विदुर कौन थे
महर्षि माण्डव्य का आश्रम नगर के बाहर किसी वन में था। माण्डव्य स्थिर-चित्त, सत्यवादी एवं शास्त्रज्ञ थे । आश्रम में ही रहते और तपस्या में समय बिताते थे। एक दिन वे आश्रम के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठे ध्यान कर रहे थे कि इतने में कुछ डाकू डाके का माल लिये उधर से आ निकले। राजा के सिपाही उनका पीछा कर रहे थे, इसलिए डाकू छिपने की जगह खोजते-खोजते उधर आये। आश्रम पर उनकी दृष्टि पड़ी तो सोचा कि इसमें छिपकर जान बचा लें। तेजी से आश्रम के भीतर घुस गये और डाके का माल एक कोने में गाड़ कर दूसरे कोने में छिप रहे । इतने में उनका पीछा करते हुए राजा के सैनिक भी वहां आ पहुंचे। ध्यान-मग्न बैठे माण्डव्य मुनि को देखकर सिपाहियों के सरदार ने उनसे पूछा--"इस रास्ते कोई डाकू आये है ? आये हैं तो किस रास्ते गए हैं ? जल्दी बताइए। वे राज्य में डाका डालकर आये हैं। हमें उनका पीछा करना है।" पर मुनि तो ध्यान में लीन थे। उन्होंने कुछ सुना ही नहीं। जवाब क्या देते !
सरदार ने दुबारा जरा उपट कर पूछा। फिर भी मुनि ने सुना नहीं। वे चुप रहे । इतने में कुछ सिपाहियों ने आश्रम के अन्दर तलाश करके देख लिया कि डाकू वहीं छिपे हुए हैं और डाके का माल भी आश्रम में ही गड़ा हुआ है । सैनिकों ने अपने सरदार को भी आश्रम में बुला लिया और डाकुओं को पकड़ कर हथकड़ी पहना दी। सिपाहियों के सरदार ने मन में सोचा--"अच्छा, यह बात है ? अब समझा कि ऋषि ने चुप्पी क्यों साध ली थी।" उसने माण्डव्य को डाकुओं का सरदार समझ लिया और सोचा कि उन्हीं को प्रेरणा से डाका डाला गया है।
इस विचार से उसने सिपाहियों को वहीं ऋषि को रखवाली के लिए छोड़ दिया और राजा दरबार में जाकर सारी बातें कह सुनाई। जब राजा ने सुना कि कोई ब्राह्मण डाकुओं का सरदार बना हुआ है और मुनि के वेष में लोगों को धोखा देता है तो उसे बहुत क्रोध आया। बिना विचारे ही आज्ञा दे दी कि उस दोषी दुरात्मा को अभी सूली पर चढ़ा दो। मारे क्रोध के राजा को यह भी सुध न रही कि जरा जांच-पड़ताल तो कर लें। निर्दोष माण्डव्य को सैनिकों के सरदार ने तुरन्त सूली पर चढ़ा दिया और उनके आश्रम में जो डाके का माल पाया गया उसे राजा के हवाले कर दिया।
महर्षि माण्डव्य तपस्या में लीन थे और उसी लीनावस्था में ही सूली पर चढ़ा दिये गये थे। तपस्या के कारण सूली का प्रभाव उन पर न पड़ सका। बहुत दिन तक वे जीवित रहे और सूली का दुःख सहते रहे। जब यह समाचार और तपस्वियों को मालूम हुआ तो आस-पास के जंगलों के कितने ही तपस्वी लोग माण्डव्य के पास आ पहुंचे और उनकी सेवा करने लगे। तपस्वियों ने ऋषि मांडव्य से पूछा--"महर्षि, आप तो बड़े पुण्यात्मा हं ! आपको किस कारण यह दारुण दुःख भोगना पड़ा है ?" शांति के साथ माण्डव्य ने कहा--"राजा संसार का रक्षक माना जाता है । जब उसी की आज्ञा से मुझे यह दण्ड मिला है तो मैं किसे दोष दूं ?" उधर राजा को खबर पहुंची कि महर्षि माण्डव्य सूली पर चढ़ाये जाने पर भी, भूखे-प्यासे रहते हुए भी, जीवित हैं। वन के रहने वाले बहुत-से ऋषि-मुनि उनको सेवा में लगे हैं।
यह खबर पाकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और भय भी। तुरन्त अपने परिवार के लोगों को साथ में लेकर धन में गया। जब सूली पर माण्डव्य को जीवित बैठे देखा तो सन्न रह गया। उसे अपनी भूल मालूम हुई। उसने फौरन आज्ञा दी कि मुनि को सूली पर से उतार दिया जाय । मुनि के उतरने पर वह उनके परों में गिर पड़ा और गिड़गिड़ाकर बोला--"अनजान में मुझसे यह भारी भूल हो गई है। कृपा करके मुझे क्षमा कर दें।" माण्डव्य को राजा पर क्रोध तो आया, पर उन्होंने उसे क्षमा कर दिया और वे धर्मदेव के पास गये।
