अद्भुत जीवन और त्याग की कहानी
किसी देश में एक बहुत ही मेघावी, विद्वान्, ऐश्वर्यवान एवं सौम्य प्रकृति के राजा रहते थे। वे राजसिंहासन पर बैठे। वर्षों पर वर्ष बीत गये, परन्तु उन्होंने विवाह न कराया। प्रजा को बड़ा चाव था कि महलों में एक रानी आये और समय पाकर एक नन्हे-मुन्ने उत्तराधिकारी की किलकारियों से राज-अन्तःपुर मुखरित हो उठे। प्रजा के बड़े-बड़े लोगों ने राजा से निरन्तर निवेदन जारी रखा कि वे अपने लिए भार्या को पसन्द करें। राजा ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया, इस शर्त पर कि प्रजा उन्हें स्वयं अपनी पसन्द की सुकुमारी से विवाह करने की अनुमति दे दे।
यह बात उल्लेखनीय है कि उस देश में विवाह और प्रेम-प्रणय के विषय में भी किसी व्यक्ति को स्वतन्त्रता प्राप्त न थी। राजा भी इस रीति व परम्परा मे बँधे हुए थे। लोगों ने सोचा कि राजा अपनी इच्छा के अनुसार विवाह करना चाहते हैं और यदि उनकी इच्छा पर फूल न चढ़ाये गये, तो वे आयु भर कुवारे ही रहेंगे, इसलिए उचित यही है कि राजा को अपनी पसन्द के अनुसार ही विवाह करने की अनुमति दे दी जाय। अन्त में प्रजा ने उन्हें अनुमति दे दी।
राजा ने अपने मन्त्री-सामन्तो को विवाह-उत्सव की तैयारियां करने का आदेश दे दिया। हर चीज अत्यन्त राजसी और भव्य रीति से तैयार की गयी। निश्चित दिन के लिए बड़ी आन-बान से सेना सज-धज गयी। प्रत्येक व्यक्ति सुन्दर एवं मूल्यवान वस्त्र पहनकर सर्वोत्तम गाड़ियों और रथों में बैठ गये। आधी सेना एक पहलू की ओर और आधी दूसरे पहलू की ओर तथा मध्य में राजा की सवारी थी। यह सारा जुलूस राजा के आदेश के अनुसार चल पड़ा। कोई विशेष मार्ग ग्रहण न किया गया। चलते-चलते वे बड़े घने वनों में बहुत दूर तक चले गये।
यह देखकर राजा के संगी-साथी आपस में काना-फुसकियाँ करने लगे, "यह क्या करने जा रहे हैं राजा? क्या वे झील से या झाड़-झंखाड़ और पत्थरों के साथ विवाह रचाने चले हैं ?" वे बहुत आश्चर्यान्वित थे और चुपचाप चले जा रहे थे। अन्त में यह शोभा यात्रा जंगल के एक ऐसे स्थान पर पहुंच गयी, जहां छोटी-सी कुटिया अवस्थित थी और कुटिया के निकट ही एक झील थी, जिसका बहुत ही निर्मल स्वच्छ जल दिन के आलोक में झिलमिला रहा था। झील के किनारों पर अत्यन्त रमणीक, सुन्दर, शोभावन्त प्राकृतिक कुंज अलौकिक दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे। कुंज के एक वृक्ष की शाखा के साथ एक खटोला या झूला सा लटक रहा था, जिसमें एक बूढ़ा व्यक्ति लेटा हुआ था। राजा के साथी आश्चर्य चकित मन में कहने लगे, "क्या महाराज इस बूढ़े से विवाह रचायेंगे?"
