ययाति की कहानी
राजा ययाति पाण्डवों के पूर्वजों में थे। ऐसे कुशल योद्धा कि कभी लड़ाई के मैदान में उनकी हार नहीं हुई थी। बड़े ही शीलवान थे, पितरों और देवताओं की पूजा बड़ी श्रद्धा के साथ करते और सदा प्रजा की भलाई में लगे रहते । इससे उनका यश बहुत दूर-दूर तक फैला हुआ था। ऐसे कर्तव्यशील राजा जवानी बीतने से पहले ही शाप वश रंग-रूप बिगाड़ने और दुःख देने वाले बुढ़ापे को प्राप्त हुए। जो बुढ़ापे को पहुंच चुके हैं वे ही अनुभव कर सकते हैं कि बुढ़ापा कैसी बुरी बला है। तिस पर ययाति की तो अभी जवानी की दुपहरी भी न हो पाई थी कि अचानक उन्हें बुढ़ापे का दुःख सहना पड़ा। उनकी ग्लानि का पूछना क्या ? राजा ययाति को भोग-लालसा अभी भी थी।
उनके पांचों पुत्र अभी सुन्दर और जवान थे। अस्त्र-विद्या में निपुण थे और गुणवान भी थे । ययाति ने अपने पांचों बेटों से एक-एक करके प्रार्थना को कि अपनी जवानी थोड़े दिन के लिए मुझे दे दो। उन्होंने कहा--"प्यारे पुत्रो, तुम्हारे नाना शुक्राचार्य के शाप से मुझे अचानक ही बुढ़ापे ने दबा लिया है । अभी तक मैने भोग-विलास की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया । नियमपूर्वक कर्त्तव्य करने में ही मैने अपना सारा समय बिता दिया। मुझ बूढ़े पर दया करो और अपनी जवानी कुछ समय के लिए मुझे दे दो।
जो मेरा बुढ़ापा ले लेगा और मुझे अपनी जवानी दे देगा वही मेरे राज्य का अधिकारी होगा। मैं उसकी जवानी लेकर कुछ दिन भोग-विलास की इच्छा पूरी कर लेना चाहता हूं।" राजा की इस प्रार्थना के उत्तर में बड़े बेटे ने कहा--"पिताजी, आप यह क्या मांग रहे है ? अगर मैं आपको अपनी जवानी देकर आपका बुढ़ापा खुद ले लूं तो नौकर-चाकर और युवतियां मेरी हंसी नहीं उड़ायेंगी ? यह मुझसे नहीं हो सकता । मुझसे ज्यादा आपको मेरे भाई पर प्यार है । उसी से क्यों नहीं मांगते ?" दूसरे बेटे ने कहा-"बुढ़ापा आदमी को कमजोर बना देता है। रंग-रूप बिगाड़ देता है। बुद्धि भी बूढ़े की स्थिर नहीं रहती। आप मुझे कहते है कि ऐसा बुढ़ापा ले लूं । क्षमा कीजियेगा, पिताजी। मुझ में इतनी हिम्मत नहीं है।"
तीसरे बेटे ने भी इसी तरह साफ इन्कार कर दिया। उसने कहा-"बूढ़ा न हाथी पर चढ़ सकता है, न घोड़े पर ही सवार हो सकता है। उसकी जवानी लड़खड़ाती है। ऐसा बुढ़ापा लेकर मैं क्या करूं ? इससे तो मौत ही अच्छी। नहीं पिताजी, मैं आपको बात मान नहीं सकता।" जब इस तरह तीन बेटों ने इन्कार कर दिया तो राजा निराश से हो गये। उन्हें बड़ा क्रोध आया। फिर भी उन्होंने चौथे बेटे से बड़ी अनुनय-पूर्वक कहा-"प्यारे पुत्र, मैं असमय में ही बूढ़ा हो गया हूं। तुम थोड़े दिन के लिए मेरा बुढ़ापा अपने ऊपर ले लो और अपनी जवानी मुझे दे दो। कुछ दिन सुख-भोग करने के बाद में अपना बुढ़ापा वापस ले लूंगा और तुम्हारी