अम्बा और भीष्म / amba or bhishma

अम्बा और भीष्म / amba or bhishma

सत्यवती के पुत्र चित्रांगद बड़े ही बीर पर स्वेच्छाचारी थे। एक बार किसी गन्धर्व के साथ हुए युद्ध में वह मारे गए। उनके कोई पुत्र न था, इसलिए उनके छोटे भाई विचित्रवीर्य हस्तिनापुर की राजगद्दी पर बैठे। विचित्रवीर्य की आयु उस समय बहुत छोटी थी। इस कारण उनके बालिग होने तक राज-काज भीष्म को ही संभालना पड़ा। जब विचित्रवीर्य जवान हो चले तो भीष्म को उनके विवाह को चिन्ता हुई। इसी समय उन्हें खबर मिली कि काशीराज को कन्याओं का स्वयंवर होने वाला है। यह जानकर भीष्म बड़े खुश हुए और स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिए काशी रवाना हो गये। काशीराज को कन्याएं अपूर्व सुन्दरियां थीं। उनके रूप और गुण का यश दूर-दूर तक फैला हुआ था। इसलिए देश-विदेश के असंख्य राजकुमार उनके स्वयंवर में भाग लेने के लिए आये हुए थे। 

 स्वयंवर-मण्डप उनकी भीड़ से खचाखच भरा हुआ था। बड़ी स्पर्धा लगी थी। भीष्म की प्रतिष्ठा क्षत्रियों में अद्वितीय थी। उनके महान् त्याग तथा भीषण प्रतिज्ञा का हाल सब जानते थे। इसलिए जब वह स्वयंवर मंडप में प्रविष्ट हुए तो राजकुमारों ने सोचा कि वह सिर्फ स्वयंवर देखने के लिए आये होंगे। परन्तु जब स्वयंबर में सम्मिलित होनेवालों में उन्होंने भी अपना नाम दिया तो बिचारों को निराश होना पड़ा। उनको क्या पता था कि वृढ़वत भीष्म अपने लिए नहीं, किन्तु अपने भाई के लिए स्वयंवर में सम्मिलित हुए हैं ! सभा में खलबली मची। चारों ओर से भीष्म पर फब्तियां कसी जाने लगी--"माना कि भारत-श्रेष्ठ भीष्म बड़े बुद्धिमान और विद्वान् है, किंतु साथ ही बूढ़े भी तो हैं। स्वयंवर से इनसे मतलब? इनके प्रण का क्या हुआ ? क्या इन्होंने मुफ्त ही में यश कमाया था ? जीवनभर ब्रह्मचारी रहने की इन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी क्या वह झूठी ही थी ?" इस भांति सब राजकुमारों ने भीष्म की हंसी उड़ाई, यहां तक कि काशीराज की कन्याओं ने भी वृद्ध भीष्म की तरफ से वृष्टि फेर ली और उनकी परवाह किये बिना आगे को चल दीं । 

अभिमानी भीष्म इस अवहेलना को न सह सके। मारे क्रोध के उनकी आंखें लाल हो गई। उन्होंने सभी इकट्ठे राजकुमारों को युद्ध के लिए ललकारा और अकेले ने तमाम राजकुमारों को तितर-बितर कर दिया। तीनों राजकन्याओं को बलपूर्वक लाकर रथ पर बिठा लिया और हस्तिनापुर की तरफ घोड़े दौड़ा दिये। सौभ देश का राजा शाल्व बड़ा ही स्वाभिमानी था। काशीराज की सबसे बड़ी कन्या अम्बा उस पर रोझी हुई थी और उसको मन में पति मान लिया था। शाल्व ने भीष्म के रथ का पीछा किया और उसको रोकने का प्रयत्न किया। इस पर भीष्म और शाल्व के बीच घोर युद्ध छिड़ गया। शाल्व बड़ा बोर था अवश्य, परन्तु धनुष के धनी भीष्म के आगे कब तक ठहर सकता था ? भीष्म ने उसे हरा कर ही छोड़ा; किंतु काशीराज को कन्याओं को प्रार्थना स्वीकार कर उन्होंने उसे जीता ही छोड़ दिया । 

भीष्म काशीराज को कन्याओं को लेकर हस्तिनापुर पहुंचे विचित्रवीर्य के व्याह की सारी तैयारी हो जाने के बाद जब कन्याओं को विवाह-मण्डप में ले जाने का समय आया तो काशीराज की जेठी लड़की अम्बा एकांत में भीष्म से मुस्कराती हुई बोली "गांगेय, आप बड़े धर्मज्ञ हैं। मेरी एक शंका है, उसे आप ही दूर कर सकते हैं। मैंने अपने मन में सौभ-देश के राजा शाल्व को पति मान लिया था। उसके बाद ही आप बलपूर्वक मुझे यहां ले आये थे। आप सब शास्त्र जानते हैं। मेरे मन की बात जानने के बाद अब मेरे बारे में जो उचित समझें, करें।" 

धर्मात्मा भीष्म को अम्बा की बात जंची। उन्होंने अम्बा को उसकी इच्छानुसार उचित प्रबन्ध के साथ शाल्व के पास रवाना कर दिया और अम्बा की दोनों बहनों--अम्बिका और अम्बालिका का विचित्रवीर्य के साथ विवाह कर दिया । अम्बा अपने मनोनीत वर सौभराज शाल्व के पास गई और सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसने कहा-"राजन् ! मैं आपको अपना पति मान चुकी हूं। मेरे अनुरोध से भीष्म ने मुझे आपके यहां भेजा है। आप शास्त्रोक्त विधि से मुझे अपनी पत्नी स्वीकार कर लें।" पर शाल्व ने न माना। उसने अंबा से कहा-- "कई राजकुमारों के सामने भीष्म ने मुझे युद्ध में पराजित किया और तुम्हें बलपूर्वक हर ले गये थे। मैं खूब अपमानित हो चुका हूं। इसके बाद मैं तुम्हें कैसे स्वीकार कर सकता हूं ? तुम्हारे लिए उचित यही है कि तुम भीष्म के पास ही चली जाओ और उनकी सलाह के मुताबिक काम करो।" 

यह कह कर सौभराज शाल्व ने प्रणय-कामिनी अंबा को भीष्म के पास वापस लौटा दिया। महाभारत कथा विचारी अंबा हस्तिनापुर लौट आई और भीष्म को सब हाल कह सुनाया। उन्होंने विचित्रवीर्य से कहा--"वत्स, राजा शाल्व अंबा को स्वीकार नहीं करता। इससे विदित होता है कि उसकी इच्छा अंबा को पत्नी बनाने की न थी। अब इसके साथ तुम्हारे ब्याह कर लेने में कोई आपत्ति नहीं रही।" पर विचित्रवीर्य अंबा से ब्याह करने को राजी न हुए, आखिर क्षत्रिय जो ठहरे ! बोले--"भाई साहब, इसका मन एक बार राजा शाल्व पर रीझ चुका है और यह उन्हें मन में पति मान चुकी है । क्षत्रिय होकर ऐसी स्त्री से मैं कैसे ब्याह करूं ?" विचारी अंबा पर 'माया मिली न राम' वाली कहावत सार्थक हो गई। अब उसने और कोई रास्ता न देख भीष्म ही को आ घेरा । बोली- "मैं दोनों तरफ से गई। मेरा कोई सहारा न रहा । आप ही मुझे हर लाये । अतः यह आप ही का कर्तव्य है कि मेरे साथ ब्याह कर लें।" 

भीष्म ने उस चंचल युवती को अपनी प्रतिज्ञा को याद दिलाई और कहा--- "अपनी प्रतिज्ञा को मैं नहीं तोड़ सकता।" उन्होंने कर्त्तव्य से प्रेरित होकर विचित्रवीर्य को दुबारा आग्रह किया कि अंबा से ब्याह कर लो, पर उन्होंने न माना । तो भीष्म ने अंबा को समझा कर कहा कि सौभराज शाल्व ही के पास जाओ और फिर प्रार्थना करो। लेकिन अंबा को दुबारा शाल्व के पास जाते लज्जा आई। उसने भीष्म से बहुत आग्रह किया कि उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करलें । कई वर्ष तक वह भीष्म के हो महल में रही भी; किन्तु भीष्म अपनी प्रतिज्ञा से टस-से-मस न हुए। लाचार होकर अंबा फिर शाल्व के पास गई और उसने बहुत मिन्नतें की। 

लेकिन दूसरे की जीती हुई कन्या को स्वीकार करने से सौभराज ने साफ इन्कार कर दिया । कमल नयनी अम्बा इसी भांति छ: साल तक हस्तिनापुर और सौभ-देश के बीच ठोकरें खाती फिरती रही। रो-रोकर विचारी के आंसू अम्बा और भीष्म कि भीष्म का युद्ध तक सूख गये । उसके दग्ध हृदय के टुकड़े-टुकड़े हो गये। फिर भी उसको पूछने वाला कोई न रहा । भीष्म ही को उसने अपने इस सारे दुःख का कारण समझा। उन पर उसे बहुत क्रोध आया। प्रति हिंसा की आग उसके मन में जलने लगी। 

भीष्म से बदला लेने की इच्छा से उसने कई राजाओं को अपना दुखड़ा सुनाया और भीष्म से लड़कर उनका वध करने की प्रार्थना की। पर राजा लोग तो भीष्म के नाम से डरते थे। किसी में इतना साहस न था में सामना करे। जब मनुष्यों से उसको कामना पूरी न हो सकी तो अम्बा ने भगवान कात्तिकेय का ध्यान करके घोर तपस्या की। अन्त में उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर कात्तिकेय प्रकट हुए और सदा ताजा रहने वाले कमल के फूलों को एक माला अम्बा के हाथ में देते हुए कहा-- "जो इसे पहनेगा वह भीष्म का शत्रु होगा ।" माला पाकर अंबा बहुत खुश हुई। उसने सोचा कि अब मेरी इच्छा पूरी होगी। माला लेकर वह फिर कई राजाओं के द्वार पर गई और प्रार्थना को कि कोई भी भगवान कात्तिकेय का दिया हुआ यह हार पहन ले और भीष्म से युद्ध करे। पर किसी क्षत्रिय में इतनी हिम्मत न थी कि महान् पराक्रमी भीष्म से शत्रुता मोल ले। 