आधी सेना आगे बढ़ गयी और जब राजा का हाथी उस स्थान पर पहुंचा तो उन्होंने अपनी सेना और साथियों को रुक जाने का आदेश दिया। तुरन्त ही वहाँ एक बहुत सुन्दर सुकुमारी कन्या दिखायी दी, जो अपने पिता-उस बूढ़े व्यक्ति का झूला धीरे-धीरे झूला रही थी।
राजा राजसिंहासन पर बैठने से पहले, इस स्थान पर कई बार आ चुके थे। वे इस सुकुमारी को अच्छी तरह से देखते रहे थे और इसे सदा कर्तव्य-पालन में सजग और तत्पर पाया करते। वह अपने पिता की देख-भाल बड़े मनोयोग से तथा श्रद्धापूर्वक करती थी। पानी लाती, अपने पिता को नहलाती और भोजन खिलाती। कुटिया की सफ़ाई, धोने, मांजने, मसने-दलने आदि सब प्रकार के काम किया करती। परन्तु इन सब कामों के करते समय सदा प्रसन्न-वदन, प्रफुल्ल-चित्त, पुलकित-नयन, और चिड़ियों की भांति चहकती दिखाई देती। सुकुमारी के इस देवी स्वभाव से राजा बहुत ही प्रभावित हो चुके थे और उन्होंने मन में संकल्प कर रखा था कि यदि उन्होंने विवाह करना ही है, तो इसी लड़की से करना है।
इस सुकुमारी ने विस्मित-विस्फारित नयनों से इस सारे सजे-धजे भव्य समारोह को देखा और इस ओर अधिक ध्यान न दिया कि वह व्यक्ति, जो राजा होने से पहले कई बार घोड़े पर सवार होकर इनके द्वार के आगे से गुजरा करता था, यही राजा था। लड़की ने अपने पिता से इस राजसी समारोह के विषय में पूछा। उसके पिता ने बताया कि यह एक दुलहा है, जो किसी दूर देश में राजकुमारी को ब्याहने जा रहा है।
इतने में राजा अपने हाथी से नीचे उतरे और उस बूढ़े व्यक्ति के पास जाकर उसके पांव मे प्राच्य रीति के अनुसार दण्डवत् प्रणाम किया। बूढ़े व्यक्ति ने उनसे कहा, "मेरे बेटे, क्या चाहते हो?"
राजा का चेहरा खुशी से चमक उठा। वे बोले, "मैं चाहता हूँ कि आप मुझे अपना धर्म-पुत्र (दामाद) बना लें।
बूढ़े व्यक्ति का हृदय हर्ष से उछल पड़ा। उसके आनन्द की सीमा न रही। उसने कहा, "तुम्हें भ्रम हुआ है, राजा, तुम्हें भ्रम हुआ है। तुम्हें एक भिखारी की बेटी से ब्याह रचाने की इच्छा कैसे हो सकती है ? हम गरीब हैं, बहुत ही गरीब !"
राजा ने कहा कि वे इस भोली-भाली रूपवती लड़की से अधिक अन्य किसी से प्यार नही करते। बूढ़े ने जरा सोच कर उत्तर दिया, “यदि ऐसी बात है, तो यह कन्या तुम्हें सौंपता हूँ।"
इस कन्या का यह पिता वेदान्त-वेता था और उसने अपनी बेटी को भी वेदान्त की शिक्षा से अलंकृत कर रखा था। अब बूढ़े महात्मा ने राजा से कहा, कि उसके पास दहेज देने को कुछ नहीं है और जो कुछ वह दे सकता है, वह है केवल आशीर्वाद।
राजा ने साधु-कन्या अथवा अपनी दुलहन को सब प्रकार के बहुमूल्य वस्त्र भेंट किये और उससे पहन लेने के लिए निवेदने किया। साधु-कन्या ने वे यस्त्र पहन लिए, परन्तु साधु-कन्या खाली हाथ राजा के पास न गयी। उसके पास दहेज था। वह क्या था? एक टोकरी में, जो राजा ने उसे आभूषण रखने के लिए दी थी उसने अपने फटे-पुराने वस्त्र डाल रखे थे, जो उसने पहले पहन रखे थे।
