश्यकता होती है, जिससे हमारे शरीर की ये तीनों आवश्यकताएं पूर्ण हो सके।
हमारे शरीर की इन तीन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किन-किन वस्तुओं की आवश्यकता है, इस बात काहनिश्चय करके हमें आगे बढ़ना चाहिए। उन आवश्यकताओं में सबसे पहले और सबसे अधिक पानी की आवश्यकता होती है। काम के कारण शरीर के अंग-प्रत्यंगों को जो क्षति पहुंचती है, उसको दूर करने के लिए पानी ही उपयोगी होता है। इसकेहपश्चात् शरीर मे शक्ति उत्पन्न करने के लिए जिन तत्वो की आवश्यकता होती है। उसको डॉक्टरी में प्रोटीन कहते हैं। यह प्रोटीन वास्तव में नाइट्रोजन है, जो अंडे की सफेदी, दूध कीहसफेदी और गेहूँ के लवाव आदि में मिलता है। तीसरी आवश्यकता नमक की है, इसके द्वारा शरीर के अधयों को अनेक प्रकार की सहायता मिलती है। इसके साथ ही उन तत्वों की भी आवश्यकता होती है, जो तेल तथा चीनी का
अंश पैदा करते हैं।
शरीर की इन तीन प्रकार की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए चार प्रकार के तत्वों की जरूरत पड़ती है। पानी, प्रोटीन, नमक और तेल-चीनी। ये चार प्रकार के तत्व प्राप्त करने के लिए हमें भोजन की आवश्यकता है। इस विवेचना से स्पष्ट रूप से मालूम हो जाता है, कि मनुष्य का भोजन वही है, जो इन तत्वों को प्रदान कर सकता है। इन तत्वों के प्रदान करने वाले भोज्य पदार्थो के सम्बन्ध में, आगे चलकर अलग-अलग विश्लेपण किया जाएगा। किन्तु उसके पहले इन तत्वों के सम्बन्ध में कुछ बातों का और लिख देना आवश्यक जान
पड़ता है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, आहार में पानी की सबसे अधिक परिमाण में आवश्यकता है। शरीर-विज्ञान के विद्वानों ने निश्चय किया है, कि शरीर में पानी का अंश इकहत्तर प्रतिशत है। शेष उन्तीस फीसदी में बाकी वस्तुएँ हैं। इससे ज़ाहिर होता है, कि पानी शरीर के लिए कितना आवश्यक है। इसके बाद प्रोटीन की आवश्यकता होती है। प्रोटीन हो शरीर में शक्ति और पुरुषार्थ उत्पन्न करता है। जिन भोजनपदार्थो में इसकी कमी होती है, उनके खाने से मनुष्य की शक्ति दिन पर दिन क्षीण होती जाती है। जिनको इस बात का ज्ञान नहीं होता और ज्ञान न होने से, बिना इस बात को समझे बूझे जो लोग भोजन खाया करते हैं, वे अपनी समझ में भोजन करते हैं और संतोषजनक परिमाण में करते हैं, परन्तु उससे उनको यह लाभ नही होता, जो वास्तव में उनको होना चाहिए। इसका फल यह होता है, कि खाते-पीते रहने पर भी शरीर की शक्ति क्षीण होती जाती है और उनके शरीर का पुरुषार्थ, अव्यक्तरूप से अदृश्य होता जाता है।
शरीर-शास्त्र के विद्वानों ने इस प्रोटीन को कितना अधिक महत्व दिया है, इसको प्रकट करने के लिए कुछ सम्मतियाँ दे देना यहाँ पर आवश्यक है। प्रोटीन की उपयोगिता और शरीर में उसकी आवश्यकता का अनुभव करते हुए एक विद्वान ने
लिखा है --
"हमारे शरीर के लिए प्रोटीन बहुत आवश्यक है, नित्य के कार्यों में जो शक्ति हमारी व्यय होती है, उसको हम प्रोटीन के द्वारा प्राप्त करते हैं। इसलिए यदि यह कहा जांए, तो अनुचित न होगा कि प्रोटीन, हमारी जीवन-शक्ति है। शरीर के लिए आवश्यक इन तत्वों से लाभ उठाकर जीवन न केवल सुख के साथ बिताया जा सकता है, वरन् मनुष्य बहुत दिनों तक जीवित रह सकता है।"
