-ब्रह्मचर्य के आविष्कारक
गायन्ति देवाः किल गीतकानिधन्यास्तु ये भारत-भूमि-भागे।
स्वर्गापवर्गस्य च हेतु-भूते,
भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥
(श्रीमद्भागवत्)
यह वही महत्वशाली महादेश है, जहाँ की सभ्यता अपने अलौकिक गुणों के कारण, एक बार उन्नति की चरम-सीमा को पहुंच
गई थी । यह वही पुण्य-प्रधान भूमि है, जहाँ का अन्तिम आलोक
ग्रहण कर आधुनिक सभ्य तथा उन्नत कहलाने वाले देशों के
निवासी, विश्व में अपनी विजय-वैजयन्ती उड़ा रहे हैं। वास्तव
में हमारे उस गौरव-गरिमामय वैभव-विकास के आश्रय-भूत,
इस देश में रहनेवाले, परम स्वार्थत्यागी और त्रिकालदर्शी ऋपि,
मुनि तथा महात्मा लोग थे, जो उच्च पर्वतों की कन्दराओं और
हरे-भरे वनों की कुटियों में बस कर, समस्त मनुष्य-जाति के लिये
हितकर, एवं सुख-शान्तिमय उपाय सोचा करते थे। उनके सत्सिद्धान्त कोरी कल्पना (Theory) की अरक्षित भित्तिपर ही नहीं ठहरते थे, वरन् वे आदर्श विज्ञान (Science) की खरी कसौटी पर
सुदृढ़ अभ्यास (Practice) द्वारा कसे जाकर ही जनता में प्रचलित किये जाते थे।
यही एक मुख्य कारण था कि उनके अनुगमन
से प्रजा सदा फूलती-फलती रही। उन्होंने सामाजिक जीवन को
नियम-बद्ध किया। ईश्वर की सत्ता को स्थिर रखने के लिये तथा
मानवी-सृष्टि को कुमार्ग-गामिनी होने से बचाने के उद्देश्य
से, अनेक शास्त्रों की रचना की, और उनमें अनेक अमूल्य, उच्च तथा
स्वाभाविक विधान किये। उन्होंने स्वभाव-सिद्ध ब्राह्मणादि चार
वर्णों और ब्रह्मचर्यादि चार आश्रमों की योजना की । जैसे वर्णों
में ब्राह्मण, वैसे आश्रमों में ब्रह्मचर्य को प्रथमता और श्रेष्ठता का
स्थान मिला। इस रहस्य-पूर्ण प्रणाली को हम उनके सर्वतोभद्रमस्तिष्क और दिव्य-दृष्टि का सबसे बड़ा उत्पादन मानते हैं।
संसार की प्राथमिक अवस्था में, वास्तव में, यह उनकी अपूर्व योग्यता
थी। अतएव ब्राह्मचर्य के मूल आविष्कारक.इसी देश के प्राचीन महात्मा
तथा दूरदर्शी देव-तुल्य पुरुप थे। इन्हीं के कारण कई शताब्दियों
तक ब्रह्मचर्य-प्रथा का प्रचार धार्मिक रूप से भारत में ही क्या,
समस्त भूमण्डल में उत्तरोत्तर बहुत दिनों तक बढ़ता गया ।
काल के प्रभाव से उस सुवर्ण-युग का अन्त हो गया। भारत
में आज वे महर्षि तथा सिद्ध लोग नहीं रहे, पर जिस कल्याणप्रद
मार्ग को दिखला गये, वह इस पतित समय में भी उनका स्मरण
दिलाता है। यदि हम अपनी अज्ञानता और अभिमान को छोड़
कर, उनकी बातों पर विश्वास और प्रेम कर, ब्रह्मचर्य-प्रणाली को
पुनः उसी रूप में प्रचलित करें, तो वास्तव में हम फिर भी उनकी
आत्मा को दर्शन नवीन शरीर में कर सकते हैं। इसमें तनिक भी
सन्देह नहीं कि ब्रह्मचर्य के प्रभाव से भविष्य में हम भी वैसे ही
आविष्कारक तथा सत्पुरुप हो सकेंगे।
Reviewed by Tarun Baveja
on
November 20, 2021
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