कुंती किसकी पुत्री थी
यदुवंश के प्रसिद्ध राजा शूरसेन श्रीकृष्ण के पितामह थे। इन राजा शूरसेन के पृथा नाम की कन्या थी। उसके रूप और गुणों को कोति दूर-दूर तक फैली हुई थी। शूरसेन के फुफेरे भाई कुन्तीभोज के कोई सन्तान न थी। शूरसेन ने कुन्तीभोज को वचन दिया था कि उसको जो पहली संतान होगी उसे कुन्तीभोज को गोद दे देंगे। उसी के अनुसार शूरसेन ने पृथा कुंतीभोज को गोद दे दी। कुंतीभोज के यहां आने पर पृथा का नाम कुंती पड़ गया ।
कुंती के बचपन में एक बार दुर्वासा ऋषि कुंतीभोज के यहां पधारे। कुन्ती एक वर्ष तक बड़ी सावधानी व सहनशीलता के साथ उनकी सेवाशुश्रूषा करती रही। उसके सेवा-भाव से दुर्वासा ऋषि प्रसन्न हुए और एक देवी मन्त्र का उसे उपदेश दिया और बोले---- "कुन्तीभोज-कन्ये, यह मंत्र पढ़कर तुम जिस किसी भी देवता का ध्यान करोगी, वह तुम्हारे सामने प्रकट होगा तथा अपने ही समान एक तेजस्वी पुत्र तुम्हें प्रदान करेगा।" महर्षि दुर्वासा ने दिव्य ज्ञान से यह मालूम कर लिया था कि कुंती को अपने पति से कोई संतान नहीं होगी। इसी कारण उन्होंने उसे ऐसा वर दिया।
कुंती बालिका ही थी। उत्सुकतावश उसे यह जानने की इच्छा हुई कि जो मंत्र मिला है उसका प्रयोग करके क्यों न देखा जाय ? आकाश में भगवान् सूर्य अपनी प्रकाशमान किरणें फैला रहे थे। कुंती ने उन्हीं का ध्यान कर के मंत्र पढ़ा। तुरन्त ही क्या देखती है कि आकाश में बादल छा गये। वह आश्चर्य के साथ इस दृश्य को देख रही थी कि इतने में स्वयं भगवान् सूर्य एक सुन्दर युवक के रूप में उसके सामने आ खड़े हुए। उनको कान्ति में ऐसा आकर्षण था कि मन एकाएक उनकी ओर खिचा जाता था। इस अद्भुत् घटना को देखकर कुंती चकित रह गई और घबराहट के साथ पूछा-- “भगवन् ! आप कौन है ?" सूर्य ने कहा-- “प्रिये ! मैं आदित्य हूं । तुमने मेरा आह्वान करके मंत्र पढ़ा था, इसलिए तुम्हें पुत्र-दान देने आया हूं।" कुंती भय से कांपती हुई बोली-- "भगवन् ! मैं अभी कन्या हूं। पिता के अधीन हूं। कौतूहलवश दुर्वासा मुनि के पढ़ाये हुए मंत्र का प्रयोग कर बैठी। मुझ नादान लड़की का अपराध क्षमा कर दें।" परन्तु मंत्र के खिचाव के कारण लोक-निन्दा से सूर्य वापस न जा सके। उन्होंने डरती हुई बालिका कुंती को प्रेम से समझाया और धीरज बंधाकर बोले--- "राज-कन्ये ! डरो मत। मैं तुम्हें वर देता हूं कि तुम्हें कोई कलंक न लगेगा। मेरे साथ संयोग होने के बाद भी तुम कुंआरी ही रहोगी।" अन्त में कुंती ने मान लिया। सारे संसार को प्रकाश तथा जीवन देने वाले सूर्य के संयोग से कुमारी कुंती ने सूर्य के ही समान तेजस्वी एवं सुन्दर बालक को जन्म दिया।
स्वाभाविक कवच और कुण्डलों से शोभित यही बालक आगे चलकर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण के नाम से विख्यात हुआ। बालक के जन्मते ही सूर्य के वरदान से कुंती फिर कुमारी हो गई।
अब कुंती को लोक-निन्दा का डर हुआ। बहुत सोचने के बाद उसने बच्चे को छोड़ देना ही उचित समझा। बच्चे को एक सन्दूक में बड़ी सावधानी के साथ रखकर उसे गंगा की धारा बहा पेटी नदी में तैरती हुई आगे निकल गई। बहुत आगे जाकर अधिरथ नाम के एक सारथी की नजर उस पर पड़ी। उसने पेटी निकाली और खोलकर देखा तो उसमें एक सुन्दर बच्चा पड़ा मिला। अधिरथ निःसंतान था। बालक पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उसे घर जाकर अपनी स्त्री को दे दिया। सूर्य-पुत्र कर्ण इस तरह एक सारथी के घर में पलने लगा। इधर कुंती विवाह के योग्य हुई ।
राजा कुंतीभोज ने उसका स्वयंवर रचा। कुंती की अनुपम सुन्दरता और मधुर गुणों का यश दूर तक फैला हुआ था। उससे ब्याह करने की इच्छा से देश-विदेश के अनेक राजकुमार स्वयंवर में आये । हस्तिनापुर के राजा पाण्डु भी स्वयंवर में शरीक थे। राजकुमारी कुंती हाथ में वरमाला लिये मंडप में आई तो उसकी निगाह एक राजकुमार पर पड़ी जो अपने तेज से दूसरे सारे राजकुमारों के तेज को फीका कर रहा था। कुंती ने उसी के गले में वरमाला डाल दी। वह राजकुमार भरतश्रेष्ठ महाराजा पांड थे। महाराजा पांडु कुंती से ब्याह करके उसे हस्तिनापुर ले गये। उन दिनों राजवंशों में एक से अधिक व्याह करने को प्रथा प्रचलित थी। ऐसे ब्याह भोग-विलास के लिए नहीं, बल्कि वंश-परम्परा को चालू रखने की इच्छा से किये जाते थे। इसी रिवाज के अनुसार पितामह भीष्म की सलाह से पांडु ने मदराज को कन्या माद्री से भी ब्याह कर लिया।
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Reviewed by Tarun Baveja
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April 18, 2021
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