शरीर विज्ञान के एक प्रोफेसर साहब ने लिखा है, कि "प्रोटीन हमारे शरीर के लिए बहुत आवश्यक है, इसलिए जिन पदार्थों में यह प्रोटीन अधिक पाया जाता है, वही वास्तव में हमारे खाने के पदार्थ हैं, जिनमें प्रोटीन की मात्रा नहीं होती, उनका खाना, शरीर के लाभ के लिए व्यर्थ है।"
प्रोटीन की आवश्यकता पर भिन्न-भिन्न लोगों ने विभिन्न रूप से अनुभव किया है, और प्रत्येक अवस्था में लोगों ने इसको शरीर के लिए आवश्यक पाया है। एक डॉक्टर साहब ने लिखा है- शरीर में जिन तत्वों की आवश्यकता होती है, उनमें प्रोटीन सबसें अधिक आवश्यक और उपयोगी है। हम नमक के बिना काम चला सकते हैं, परन्तु प्रोटीन के बिना तो हमारा जीवन ही निकम्मा और मुर्दा हो जाता है। प्रोटीन हमारे लिए बहुत आवश्यक है। उसके बिना हमारा काम चल सकना असम्भव है।
इन सम्मतियों से पता चलता है, कि हमारे शरीर को शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए जिस तत्व की आवश्यकता होती है, वह प्रोटीन है और यह किस प्रकार हमारे लिए आवश्यक है। यह तो निश्चय हो गया, कि पानी के अतिरिक प्रोटीन, तेल, चीनी और नमक की ज़रूरत है। परन्तु इन तत्वों का कितना-कितना परिमाण हमारे लिए आवश्यक है। क्योंकि उसका परिमाण अलग-अलग न मालूम होने से कौन भोजन कितना हमारे लिए आवश्यक है, इसका क्रम समझना कठिन है। इसलिए इन तत्वों का कितना किसका परिमाण हमारे भोजन में होना चाहिए, इसके सम्बन्ध में शरीर-शास्त्र के सभी विद्वानों और डॉक्टरों ने जिसे स्वीकार किया है, उसी के आधार पर यहाँ उल्लेख किया जाता है। मि० ड्यूलो नामक एक प्रसिद्ध विद्वान ने लिखा है, कि एक साधारण आदमी को अपने शरीर की रक्षा के
लिए, इस प्रकार के पदार्थों का प्रतिदिन भोजन करना चाहिए। जिनमें उसे सामान्यतः प्रोटीन साढ़े चार औंल, चिकनाई तीन औंस, चीनी चौदह औंस और नमक एक औंस प्राप्त हो सके। इस प्रकार रोज एक साधारण मनुष्य को अपने भोजनों से साढ़े बाईस औंस इन तत्वों का मिलना चाहिए। जिससे वह सदा शक्तिशाली, नीरोग और अधिक आयु वाला हो सकेगा।
अब, हमें मनुष्य के वर्तमान भोजन के पदार्थों पर
विचार करना चाहिए और हिसाब लगाना चाहिये कि उनमें कितना अंश किसका पाया जाता है। इसके लिए पहले हमें जानना चाहिए, कि आजकल भोजन दो प्रकार से प्राप्त किये जाते हैं, वानस्पतिक और पाशविक। वानस्पतिक वे हैं, जो हमको वनस्पति से प्राप्त होते हैं और पाशविक वे हैं, जो हमको पशुओं से प्राप्त होते हैं। वनस्पति के द्वारा प्राप्त होने वाले पदार्थ इस प्रकार हैं --
अनाज- गेहूँ, जौ, मकाई, चना, चावल, ज्वार और बाजरा आदि।
दाल- मटर, चना, सेम, उरद, मूंग आदि ।
सब्जी-तरकारी- आलू, प्याज, गोभी, गाजर टमाटर, मूली, शलजम आदि।
फल- बादाम, सेब, नास्पाती, केला, अंगूर, अंजीर, खजूर, मेवा, नारंगी और खूबानी आदि।
* पाशविक भोजन- मांस, मछली, पनीर, चेड, चूज़ा, गाय का मांस, भेड़, चकरी, सुअर का मांस और दूध आदि ।