जवानी लौटा दूंगा। इतनी दया तो मुझ पर करो !" चौथे बेटे ने कहा--"क्षमा कीजियेगा, पिताजी । बुढ़ापा पराधीनता का हो तो दूसरा नाम है। बूढ़े को बात-बात पर दूसरों का मुंह ताकना पड़ता है । अकेला चलते हुए भी वह लड़खड़ाता है। शरीर का मैल दूर करने तक के लिए उसे दूसरों का सहारा लेना पड़ता है। मैं अपनी स्वाधीनता खोना नहीं चाहता ।" चारों बेटों से कोरा जवाब पाकर राजा ययाति के शोक-संताप की सीमा न रही।
पांचवें बेटे पुरु से उन्होंने रुद्ध-कण्ठ से प्रार्थना की-"बेटा पुरु, तुमने कभी मेरी बात नहीं टाली । अब तुम्हीं मेरी रक्षा कर सकते हो। शुक्राचार्य के शाप से मुझे असमय में बूढ़ा होना पड़ा है। जरा देखो तो, सारे शरीर पर झुर्रियां पड़ी है। शरीर कांप रहा है। बाल एकदम पक गये हैं। इतना उपकार अपने पिता का करो कि मेरा बुढ़ापा कुछ समय के लिए ले लो और अपनी जवानी मुझे दे दो। जरा भोग की प्यास बुझा लूं, फिर तुम्हें तुम्हारी जवानी वापस दे दूंगा। अपने भाइयों की तरह तुम भी नाहीं न कर देना।"
पिता की यह प्रार्थना सुनकर पुरु से न रहा गया। उसका जी भर आया । वह बोला--"पिताजी ! आपकी आज्ञा सिर आंखों पर है। मैं खुशी-खुशी अपनी जवानी आपको दे देता हूं और आपका बुढ़ापा तथा राज-काज संभालने का बोझ अपने ऊपर ले लेता हूं।" ययाति ने यह सुनते ही पुत्र को प्रेम से गले लगा लिया । उसी समय पुत्र की जवानी ययाति को प्राप्त हो गई। पुरु बूढ़ा हो गया और राज-काज संभालने लगा । जवानी पाकर ययाति दोनों पत्नियों से बहुत दिन तक रति-क्रीड़ा करते रहे। जब पत्नियों से जो नहीं भरा तो यक्षराज कुबेर के नन्दन-वन में किसी अप्सरा के साथ कई वर्ष तक सुख भोगते रहे--इतने पर भी ययाति को प्यास नहीं बुझ सको। उनको कामवासना कम नहीं हुई; बल्कि भोग की इच्छा दिन-पर-दिन बढ़ती ही गई ।
तब ययाति अपने बेटे पुरु के पास लौट आये और उससे कहा"प्रिय पुत्र! मैने अनुभव करके जान लिया है कि कामवासना वह आग है, जो विषय-भोग से नहीं बुझती। मैने धर्म-ग्रन्थों में पढ़ा तो था कि जैसे घी डालने से आग बुझने के बजाय प्रबल हो उठती है वैसे ही विषय-भोग से लालसा बढ़ती ही जाती है, कम नहीं होती। इसको सचाई अब मुझे मालूम हुई। धन-दौलत और स्त्रियों के पाने से मनुष्य को लालसा कभी शान्त नहीं होती। वासनाएं तभी शान्त होती है जब मनुष्य इच्छाओं को अपने काबू में रक्खे । जिसमें न राग है, न द्वेष, वही शांति प्राप्त करता है । इसी स्थिति को ब्राह्मी-स्थिति कहते है।" बेटे को यह उपदेश देकर ययाति ने अपना बुढ़ापा उससे वापस ले लिया और पुरु को जवानी लौटा दी। पुरु को राजगद्दी पर बिठाकर वृद्ध ययाति वन में चले गए। वहां बहुत दिन तक तपस्या को और स्वर्ग सिधारे।
ययाति की कहानी
Reviewed by Tarun Baveja
on
April 17, 2021
Rating:

No comments: