२-ब्रह्मचर्य की व्याख्या
'ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में कुछ विचार प्रकट करने से पहले,
यह समझा देना अत्यन्त आवश्यक है कि ब्रह्मचर्य है क्या पदार्थ ?
जब तक इसके अर्थ नहीं बताये जायेंगे, तब तक उसके गूढ़ भावों
के समझने और समझाने में, पाठक और लेखक-दोनों को समान
रूप से असुविधा होगी।
एक बात यह भी है कि जो वस्तु व्याख्या-द्वारा पहले पहल .
स्पष्ट नहीं कर दी जाती, उसके विषय में किये गये विचार भली
भाँति हृदयङ्गम नहीं किये जा सकते । अतः 'ब्रह्मचर्य' किसे कहते
हैं ? यह बतलाना होगा।
वास्तव में 'ब्रह्मचर्य' एक शब्द नहीं, यह दो शब्दों के योग से
बना है। एक 'ब्रह्म' दूसरा 'चर्य'-इस प्रकार तो ब्रह्म और चर्य
इन दोनों शब्दों के भिन्न-भिन्न स्थानों पर, अनेक अर्थ होते
हैं। हम पाठकों के हितार्थ कुछ को नीचे लिखे देते हैं:'ब्रा'-इस शब्द से ईश्वर, वेद, वीर्य, मोक्ष, धर्म, सूर्य,
ब्राह्मण, गुरु, मुख, योग, सत्य, आत्मा, मन्त्र, अन्न, द्रव्य, जल,
महत्व, साधन और ज्ञान आदि का, और 'चर्य'--इस शब्द से
चिन्तन, अध्ययन, रक्षण, विवेचन, सेवा, नियम, उपाय, हित, ध्येय,
प्रगति, प्रसार, संयम, साधना और कार्य आदि का बोध होता है ।
' 'ब्रह्मचर्य' बहुत प्राचीन एवं प्रभावोत्पादक शब्द है। इसके
बहुत से अर्थ हो सकते हैं, जिन्हें हम ऊपर दे चुके हैं, पर हमारे
वैदिक साहित्य में इसके तीन ही प्रधान अर्थ होते हैं । हमने जहाँ
कहीं देखा है, इन्हीं तीनों अर्थों को ध्यान में रख कर, इस शब्द
का प्रायः व्यवहार हुआ है । प्रायः उन्हीं अर्थो को लक्ष्य में रख
कर, हमारा यह ग्रन्थ भी लिखा जारहा है। अतएव हम उन्हें पृथक्
नीचे स्पष्ट कर देते हैं:'ब्रह्म' शब्द वीर्य, वेद और ईश्वर वाचक है। और 'चर्य'
रक्षण, अध्ययन तथा चिन्तन का द्योतक है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य
के ये तीन प्रधानअर्थ समझेजाने चाहिये। १-वीर्य-रक्षण, २वेदाध्ययन और ३-ईश्वर-चिन्तन । पृथक्-पृथक् तो तीन अर्थ
हुये, पर तत्वतः वे तीनों ही एक मूलभूत 'ब्रह्मचर्य' में सन्निहित हैं ।
'ब्रह्मचर्य' का पहला अर्थ हमने 'वीर्य-रक्षण' किया है। यह
अर्थ प्राचीन समय से जनता में रूढ़ि को प्राप्त हो गया है। ब्रह्मचर्य का नाम लेते ही लोगों के हृदय में वीर्य-रक्षण का भाव उठता
है। यह साधन-रूप से अब भी संसार में प्रतिष्ठित है। -
'ब्रह्मचर्य का दूसरा अर्थ हमने 'वेदाध्ययन किया है । यह
अर्थ वीर्य-रक्षण के साथ ही प्रचलित था। ब्रह्मचर्य की अवस्था
में वेदाध्ययन एक प्रधान कार्य समझा जाता था । अब भी विद्योपार्जन की प्रणाली किसी न किसी रूप में सर्वत्र प्रचलित है ही।
'ब्रह्मचर्य' का तीसरा अर्थ हमने 'ईश्वर-चिन्तन' किया
है। यह भी प्राचीन काल में उद्देश्य-रूप से माना जाता था।
वीर्य्य-रक्षण और वेदाध्ययन की परिपाटी के साथ ही ईश्वर-चिन्तन
भी होता था । अब भी लोग देवाराधन करते हैं ।
ब्रह्मचर्य में वीर्य-रक्षण, वेदाध्ययन और ईश्वर-चिन्तन-इन
तीनों बातों की सिद्धि होती है।
अर्थात् एक साथ वीर्य्य-रक्षण करने, वेदाध्ययन करने तथा
ईश्वर-चिन्तन करने का नाम 'ब्रह्मचय' है। इन्हीं तीन महत्वशाली प्रयोजनों के एकत्र किये हुये भाव से 'ब्रह्मचर्य' शब्द की
संसार में उत्पत्ति हुई है।
अब हम ऊपर कहे गये तीन प्रयोजनों के समूह-रूप 'ब्रह्मचर्य' को आगे बतलायेंगे । हमने जिन आधारों पर ऊपर के अर्थ
किये हैं, वे भी नीचे लिखे जाते हैं:कठोपनिषत् -
"तदेव शुकं तद्ब्रह्म, तदेवामृतमश्नुते।"
अर्थात् वही वीर्य है-वही परमात्मा है और वही अमृत
कहलाता है।
यजुर्वेद
“वदेव शुक्रं तद्ब्रह्म, ता श्रापः स प्रजापतिः।"
अर्थात् वही वीर्य है-वही ईश्वर है-वही जीवन है, और
वही सृष्टि-कर्ता भी है।
ऐतरेयोपनिषत्"प्रज्ञानं वै ब्रह्म ।"
अर्थात् वेद साक्षात् परमेश्वर है ।
मनुस्मृति"ब्रह्मभ्यासेन चाजन्नमनन्तसुखमश्नुते।"
अर्थात् वेद के सदैव अध्ययन करने से अपरिमित सुख
मिलता है।
कैवल्योपनिषत्“यत्परब्रह्म सर्वात्मा, विश्वस्यायतनं महत् ।”
अर्थात् जो परब्रह्म है-सर्वात्मा है, और संसार का श्रेष्ट
धाम है।
वेदान्तदर्शन"अथातो ब्रह्म-जिज्ञासा।"
अर्थात् अव हम परमात्म-तत्व की विवेचना करते हैं।
ऊपर के अवतरणों से पाठक समझ गये होंगे कि 'ब्रह्म' से
वीर्य, वेद और ईश्वर का बोध होता है । ब्रह्मचर्य-व्याख्या-कहने
का अभिप्राय यह है कि वीर्य, वेद और ईश्वर का-रक्षण, अध्ययन तथा चिन्तन ही 'ब्रह्मचर्य' है। इन तीनों में से एक भी कम
हुआ, तो ब्रह्मचर्य की सम्पूर्णता नहीं प्राप्त हो सकती।

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