पांडु की मृत्यु
एक दिन महाराज पाण्डु ने शिकार खेलते-खेलते एक हिरन पर तीर चलाया । वह हिरन न था, बल्कि हिरन का रूप लिये हुए एक ऋषि थे। तीर की चोट से ऋषि के प्राण निकल गये। मरने से पहले ऋषि ने क्रुद्ध होकर पाण्डु को शाप दिया कि पत्नी से सम्भोग करते ही तुम्हारी मृत्यु हो जायगी। ऋषि के शाप से पाण्डु को बड़ा दुःख हुआ। साथ हो अपनी भूल से बड़े खिन्न होकर नगर लौटे और पितामह भीष्म तथा विदुर के हाथों राज्य का भार सौंप कर अपनी पत्नियों के साथ बन में चले गए और वहां प्रती ब्रह्मचारी का-सा जीवन व्यतीत करने लगे। बन में रहते हुए महाराज पाण्डु को इस बात की चिन्ता हुई कि मेरे पीछे वंश का अन्त न हो जाय।
उनके अनुरोध से कुन्ती और माद्री ने महर्षि दुर्वासा के दिये मंत्र का प्रयोग करके देवताओं के अनुग्रह से पांचों पाण्डवों को जन्म दिया। वन में ही पांचों का जन्म हुआ और वहीं तपस्वियों के संग वे पलने लगे। अपनी दोनों स्त्रियों तथा बेटों के साथ महाराज पाण्डु कई बरस बन में रहे । वसन्त की ऋतु थी। लताएं रंग-बिरंगे फूलों से लदी थीं। चिड़ियां चहक रही थीं। सारा बन ही आनन्द में डूबा हुआ-सा प्रतीत हो रहा था। महाराज पाण्डु माद्री के साथ प्रकृति की इस उद्गारमय सुषमा को निहार रहे थे। हठात् उनके मन में ऋतु के प्रभाव से कामवासना सजग हो उठी। उन्होंने माद्री से सम्भोग करना चाहा। माद्री ने बहुत रोका, परन्तु पांडु ने न माना। कामवश बुद्धि खो बैठे और माद्री से सम्भोग कर ही लिया। ऋषि के शाप से सम्भोग करते ही उनकी मृत्यु हो गई।
पति को मृत्यु का में ही कारण बनी, यह सोचकर माद्री को महा दुःख हुआ। अतः पाण्डु के दाहकर्म के साथ आप भी जलती चिता पर लेट गई और प्राण-त्याग कर दिया । इस दुर्घटना से कुंती और पांचों पाण्डवों के शोक की सीमा न रहो। ऐसा प्रतीत हुआ कि यह दुःख उनसे सहा न जायगा। पर वन के ऋषिमुनियों ने बहुत समझा-बुझाकर उनको शान्त किया और उन्हें हस्तिनापुर ले जाकर पितामह भीष्म के हवाले किया। युधिष्ठिर की उम्र उस समय सोलह वर्ष की थी। हस्तिनापुर के लोगों ने जब ऋषियों के मुंह से सुना कि बन में पाण्डु को मृत्यु हो गई तो उनके शोक और सन्ताप को सीमा न रही। भीष्म, विदुर आदि बन्धुजनों ने यथा-विधि श्राद्ध-कर्म किया। सारे राज्य के लोगों ने ऐसा शोक मनाया मानो उनका कोई सगा मर गया हो।
पोते की मृत्यु पर विचार करती हुई सत्यवती को समझाते हुए व्यासजी बोले--- "अतीत सुखकर ही रहा । भविष्य में बड़े दुःख तथा संकट की संभावना है । पृथ्वी की जवानी बीत चुकी है। अब वह समय आने वाला है जो छल-प्रपंच एवं पापों से भरा होगा। भरतवंश पर बड़ी विपत्ति पड़ने वाली है। तुम्हारे लिए अच्छा यही होगा कि अपने वंश की दुर्गति को देखो ही नहीं। बन में जाकर तपस्या करो। वही श्रेयस्कर होगा।" सत्यवती व्यासजी की यह बात मानकर अपनी दोनों विधवा पुत्रवधुओं--अम्बिका और अम्बालिका को साथ लेकर बन में चली गई। तीनों वृद्धाएं थोड़े दिन तक तपस्या करती रहीं और बाद में स्वर्ग सिधार गई। मानो अपने कुल में जो छल-प्रपंच तथा अन्याय होने वाले थे उन्हें न देखना ही उन्होंने उचित समझा ।
पांडु की मृत्यु
Reviewed by Tarun Baveja
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April 18, 2021
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