अब वेदान्ती साधु अकेला रह गया। एक सेवक उसकी सेवा के लिए वहां छोड़ दिया गया। इससे अधिक बूढ़ा साधु राजा से और कुछ चाहता भी नहीं था।
राजा अपनी दुलहन को लेकर राजमहलों में आ गया। पहले-पहले राजा के दरबारियों ने इस दुलहन को इसलिए पसन्द न किया कि वह समाज के निम्न वर्ग की सन्तान थी। मंत्री, सामंत और ऐश्वर्य-मदमाते लोग चाहते थे कि राजा का विवाह किसी विख्यात राजकुमारी से होता। वे इस दुलहन के प्रति ईर्ष्या की भावना रखते थे और आदर करना नहीं चाहते थे। परन्तु उस रानी ने अपने मधुर स्वभाव, सुसभ्य-शालीन आचरण तथा उदार विचारों द्वारा उन सबके मनों को मोह लिया। धीरे धीरे वे सभी लोग रानी के भक्त होते चले गये। वह सदा शान्त और प्रसन्न रहती थी। किसी बात का बुरा नहीं मानती थी और न किसी परिस्थिति पर खिन्न होती थी।
एक डेढ़ वर्ष के बाद रानी की गोद हरी हो गयी। एक अत्यन्त सुन्दर लड़की ने जन्म लिपा। राजा और रानी खुशी से फूले नहीं समाते थे। जब यह राजकन्या तीन या चार वर्ष की हुई, तो राजा रानी के पास आये और उसे बताया कि राज्य में विद्रोह की एक हवा चलने लगी है और विनाश की ज्वाला भड़क उठने की आशंका सुलग रही है। रानी ने ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने का कारण पूछा। उसके पति ने बताया कि मन्त्री, सामन्त तथा अन्य अधिकारी वर्ग उसी समय से उससे खार खाए बैठे थे, जब से वे उसे बयाह कर लाये थे। अब उन लोगों को यह बात सहन नहीं होती कि राजकुमारी राज्य के उत्तराधिकारी का स्थान ग्रहण करे, क्योंकि यह समाज के निम्न-वर्ग की माता की कोख से जन्मी है। वे कुलीन रक्त चाहते हैं और इस बार इच्छुक है कि राजा किसी प्रधान मंत्री के बेटे को गोद ले लें और उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित करे।
राजा ने अपने सामन्तों को बताया कि यदि ये, इस प्रकार किसी लड़के को गोद ले लेते हैं, तो जब उनकी लड़की बड़ी होगी एवं होश संभालेगी, तो उसमें तथा गोद लिए लड़के-दोनों में एक-दूसरे के लिए वैमनस्य व घृणा पैदा हो जायेगी।
राजा ने अपनी रानी से कहा, "गिरीशदा ! मैं अब इस भयानक परिस्थिति से दो-चार हूँ। इससे बचने के लिए सोचता रहा हूँ, बहुत सोचता रहा हूँ और अन्त में इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि सबसे अच्छा उपाय यही है कि इस लड़की को मरवा दिया जाय।"
गिरीशदा (रानी का नाम) ने राजा को एक अत्यन्त अनोखा उत्तर दिया। वह उत्तर राजा के प्रति उसके व्यवहार और कर्तव्य का प्रदर्शन करता था। उसने कहा, "आप जानते हैं कि जब से मैं यहाँ आयी हूँ मैं आपके साथ राज्य के सुख-सहित्य, भोग-विलास के उपयोग के लिए अपनी. निजी कोई इच्छा नहीं रखती हूँ। मैंने अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को सम्पूर्ण रूप से आपकी इच्छा में समा डाला है। मेरा व्यक्तित्व और अस्तित्व आप में विलीन हो गया है तथा इसे केवल उस समय तक बनाये रखा है, जब तक आपको सेवा के काम आ सकता है, आपके उद्देश्य में बाधा डालने के लिए नहीं। यह आपकी इच्छा है कि लड़की (राजकुमारी) को दूर कर दिया जाय, हमेशा-हमेशा के लिए। इसे निःसंकोच दूर कर दिया जाय ! मैंने अपने दिल से दिल की गहराइयों से इसे कभी अपनी पुत्री नहीं कहा।"
