निन्यानवे का चक्कर : अद्भुत कहानी
एक था जोड़ा पति और पत्नी का दोनों अपनी छोटी-सी झोपड़ी में बड़े सुख और आराम से रहते थे। जीवन-यात्रा आनन्दपूर्वक चल रही थी।
पति दिन-भर खूब मिहनत से काम किया करता। इससे जो कुछ कमाता, उससे गुजारा-मात्र ही चलता। वह अन्य किसी सांसारिक कामना की तड़प नही रखता था और न किसी इच्छा पर जान देता था। मन में हाय या स्पर्धा की भावना अथवा घृणा को घुसपैठ नही होने देता था। वह बहुत ही अच्छा और ईमानदार मजदूर था। उसका एक पड़ोसी था -बहुत ही धनवान और सम्पत्तिशाली, परन्तु उसके मन में सदा चिन्ताओं, आशंकाओं का जमघट रहता था। सुख और शान्ति के दर्शन स्वप्न में भी प्राप्त नहीं होते थे।
एक बार एक वेदान्ती साधु उस धनी व्यक्ति के घर पधारे। उन्होंने धनी व्यक्ति को बताया कि उसके मन की अशान्ति, चिन्ताओं एवं आशंकाओं का कारण उसके धन व सम्पत्ति ही हैं। उसकी सम्पति ने उस पर अपना प्रभुत्व जमा रखा था और वह उसका दास बना बैठा था। उसका मन एक विषय से दूसरे विषय के पीछे भागता और भटकता रहता था।
साधु ने उस धनवान के पड़ोसी निर्धन व्यक्ति की चर्चा करते हुए धनवान से कहा, "तुम उस निर्धन पड़ोसी की ओर देखो। उसके पास कुछ नही है, परन्तु उसके मुख-मंडल पर खुशी और आनन्द की बहारें खेलती दिखायी देती हैं। उसका अंग-अंग कितना सुदृढ़ है। उसकी भुजाएँ कितनी बलशाली हैं! देखकर आश्चर्य होता है और हर्ष भी। वह चलता-फिरता इस तरह नजर आता है कि जैसे वह हार्दिक उल्लास के ताल पर थिरक रहा हो। उसे काम करते हुए सदा गुनगुनाता देखकर ऐसा जान पड़ता है, जैसे उसके मन में आनन्द-संगीत का सोता उफन पड़ा है।"
यह खुशी, जिससे वह निर्धन मालामाल था, उसका अंश मात्र भी पड़ोसी धनवान को प्राप्त न थी। उसकी सम्पत्ति और घर-बार ऐसे सजे-संवरे हुए और भव्य थे कि अन्य लोग देखकर मंत्र-मुग्ध हो जाते थे। परंतु स्वयं उस धनवान का मन बुझा-बुझा-सा रहता था। उसने साधु महात्मा की बातें सुनकर उनकी सच्चाई का परीक्षण करने का विचार किया।
साधु महात्मा के सुझाव के अनुसार धनवान व्यक्ति ने एक दिन पड़ोसी के घर में चोरी-चोरी चुपके-चुपके निन्यानवे (99) रुपये फेंक दिये। दूसरे दिन वे क्या देखते हैं कि उस गरीब पड़ोसी के घर आग नहीं जल रही थी। यह पहला दिन था कि ऐसा हुआ, जबकि उस निर्धन के यहाँ प्रतिदिन खूब आग जलती थी और दिन-भर कड़े परिश्रम की कमाई से खरीद कर लाये हुए राशन को पकाया और खाया करते थे। परन्तु उस रात धनवान ने देखा कि पड़ोसी निर्धन के यहाँ चूल्हा नहीं जला। उसके घर खाना नहीं पका और वह परिवार उस रात भूखा ही रहा।
दूसरे दिन प्रातः वह साधु महात्मा उस धनवान को साथ लेकर पड़ोसी निर्धन व्यक्ति के यहाँ गये और उससे पूछा कि गयी रात उसके यहाँ चूल्हा क्यों नहीं जला था।
निर्धन व्यक्ति ने साधु को सामने पाकर कोई बहाना या कोई बनावटी बात बताने का प्रयत्न न किया। उसने साधु महात्मा के सामने सच्ची बात वह दी। निर्धन ने बताया कि इससे पहले वह प्रतिदिन कुछ ही पैसे कमाया करता था और उन कुछ ही पैसों से सब्जी-तरकारी तथा घोड़ा-सा माटा खरीद लाया करता था। परन्तु उस दिन जिस दिन उनके यहां आग नहीं जलायी गयी थी, उन्हें एक छोटा-सा डिब्बा मिला, जिसमें से उन्हें निन्यानवे (99) रुपये मिले। जब उन्होंने ये निन्यानवे देखें, तो उनके मन में एक विचार उठा कि सौ में केवल एक ही रुपया तो कम है। बस एक रुपया और हो जाय, तो पूरा सौ रुपया बन जायगा।
अब इस एक रुपया की कमी को पूरा करने के लिए उन्होंने सोचा कि वे बीच-बीच में एक-एक दिन का खाना नहीं पकाया करेंगे और भूखे रहेंगे। इस प्रकार वे कुछ पैसे रोज़ बचा लिया करेंगे। और एक सप्ताह या कुछ और अधिक दिनों में वे एक रुपया जमा करके निन्यानवे रुपयों के पूरे सौ रुपये बना सकेंगे। बस इसी योजना के अनुसार उन्होंने गत रात खाना न पकाया न खाया।
यह कहानी सुनाकर स्वामी राम ने कहा कि बस धनवान लोगों की 'कंजूसों का यही राज है। वे लोग जितना रुपया ज्यादा जमा करते हैं, उतने ही गरीब होते जाते हैं। जब वे निन्यानवे रुपये प्राप्त करते हैं, तो उन्हें सौ मनाना चाहते हैं। और यदि उनके पास 99,000 हो जायें, तो चाहते हैं कि 1,00,000 रुपये हो जायें। इस प्रकार लालच और कंजूसी का बोलबाला हो जाता है और खुशी तथा मन की अशान्ति कम हो हो जाती है।
निष्कर्ष
आनन्द या पूंजी अधिक से अधिक धन जमा करने से नहीं, संतोष में है। निन्यानवे का चक्र मनुष्य को अशान्ति, चिन्ता और दुःखों के नरक में धकेल देता है।
निन्यानवे का चक्कर : अद्भुत कहानी
Reviewed by Tarun Baveja
on
August 13, 2021
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