इन पदार्थों में से ही भिन्न-भिन्न प्रकार के खाने के सामान तैयार होते हैं। इन सब के साथ नमक का प्रयोग होता है। नमक वास्तव में न तो वानस्पतिक है और न पाशविक। वह तो खनिज पदार्थों में से है, जो पृथ्वी से हमको प्राप्त होता है। इस नमक के अतिरिक्त, खनिज पदार्थों में और कोई भी पदार्थ हमारे खाने के उपयोग में नहीं आता। कुछ लोगों का यह भी मत है, कि खनिज पदार्थ कोई भी हमारे खाने के प्रयोग में नहीं आने चाहिए। इसी आधार पर वे नमक का भी विरोध करते हैं। इस विरोध में वे लोग न केवल एक आग्रह उपस्थित करते हैं, वरन् अनेक प्रकार से उसे हानिकारक और व्यर्थ प्रमाणित करते हैं। यहाँ पर महात्मा गाँधी की एक बात विशेष रूप से लिखने के योग्य है। महात्मा जी स्वंय नमक के विरोधियों में हैं।
एक समय की बात है, उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कस्तूरी बाई किसी बीमारी से परेशान थीं। बाई जी ने उस बीमारी की चिकित्सा करने की भावना से महात्मा जी से बीमारी के सम्बन्ध में बातें की। महात्मा जी ने कुछ सोचकर किसी चिकित्सा आदि की तो व्यवस्था न की और बाई जी से कहा कि तुम नमक खाना छोड़ दो। महात्मा जी की इस बात पर बाई जी को संतोष न हुआ, उन्होंने समझा कि महात्मा जी उनसे हँसी कर रहे हैं, बाई जी ने यह भी समझा, कि नमक भला कैसे छोड़ा जा सकता है। जब कि मनुष्य के खाने के लिए सभी प्रकार के भोजन बिना नमक के नहीं बन सकते। उन्होंने महात्मा जी से कहा-"नमक खाना तुम्ही छोड़ दो।" महात्मा जी ने मुस्करा कर स्वीकार कर लिया, बाई जी की बात पर महात्मा जी ने नमक का प्रयोग छोड़ दिया और अनेकों वर्षो तक उन्होंने नमक खाना छोड़ दिया।
नमक हमारे लिए हानिकारक है अथवा लाभकारक। यह विवेचना करना इस लेख का अभिप्रायः नही है। खनिज पदार्थों के साथ नमक का भी लोग विरोध करते हैं, केवल इतना हो यहाँ पर प्रदर्शन करना मन्तव्य था। ऊपर की पंक्तियों में वानस्पनिक और पाशविक जो दो प्रकार के पदार्थ गिनाए गये हैं, उनमें किसमें, कितना भोजन का अंश होता है। इसको ठीक-ठीक प्रदर्शित करने के लिए एक छोटे से नकशे में उनका निम्नलिखित विवरण दिया जाता है और बताया जाता है कि उनमें से किस में किस-किस तत्व का कितना-कितना अंश पाया जाता है।
यह पहले ही बताया जा चुका है, कि हमको भोजन से ही जीवन-शक्ति प्राप्त होती है। वह जीवनशक्ति प्रोटीन, चिकनाई, चीनी और नमक है। ये चारों ही तत्व मिलकर हमारे शरीर के लिए जीवन शक्ति प्रदान करते हैं। हमें अपने प्रतिदिन के जीवन के लिए ये चारों वस्तुएँ २२३ औंस के परिमाण में मिलनी चाहिए अर्थात् ४३ औंस प्रोटीन, ३ औंस चिकनाई, १४ औंस चीनी व मैदा और १ औंस नमक । अब यह समझाने की आवश्यकता नहीं है, कि हमारा वही भोजन है। जिसमें ये चारों वस्तुएं हमारे शरीर के लिए प्राप्त होती हैं, कि कौन पदार्थ अपने भीतर कितना-कितना अंश, उन वस्तुओं का रखता है।