लड़की को आधी रात के समय महलों से दूर ले जाया गया और कुछ घंटों के पश्चात् राजा आया। उन्होंने गिरीशदा को बताया कि लड़की को मार डालने के लिए जल्लादों के हाथ सौंप दिया गया है। रानी शान्त, संयम-मन और प्रसन्न-चित्त रही, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। यही ज्ञान की सबसे ऊंची स्थिति तथा वरदान है कि मनुष्य बाहरी परिस्थितियों से, चाहे वे कैसी भी क्यों न हों, विचलित न हो।
राजा ने सोचा कि अब सभी लोग खुश हो गये होंगे। एक-दो वर्ष के पश्चात् एक नन्हें-मुन्ने पुत्र का जन्म हुआ। लड़का सबको प्यारा लगता था। जब वह चार-पांच वर्ष का हुआ। तो फिर एक कोलाहल उठ खड़ा हुआ। राजा ने कहा, "इस समय जो परिस्थितियां पैदा हो गयी हैं, उन्हें देखते हुए उचित यही लगता है कि इस बच्चे को भी मौत की गोद में सौंप दिया जाय। यदि यह लड़का जीवित रहता है, तो भीषण गृह-युद्ध अवश्यसमभावी है। इसलिए राष्ट्र की शान्ति के लिए इस बच्चे को मरवा डालना ही होगा।"
सुनकर रानी मुसकराती रही। हर्ष-सूचक स्वर में बोली, "मेरा वास्तविक अपना समग्र राष्ट्र ही है। मेरा व्यक्तिगत या निजी कुछ भी नही है। मैं सूर्य के समान हूँ, जो देता ही देता है। सूर्य की भांति हम भी नहीं लेते। हमें त्याग करना चाहिये। जब हम आसक्ति का भाव नहीं रखते, किसी वस्तु से चिपके नहीं रहना चाहते, सो वह कौन-सी बात है, जो हमारी खुशी, हमारे सुख को नष्ट कर सकती है ? सूर्य सदा देता और देता ही चला जाता है, फिर भी वह अभी तक चमक रहा है। त्याग की प्रवृत्ति किसी दुःख-शोक को पास फटकने नहीं देती।"
उस लड़के को भी रानी से अलग कर दिया गया। अर्थात् जल्लादों के हवाले कर दिया गया। फिर कुछ एक-दो वर्षों के उपरान्त एक और बच्चा पैदा हुआ। और वह भी जब तीन-चार वर्ष का हुआ, तो उसी तरह त्याग दिया गया।
अब सोचिये रानी किस प्रकार अपने धैर्य और मन को संपत एवं स्थिर रख सकी ? उस दिन से, जिस दिन से वह इस महल में आयी थी, वह प्रतिदिन अपने एक एकान्त कमरे में चली जाया करती, जहाँ उसने पुराने कपड़े वस्त्र सुरक्षित रखे हुए थे। यह उसका शान्त-एकान्त कमरा था। वहाँ वह अपने सभी सुन्दर व कीमती वस्त्र उतार देती और पुराने वस्त्र पहन लेती। इस अत्यन्त साधारण लिबास मे वह जान लेती 'मैं वही हूँ। और इस भिखारी लिबास में यह अपने देवी भाव-अपने ईश्वरत्व को महसूस करती और देखती। शेक्सपियर ने ठीक ही कहा है, "उस व्यक्ति का मस्तिष्क व मन अशान्त तथा परेशान रहता है, जो सिर पर ताज पहन लेता है।"