धर्म को अपने आसन पर बैठे देखकर बोले--"धर्मदेव! कृपया यह तो बतायें कि मैने कौन-सा ऐसा पाप किया जो मुझे यह दारुण दुःख भोगना पड़ा?" माण्डव्य की तपस्या का बल धर्मराज जानते थे। उन्होंने बड़ी नम्रता के साथ प्राषि की आवभगत की और उसके बाद बोले-"महर्षि, आपने टिड्डियों और चिड़ियों को पकड़ कर सताया था। इसी पाप के फलस्वरूप आपको यह कष्ट भोगना पड़ा। आप जानते ही हैं कि जैसे थोड़े-से दान का बहुत फल मिलता है वैसे ही थोड़े से पाप का भी दण्ड बहुत मिल जाता है।"
धर्मराज की बात सुनकर माण्डव्य को अचरज हुआ। पूछा--"मैंने ऐसा पाप कब किया था ?" धर्मदेव ने कहा--"बचपन में।" यह सुनकर माण्डव्य को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने कहा--"बचपन में नासमझो से मैंने जो पाप किया उसका तुमने न्यायोचित मात्रा से अधिक दंड दिया। इस अन्याय के लिए मैं शाप देता हूं कि तुम मर्त्यलोक में मनुष्य-योनि में जन्म लो।" इस प्रकार माण्डव्य के शाप-वश विचित्रवीर्य की रानी अंबालिका को दासी की कोख से धर्मदेव का जन्म हुआ। वे ही आगे चलकर विदुर के नाम से प्रख्यात हुए।
विदुर धर्मदेव के अवतार थे । धर्म-शास्त्र तथा राजनीति में उनका ज्ञान अथाह था। वे बड़े निस्पृह थे। क्रोध उन्हें छू तक नहीं गया था, संसार के बड़े-बड़े लोग उनको महात्मा कहकर पूजते थे। उनका सुयश सारे संसार में फैला हुआ था । युवावस्था में ही पितामह भीष्म ने उनके विवेक तथा ज्ञान से प्रभावित होकर उन्हें राजा धृतराष्ट्र का प्रधान मंत्री नियुक्त कर दिया था । तीनों लोकों में महात्मा विदुर जैसा धर्म-निष्ठ या नीतिमान कोई नहीं था। जिस समय धृतराष्ट्र ने जुआ खेलने की अनुमति दी थी, विदुर ने धृतराष्ट्र से बहुत आग्रह-पूर्वक निवेदन किया--"राजन्, मेरे प्रभु ! मुझे यह काम ठीक नहीं जंचता। इस जुए के खेल के कारण आपके बेटों में आपसी बैर-भाव बढ़ेगा। इस कुचाल को रोक दीजिये।" धृतराष्ट्र विदुर की बात से प्रभावित हो गये और अपने बेटे दुर्योधन को अकेले में बुलाकर उसे इस कुचाल से रोकने का प्रयत्न किया। प्रेम के साथ वह बेटे से बोले-- "गांधारी के लाल ! इस जुए के खेल को विदुर ठीक नहीं समझता। इस विचार को तुम छोड़ दो। विदुर बड़ा बुद्धिमान है, हमेशा हमारा भला चाहता आया है। उसका कहा मानने में हमारी भलाई है। भूत तथा भविष्य की बातें जानने वाले बृहस्पति ने जितने शास्त्र के ग्रंथ रचे हैं, विदुर ने उन सबका ज्ञान प्राप्त किया है। यद्यपि विदुर मुझसे उमर में छोटा है फिर भी हमारे कुल का वही प्रधान समझा जाता है । वत्स ! जुआ खेलने का विचार छोड़ दो। विदुर कहता है कि उससे विरोध बहुत बढ़ेगा। उसका कहना है कि यह राज्य के नाश का कारण हो जायेगा, छोड़ दो इस विचार को।" इस तरह कई मीठी बातों से धृतराष्ट्र ने अपने बेटे को सही रास्ते पर लाने का प्रयत्न किया ; किंतु दुर्योधन न माना ।
बूढ़े धृतराष्ट्र अपने बेटे को बहुत प्यार करते थे। इस कमजोरी के कारण उसका अनुरोध वे टाल न सके और युधिष्ठिर को जुए के खेल के लिए न्यौता भेजना ही पड़ा। धृतराष्ट्र पर बस न चला तो विदुर युधिष्ठिर के पास गये । उनको जुआ खेलने जाने से रोकने का प्रयत्न किया। इस खेल को बुराइयां बताई। युधिष्ठिर ने चाचा विदुर की बातें ध्यानपूर्वक सुनी और बड़े आदर के साथ बोले-- "चाचाजी! मैं भी यह जानता हूं, पर जब धृतराष्ट्र बुला रहे हों तो मैं कैसे इन्कार करूं ? युद्ध या खेल के लिए बुलाये जाने पर न जाना क्षत्रिय का धर्म तो नहीं है ।" कह कर युधिष्ठिर कुल की मर्यादा रखने के लिए जुआ खेलने गए ।
विदुर कौन थे
Reviewed by Tarun Baveja
on
April 17, 2021
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