मांसाहारी मनुष्यों को भली-भाँति यह समझने की आवश्यकता है, कि वे जो भोजन पशुओं से प्राप्त करते हैं। उनमें दूध को छोड़कर कोई ऐसा नहीं है, जो मनुष्य को भोजनांश देने में पूर्णरूप से समर्थ हो। मांस-भोजन में प्रोटीन होता है, नमक होता है और तेल का अंश भी होता है। परन्तु उनमें चीनी और मैदा का अंश बिल्कुल नहीं होता। अब यह बात विचारणीय है, कि प्रोटीन, तेल और नमक ही मिलकर क्या हमारे शरीर को सृष्ट-पुष्ट और शक्तिशाली बना रख सकते हैं। यहाँ पर भोजन के सम्बन्ध में किसी धार्मिक विवेचना से काम नहीं लिया जा रहा और न किसी धार्मिक बात की आड़ लेकर यही कहा जा रहा है, कि मांस और मछली खाना हमारे लिए धर्म-विरुद्ध है, इसलिए वह हानिकारक है।
भोजन का वैज्ञानिक विवेचन क्या है और विज्ञान के सामुदायिक अनुसन्धान के आधार पर नक्शा स्पष्ट प्रकट करता है, कि किस पदार्थ में किसका, कितना अंश होता है। यह पहले ही बताया जा चुका है कि हमको भोजन से ही जीवन-शक्ति प्राप्त होती है। वह जीवनशक्ति प्रोटीन, चिकनाई, चीनी और नमक है। ये चारों ही तत्व मिलकर हमारे शरीर के लिए जीवन शक्ति प्रदान करते हैं। हमें अपने प्रतिदिन के जीवन के लिए ये चारों वस्तुएँ २२३ औंस के परिमाण में मिलनी चाहिए अर्थात् ४३ औंस प्रोटीन, ३ औंस चिकनाई, १४ औंस चीनी व मैदा और १ औंस नमक। अब यह समझाने की आवश्यकता नहीं है, कि हमारा वही भोजन है, जिसमें ये चारों वस्तुएं हमारे शरीर के लिए प्राप्त होती हैं और ऊपर के नक्शे में यह विदित हो जाता है, कि कौन पदार्थ अपने भीतर कितना-कितना अंश, उन वस्तुओं
का रखता है।
मांसाहारी मनुष्यों को भली-भाँति यह समझने की आवश्यकता है, कि वे जो भोजन पशुओं से प्राप्त करते हैं, उनमें दूध को छोड़कर कोई ऐसा नहीं है, जो मनुष्य को भोजनांश देने में पूर्णरूप से समर्थ हो। मांस-भोजन में प्रोटीन होता है, नमक होता है और तेल का अंश भी होता है। परन्तु उनमें चीनी और मैदा का अंश बिल्कुल नहीं होता। अब यह बात विचारणीय है, कि प्रोटीन, तेल और नमक ही मिलकर क्या हमारे शरीर को सृष्ट-पुष्ट और शक्तिशाली बना रख सकते हैं। यहाँ पर भोजन के सम्बन्ध में किसी धार्मिक विवेचना से काम नहीं लिया जा रहा और न किसी धार्मिक बात की आड़ लेकर यही कहा जा रहा है, कि मांस और मछली खाना हमारे लिए धर्म-विरुद्ध है, इसलिए वह हानिकारक है। भोजन का वैज्ञानिक विवेचन क्या है और विज्ञान के सामुदायिक अनुसन्धान के आधार पर हमें क्या खाना चाहिए क्या नहीं, इस विवेचना के बाद भी उसको सोचने-विचारने और संसार में आँखे खोल कर देखने की आवश्यकता है।
समाज के स्त्री-पुरुषों और बच्चों के स्वास्थ्य, उनकी शक्ति और आरोग्यता को, इस विवेचना की
परीक्षा द्वारा आज़माने की ज़रूरत है। इस प्रकार की पूरी छानबीन के साथ हमें अंत में निश्चय करना चाहिए, कि हमारा वास्तविक भोजन क्या है और यह हमारे सुख, स्वास्थ्य बल-पौरुष की किस प्रकार रक्षा करके हमें बहुत दिन तक जीवित रख सकता है। इसलिए कि समाज में यह समझने वालों की कमी नहीं है, जो समझते हैं कि हमारी आयु तो ईश्वर के घर से निश्चित है। यह बात ग़लत है और इस प्रकार की धारणा रखने वालों को यह जान लेना चाहिए, कि हमारा जीवन हमारे ही हाथों में है। जो लोग सदा रोगी और अस्वस्थ रहा करते हैं, उनकी जीवन-शक्ति, धीरे-धीरे क्षीण होती रहती है और अन्य जनों की अपेक्षा उनका जीवन बहुत थोड़ा हुआ करता है। जो जितना ही रोगी है, उतनी ही उसकी अवस्था छोटी है, जो जितना ही स्वस्थ और आरोग्य है, वह उतनी ही अधिक अपनी अवस्था रखता है। यह सब लोगों को ध्यानपूर्वक समझ लेना चाहिए और किसी प्रकार के भ्रम और ग़लत विचारों में पड़कर, अपने हाथों, अपना जीवन नष्ट न करना चाहिए।