वह रानी अपने हृदय की गहराइयों से यह समझती थी कि वह वही लड़की है, जो झील के किनारे चहकती और गाती रहती थी। वह राजा के महल में बन्दी बना दी गयी है और उससे स्वाधीनता व स्वच्छन्दता छीन सी गई है। परन्तु उसने अपने आपको कभी दुःखी नहीं किया था और उसने अपने आपको पार्थिव विषयों में उलझने नहीं दिया था। उसने इस या उस किसी भी वस्तु से मन लगा नहीं रखा था। वह सदा वीतराग रहती थी। उसका अपना सच्चा अपना आप इर्द-गिर्द की परिस्थितियों, परिवेश की घटनाओं से सर्वथा अलग-थलग एवं अप्रभावित रहता था। वह निरन्तर ईश्वर-चिन्तन व ब्रह्म-भाव में डूबी रहती थी।
इस तरीके से उसने सब सम्बन्धों, सब प्रकार के आसक्ति-भाव, एवं कामनाओं को दूर फेंक कर अपने आपको सुसंस्कृत शुद्ध बना लिया था। उसने अपने ऊपर कोई दायित्व नहीं ले रखा था। वह किसी व्यक्ति या कर्तव्य से बंधी हुई नही थी। इस तरह से उस रानी ने राजमहलों के आवास की अवधि में अपने आपको ऊंचा रखा, अपने धर्य को सदा स्थिर रखा।
एक रात, राजा उसके पास आये और बोले कि उनके लिए न तो यह उचित है और न ही संभव कि वे आए दिन अपने बेटों और बेटियों को मरवा दिया करें। यह सिलसिला अधिक समय तक नहीं पल सकता, और वे किसी का बच्चा गोद लेने का विचार भी पसन्द नहीं करते। इसलिए सोच-विचार के पश्चात् वे इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि उनके लिए यह सबसे अच्छी बात है कि वे फिर विवाह करें और इस तरह शान्ति की पुनः स्थापना करें।
रानी ने राजा के इस विचार को सराहना के साथ स्वीकृत कर लिया, क्योंकि वह राजा से कभी अपने लिए सुख ग्रहण नहीं करती थी। उसके सुख का स्रोत राजा के व्यक्तित्व में नहीं था, उसको खुशी, उसको सच्चा सुख अपने ही आत्मा से प्राप्त होता था। सुख का स्रोत उसके अपने ही 'भीतर विद्यमान था। वह बाहर के पदार्थों में सुख की तलाश क्यों करती? वह अपने अतःस्थल में व्यापक प्रभु से अविरल सुख का उपभोग करती थी। उसके हृदय में-लोभ, लालच, इच्छाओं, आकांक्षाओं से मुक्त हृदय में अपार सुखों का सागर उफान मार रहा था।
रानी की इस एकरस, आनन्द-मग्न अवस्था को देखकर राजा विस्मित विमुग्ध रह गये और उन्होंने उससे पूछा कि वह क्या करना चाहती है ? रानी ने कहा कि उनकी जो इच्छा है, वही उसकी है। राजा ने उसे बताया कि वह यहाँ रहेगी, तो शान्ति-व्यवस्था भंग हो सकती है। उसके लिए अच्छा होगा कि वह यहां से चली जाय।
राजा के कहने की देर ही थी कि रानी ने तुरन्त राजसी वस्त्र उतार कर रख दिये और वही पुराने वस्त्र धारण कर लिए एवं महलों से चली गयी। वह प्रसन्न थी। हृदय हर्ष से भरा था। अपने पिता के पास चली गई। उसका पिता भी उसके आने पर बहुत प्रसन्न हुआ। राजा का जो सेवक उस बूढ़े महात्मा के पास रखा गया था, उसे वापस राजा के पास भेज दिया गया।
एक दिन फिर राजा उस साधु की कुटिया की ओर गये। उनका ख्याल या कि अपनी भूतपूर्व रानी के प्रति सहानुभूति प्रकट करेंगे। उसका हौसला बंधायेंगे। परन्तु जब उन्होंने देखा कि उसकी भूतपूर्व रानी के चेहरे पर हँसी खेल रही है, उसके हावभाव से किसी दुःख, चिन्ता या असंतोष की लेशमात्र झलक भी प्रकट नही होती, तो उन्होंने विचार छोड़ दिया। उन्होंने देखा कि वहां का वातावरण और परिस्थिति इतनी सुखद, इतनी आनन्दप्रद थी कि रानी गिरीशदा से सहानुभूति प्रकट करने का अवसर नहीं था। परन्तु राजा ने यह बात उससे अवश्य कही कि आया वह नयी दुलहन (रानी) का स्वागत करने को आ जायेगी। गिरीशदा ने राजा की यह बात मान ली।
गिरीशदा एक बार फिर राजमहलों में पहुंच गयी। उसने स्वागत प्रबन्धों की ऐसी योजना बनायी तथा हर वस्तु की व्यवस्था इस सुन्दर रीति से की कि उसे देखकर शान्ति-व्यवस्था के अधिकारी लोग और उनकी पत्नियाँ दंग रह गये। प्रबन्धों के अनुसार दुलहन राजा के पास एक भारी सेना, सोने और जवाहरातों से भरे-पूरे दहेज के साथ आयेगी। दुलहन का आगमन बड़ी धूमधाम व शान-शौकत से हुआ और गिरीशदा तथा राजमहल की अन्य ललनाओं द्वारा बड़े भक्तिभाव से स्वागत किया गया। गिरीशदा ने जब नयी दुलहन को देखा, तो उसने उसे प्यार किया, चूमा और इस प्रकार अपने हृदय में भींच लिया कि मानो वह उसकी माता रही थी। गिरीशदा और उसके साथ की अन्य महिलाएँ नयी दुल्हन के रूप-लावण्य को देखकर चकित रह गयी, परन्तु वे महिलाएं पुरानी अथवा पहली के नैतिक सौंदर्य को देखकर उससे भी अधिक आश्चर्यान्वित हुई।
नयी दुलहन अपने साथ अपने दो छोटे भाई भी लायी थी। उस देश की रीति एवं परम्परा के अनुसार राजघरानों की ललनाएँ और राजसी शासक अथवा मुखिया महलों में प्रवेश करते और एक महान् भोज-समारोह में सम्मिलित होते। इन सब रीति अनुष्ठानों की अध्यक्षता गिरीशदा कर रही थी। लोगों ने जब अपनी भूतपूर्व रानी के शान्त, सुखद, मनोहर कार्यकौशल, स्वभाव तथा व्यवहार को देखा, तो उनके हृदय पिघल गये और आंखों में अनायास ही आंसू बह निकले।
स्वागत-समारोह तया अन्य सब रीतियाँ सुचारु रूप में सम्पन्न हो गही। अब गिरीशदा को जंगल में अपने पिता की कुटिया मे लौट जाना था। परन्तु राज्य के लोग जब भोजन करने गये थे, तो उस समय पुरानी रानी के प्रति उनकी जो खेद एवं विरोधपूर्ण भावनाएँ थी वे सब गायब हो गई और अन्य सब विरोधी बातें भूल गये।
इधर गिरीशदा जब उन सब लोगों को विदा कह रही थी और राजा से आज्ञा मांगती हुई कह रही थी कि फिर भी यदि उन्हें उसकी आवश्यकता पड़े तो नि:संकोच-भाव से उसे याद करें, उस समय भद्र महिलाओं के हृदय द्रवित हो उठे और वे सुबकियां भर-भर कर आंसू बहाने लगीं। उन्होंने अपनी पहली निर्दयता का प्रायश्चित किया। उन्होंने कहा, "आप किसी साधु या भिखारी की नहीं, भगवान् की बेटी हैं।"
इसके पश्चात् उन सब लोगों को बताया गया कि किस प्रकार इस रानी ने राष्ट्र की शान्ति व सुख के लिए अपने बच्चों की मौत के घाट उतार देने की अनुमति दे दी थी। यह सुनकर नयी रानी की आँखों से भी आँसू बहने लगे। उसने कहा, "आपकी बेटी और बेटे मरवा दिये गये थे और अब मैं यहां खून की धारा में विवाह कराने के लिए आयी हूं?"