हमारे शरीर के लिए प्रोटीन तेल, चीनी और नमक का जो क्रम ऊपर बताया गया है, उसी क्रम से उनकी आवश्यकता होती है। यदि उनमें कोई भी एक न मिले तो समझ लेना चाहिए, कि हमारे शरीर में कोई न कोई व्यतिक्रम पैदा होना चाहता है। किसी मकान में चार कोने हैं और चारों कोनों पर सुदृढ़ चार स्तम्भ हैं, जब तक वे चारों स्तम्भ ठीक ढंग से अपना काम करते हैं, तब तक मकान को सुदृढ़ और स्थायी समझना चाहिए और जब उन चार स्तम्भों में एक भी स्तम्भ ढीला पड़ जाएगा अथवा गिर जाएगा। तो मकान का सुदृढ़ रहना कठिन ही नही, असम्भव हो जाएगा। यही अवस्था हमारे शरीर की भी है।
जिन चार प्रकार के तत्वों से हमारे शरीर को जीवन-शक्ति प्राप्त होती है, उन चारों का अपने-अपने क्रम से होना बहुत आवश्यक है। जब उनके क्रम में अन्तर पड़ेगा अथवा उन चार में से एक भी मनुष्य को न प्राप्त होगा, तो शेष तीन मिलने वाले, उसके जीवन को जीवन-शक्ति नहीं पहुँचा सकते। इस हिसाब से, यह समझने में किसी को भी अब कठिनाई नही हो सकती, कि मांस और अंडे मनुष्य को जीवन-शक्ति प्रदान करने का सामान नहीं रखते। यही कारण है, कि मांस और अंडे भोज्य पदार्थों में निन्दनीय कहे जाते हैं। * अब प्रश्न यह है, कि हमारे शरीर को जीवन-शक्ति प्रदान करने वाले कौन-से आहार और किन पदार्थों में हो सकते है ?
इसके लिए उस नक्शे में एक बार देखकर विचार करना होगा। पाशविक भोजनों में, दूध के अतिरिक्त कोई भी हमारे लिए भोजन नहीं है, इसलिए कि जिन-जिन तत्वों की हमें आवश्यकता है, वे तत्व पूर्ण रूप में उनसे हमें प्राप्त नहीं होते। इसके पश्चात् हमारे सामने वानस्पतिक पदार्थ हैं। ये पदार्थ हमारे लिए भोजन हो सकते हैं। किन्तु वही, जो हमारे आमाशय के अनुकूल हो। हमारे अंग और प्रत्यंग जिनको खा सकें और पचा सकें।
वनस्पति पदार्थों में जो हमें रुचिकर और अपने अनुकूल प्रतीत हो और जिनको हम बिना पकाए बनाए, अपने दांतों से खाकर पचा सके, वही हमारे लिए सर्वोत्तम है। इसके लिए बिना अधिक सोचे-समझे और किसी प्रकार की उलझन का अनुभव किए, प्रत्येक व्यक्ति अब समझ सकेगा, कि हमारे लिए सब से योग्य, लाभदायक भोजन फलों का सेवन है। इन फलों के सम्बन्ध में एक छोटी-सी गलत धारणा यदि सर्व साधारण के विचारों से निकल जांए, तो फिर किसी को अपना स्वाभाविक भोजन अपनाने में और उससे लाभ उठाने में कुछ भी आपत्ति नहीं हो सकती। वह गलत धारणा यह है, कि लोगों की समझ में फलों के आहार से मनुष्य का क्या कभी पेट भर सकता है। उनकी समझ में फल इतने हल्के पदार्थ हैं, कि उनके सेवन से मनुष्य को पूरी न तो शक्ति ही प्राप्त हो सकती है और न उससे उसका पेट ही भर सकता है। जिन लोगों का यह विश्वास होता है, वे लोग वास्तव में इन बातों का कभी विवेचन नहीं करते और कदाचित् विवेचन की सामर्थ्य भी नहीं रखते। हमें अपने समाज में, खोजने पर बहुत से
ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जो फलों की शक्ति के सम्बन्ध में बहुत अच्छे उदाहरण ही नहीं हैं, उसका अनुभव भी रखते हैं।
प्राचीन काल में साधु सन्यासी, भोगी और तपस्वी फलाहार ही अपना भोजन समझते थे। उनके जीवन में कितना तेज़, कितना प्रताप और पुरुषार्थ होता था। यह कदाचित् किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। रामचन्द्र, लक्ष्मण और सीता को साथ लेकर जब वन को जाने लगे हैं, तब उन्होंने सीता को समझाया है, कि वन में जाकर चौदह वर्ष हमको केवल फलों का आहार करके रहना होगा, नदियों और झरनों का जल पीना होगा और पैदल चल कर रास्ता पार करना होगा। परन्तु रामचन्द्र की इस बात पर सीता को कोई स्वाभाविकता अथवा आश्चर्य की बात नहीं जान पड़ी।
अंत में तीनों हो जंगल को चले गए हैं और दस-पाँच दिन नहीं चौदह वर्ष, उसी फलाहार पर उन्होंने प्रसन्नता के साथ जीवन बिताया है और अंतिम दिनों में भीषण पराक्रमी लंकापति रावण और उसकी सेना-शक्ति का सामना किया है। रावण और उसकी सेना की शक्ति कितनी भयानक थी, यह यहाँ पर बताना, व्यर्थ ही है, कहने की बात यह है कि उसका सामना किया फलों का सुन्दर सात्विक भोजन करने वाले रामचन्द्र ने, लक्ष्मण ने और उस वानर-सेना ने जिनका फल एक मात्र भाजन होता है। हिन्दू-समाज को यह स्मरण दिलाने की आवश्यकता न होना चाहिए, कि उस भयानक युद्ध में फलों का भोजन करने वालों की कितनी सफलतापूर्ण विजय हुई थी।
भोजन-सम्बन्धी, सर्वसाधारण की भूल के सम्बन्ध में कितनी गवेषणा के साथ विचार हो रहा है। यह सभी को मालूम नहीं है। इस लेख में जो इसकी वैज्ञानिक छानबीन की गई है, वह कहाँ तक ठीक है। इस पर कुछ प्रसिद्ध विद्वानों और डॉक्टरों की यहाँ पर सम्मति देना आवश्यक प्रतीत होता है। डॉक्टर एलेक्स हेग का कहना है --
"इस बात के प्रमाण की ज़रूरत नहीं है, कि मनुष्य का सबसे उत्तम आहार फल है। मैंने अपने जीवन में इसका भली-भाँति अनुभव किया है और इस नतीजे पर मैं पहुंचा हूँ, कि फलों के सेवन से मनुष्य की आत्मा शुद्ध, बलवान श्रीर पवित्र रहती है।"
मि० एडेम स्मिथ ने लिखा है-"भोजन में मांस को सम्मिलित करना, शरीर को नष्ट करने के साथ अपने जीवन को जल्दी समाप्त करना है। मनुष्य का भोजन तो फल शाक-मात्र है।
डॉक्टर सर हेनरी टाम्लन का कहना है -- प्रकृति ने हमारे शरीर की रचना इस प्रकार की है, जिससे हम फल और वनस्पति को अपना आहार बना सकते हैं। हमारे शरीर के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता है, वे सब हमें फलों में ही प्राप्त होती है। मैंने ख़ूब देखा है, कि जो वानस्पतिक भोजन करते हैं और मांस-मछली से परहेज़ करते हैं, वे स्वस्थ, हष्ट पुष्ट तथा बलवान होते हैं।
डॉक्टर एफ० जे० साइफस का कहना है, जो लोग रसायन विद्या को फलाहार और शाकाहार के विरुद्ध समझते हैं, वे सख्त भूल करते हैं। वास्तव में रसायन का मूलाधार वनस्पति ही है। मनुष्य स्वाभाविक वनस्पति और उसके द्वारा फलों के योग्य बनाया गया है। यह मनुष्य की भूल है, जो
उसने अपना भोजन उसके विरुद्ध पदार्थों का बना रखा है।
डॉक्टर जानवुड एम० डी० का कहना है- एक डॉक्टर की हैसियत से बहुत दिनों तक मनुष्य के शरीर का अध्ययन करने के पश्चात् मैं कह सकता हूँ, कि मनुष्य का मांसाहार, अस्वाभाविक है और उसके शरीर के लिए बहुत हानिकारक। जो लोग उसका सेवन करते हैं, वे वास्तव में अनजान होते हैं, उनको मालूम नहीं होता कि इसके भोजन से उनके शरीर को क्या क्षति पहुंचेगी।
प्रोफेसर ए० विन्टर ब्लायथ ने लिखा है- मनुष्य शरीर का अध्ययन करने के पश्चात् किसी प्रकार समझ में नहीं आता कि मनुष्य का भोजन मांसाहार हो सकता है। उसके लिए तो फल और वनस्पति बनाई गई है।
डॉक्टर एडवर्ड स्मिथ ने बड़े जोरदार शब्दों में लिखा है- मनुष्य के शरीर के लिए जिस प्रकार भोजन की आवश्यकता है, वह सब एक मात्र फलों के द्वारा बड़ी आसानी से प्राप्त होती है। इससे जो उसको शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त होती है। यह किसी प्रकार दूसरे पदार्थों से सम्भव नही है।
प्रोफेसर सेम्जबुड का कहना है- फलों और शाक के आहार से मनुष्य का जो भोजन प्राप्त होता है, वह उसको दूसरे किसी पदार्थ से प्राप्त होना असम्भव। जो लोग स्वास्थ्य और बल के लिए मांस का सेवन करते हैं, वे बहुत बड़ी भूल करते हैं। उसके द्वारा मनुष्य दुर्बल और रोगी बनता है। मेरा ज़बरदस्त अनुभव है, कि यदि मनुष्य अपने जीवन में सुन्दर फलों और वानस्पतिक पदार्थो का प्रयोग करें, तो वह मनुष्य के सच्चे सुख को प्राप्त कर सकता है।
डॉक्टर जोज़िया ओल्ड फ़ील्ड का कहना है- मनुष्य के शरीर के लिए जिस प्रकार की आवश्यकता है, वह सब फलों के द्वारा प्राप्त होती है। मुझे आश्चर्य है, कि मनुष्य अपने इस प्राकृतिक भोजन को किस प्रकार भूल गया। जिन लोगों ने फलों के आधार पर अपना भोजन निश्चय किया है, उन्होंने उसकी अपूर्व शक्ति का अनुभव किया है। मनुष्य ने जितना ही उनका प्रयोग कम कर दिया है, उतनी ही उनकी पैदावार भी कम होती जाती है।
इस प्रकार एक दो नहीं, बहुत-सी सम्मतियाँ दी जा सकती हैं। परन्तु जितना अधिक उसका विवेचन ऊपर किया जा चुका है, उसके आधार पर यह भली-भाति समझ में आ जाएगा, कि मनुष्य स्वभाव के विरुद्ध भोजन करके अपने आपको किस प्रकार रोग का कीड़ा बना डालता है। मनुष्य वास्तव में फलों की उपयोगिता और अपने लिए आवश्यकता भूल गया है। भूल जाने का कारण भी है और कारण बहुत पुराना तथा जटिल है। किन्तु फलों की ओर मनुष्यों का जीवन जिस प्रकार आकृष्ट हुआ है, उसे देखकर यह सहज ही अनुमान होता है कि यह भूल बहुत शीघ्र सुधरेगी।
स्वास्थ्य और सामर्थ्य के नाम पर मनुष्य जाति कितनी निर्बल हो गई है। यह बात अधिकतर बताने की नहीं है, केवल आँखों से देखने-दिखाने की है। यह रोगी समाज स्वयं ही अपनी अवस्था को आप पहचानने की चेष्टा करेगा। ऐसा जान पड़ता है। यदि वास्तव में सोचा जांए, तो हमारे जीवन की प्रायः सभी खराबियां हमारे भोजन पर अवलम्बित दिखाई देंगी। यदि समाज को अपने स्वभाव के अनुकूल भोजन से अभिरुचि हो जांए, तो थोड़े ही दिनों में मनुष्य का जीवन बहुत शान्त, सुन्दर और सलोना बन सकता है।

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