तब उन लोगों ने राजा को बुरा-भला कहना शुरू किया। सभी लोग उपस्थित थे, नयी दुलहन भी और पहली रानी जाने के लिए तैयार थी। उस समय राजा खड़े हुए और बोले, "ऐ, अधिकारीगण, राज-सभा के सदस्यो और माननीया महिलाओ, तुम सब आंसू बहा रहे हो, केवल गिरीशदा को छोड़ कर, सभी फूट-फूटकर रो रहे हो। मैं भी हर्ष और दुःख के मिले-जुले भावावेग में रो रहा हूँ। मैं तुम लोगों को दोषी नहीं ठहराता, तुम मेरे बच्चे हो। मेरी आँखें आँसुओं से भरी हैं। परन्तु ये आंसू दुःख या अफसोस के नही; हर्ष और उल्लास के हैं। मैं चाहता हूँ कि आपके आंसू भी हर्ष के आंसू बन जायें।"
इसके पश्चात् गिरीशदा को सम्बोधित करके बोले, "तुम भी प्रसन्न और खुश रहो। इस सारे राज्य में एकमात्र तुम्ही खुश रहो।
अब मालूम हुआ कि नयी दुलहन पड़ोस के देश के राजा की लड़की थी, परन्तु सगी बेटी नही थी, गोद ली हुई बैटी थी और उसके दोनों छोटे भाई भी इसी प्रकार पड़ोसी देश के राजा के गोद लिए बेटे थे। ये यतीम बच्चे उस राजा के हाथ लग गये थे। इन बच्चों के सौंदर्य को देखकर उस राजा के मन में उनके प्रति पितृ-स्नेह-भाव जाग उठा था। उसने इनको अपनी सन्तान के रूप में पाला और पोसा था। वास्तव में ये तीनों बच्चे रानी गिरीशदा यौर इस देश के राजा की सन्तान थे।
बात यूं हुई थी कि जिन जल्लादों को इन तीनों बच्चों को मौत के घाट उतार देने के लिए सौंपा गया था, उनसे यह घृणित तथा निर्दयतापूर्ण कुकर्म नहीं हो सका था। इतने सुन्दर, सुलक्षण, निर्दोष बच्चों के गले पर छुरी चलाने की अनुमति किसी निर्दय से निर्दय व्यक्ति का हृदय भी नहीं दे सकता था। वे जल्लाद इन तीनों बच्चों को लेकर उक्त पड़ोसी देश में ले गये। और उस देश के राजा ने इन तीनों बच्चों को काले-कलूटे व्यक्तियों के पास देखा, तो इन्हें निश्चय ही किसी राजघराने की सन्तान समझकर इन हबशी जल्लादों से ले लिया। इन असाधारण सुन्दर कुलीन बच्चों को लेकर उस राजा को बहुत ही हर्ष हुआ था और उसने इन तीनों को अपने सगे बच्चों की भांति पाला-पोसा और सभ्य सुशिक्षित बनाया था।
अब जब यह सारा भेद इस राज्य के लोगों पर खुल गया, तो यह कैसे हो सकता था कि यह राजा अपनी बेटी से विवाह कर लेता। अब राज्य के सभी बड़े-छोटे लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए। पहली रानी और राजा के प्रति उनकी भक्ति पुनः जाग्रत् हो उठी। फलस्वरूप गिरीशदा को पुनः अत्यन्त सम्मानपूर्वक सम्राज्ञी का स्थान प्राप्त हुआ और उसकी सन्तान राज्य की यथार्य उत्तराधिकारी स्वीकृत हो गयी।
निष्कर्ष
संसार में त्याग, धैर्य और विषयों से अनासक्ति से बढ़ कर सच्चे सुख, शान्ति एवं समृद्धि का अन्य कोई स्रोत नहीं हो सकता। जो मनुष्य जीवन में दुःख और सुख में सदा एकरस रहता है, विपत्तियों का हंसकर स्वागत करता है, भोग-विलास के जाल में नहीं फंसता, उसके सामने संसार झुकता है। प्रकृति की समस्त शक्तियां उसके पांव चूमती हैं।

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