अब अंबा कुछ निराश हुई। लेकिन फिर भी हिम्मत न हारी। उसन सुना था कि पांचाल के राजा द्रुपद बड़े प्रतापी वीर है। अम्बा उसके पास गई और भीष्म से लड़ने के लिए प्रार्थना की। जब उन्होंने भी न माना तो उसकी आशा पर एकदम पानी फिर गया। हताश हो द्रुपद के ही महल के द्वार पर माला टांग कर चली गई। उसके उद्विग्न हृदय को कहीं शान्ति न मिली। मानो व्यथा ही उसकी सहेली बन गई। क्षत्रियों से एकदम निराश होकर अंबा ने तपस्वी ब्राह्मणों की शरण ली और उनसे कहा कि भीष्म ने कैसे उसके जीवन को सुख से रहित महाभारत-कथा और अपमानपूर्ण बना दिया है तपस्वियों ने कहा--"बेटी, परशुराम के पास जाओ और तुम्हारी इच्छा वे अवश्य पूरी करेंगे।" ऋषियों को सलाह पर अंबा क्षत्रिय-दमन परशुराम के पास गई। 

अंबा की करुण कहानी सुनकर परशुराम का हृदय पिघल गया। उन्होंने दया स्वर में कहा- “काशीराज-कन्ये, अब तुम मुझसे क्या चाहती हो ? यदि तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं शाल्व से तुम्हारा व्याह करा दूं तो मैं प्रस्तुत हूं। शाल्व मेरा प्रिय है। वह मेरा कहा अवश्य मानेगा ।" अंबा ने कहा--"ब्राह्मण-वीर, में ब्याह करना नहीं चाहती। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि आप भीष्म से युद्ध करें और भीष्म हो के वध की मैं आपसे भीख मांगती हूं।" परशुराम को अंबा की प्रार्थना पसंद आई। क्षत्रियों के शत्रु जो ठहरे ! बड़े उत्साह के साथ भीष्म के पास गये और उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। दोनों कुशल योद्धा थे और धनुष-विद्या के मर्मज्ञ भी। दोनों ही जितेंद्रिय थे-- ब्रह्मचारी थे । समान योद्धाओं की टक्कर थी। 

कई दिन तक युद्ध होता रहा, फिर भी हार-जीत का निश्चय न हो सका। अन्त में परशुराम ने हार मान ली और उन्होंने अंबा से कहा"जो कुछ मेरे बस में था कर चुका । अब तुम्हारे लिए यही उचित है कि भीष्म ही की शरण लो।" अंबा के क्षोभ और शोक की सीमा न रही। निराश होकर वह हिमालय पर चली गई और कैलासपति परमेश्वर को लक्ष्य करके कठोर तपस्या आरंभ की। कलासनाथ उससे प्रसन्न हुए और उसे दर्शन देकर बोले-- "पुत्री, अगले जन्म में तुम्हारे हाथों भीष्म की मृत्यु होगी।" यह कहकर कैलासपति अन्तर्धान हो गये । अंबा भीष्म से जितनी जल्दी हो सके बदला लेने के लिए उत्कंठित अम्बा और भीष्म हो उठी। स्वाभाविक मृत्यु तक ठहरना भी उसको दूभर मालूम हुआ। 

उसने एक भारी चिता जलाई। क्रोध के कारण उसकी आंखें अग्नि ही के समान प्रज्वलित हो उठीं। जब उसने धधकती हुई आग में कूदकर प्राणों की आहुति दी तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो अग्नि से अग्नि भेंट रही हो। महादेव के वरदान से अंबा दूसरे जन्म में राजा द्रुपद को कन्या हुई। पिछले जन्म की बातें उसे भली भांति याद थीं। जब वह जरा बड़ी हुई तो खेल-खेल में भवन के द्वार पर टंगी हुई वह कमल के फूलों को माला, जो अंबा को भगवान कात्तिकेय से प्राप्त हुई थी, उठाकर अपने गले में डाल ली। कन्या को इस बात को देखकर राजा द्रुपद घबरा उठे । सोचा-इस पगली कन्या के कारण भीष्म का बर क्यों मोल लूं ? यह सोचकर राजा द्रुपद ने उसे अपने घर से निकाल दिया । अंबा ऐसी बातों से कब विचलित होने वाली थी ? उसने वन में जाकर फिर तपस्या को और तपोबल से स्त्री-रूप छोड़कर पुरुष बन गई। अपना नाम उसने शिखण्डी रख लिया ।

 जब कौरवों तथा पाण्डवों के बीच कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध हुआ तो शिखण्डी अर्जुन का सारथी बना। भीष्म के विरुद्ध लड़ते समय शिखण्डी ने ही अर्जुन का रथ चलाया था। शिखण्डी रथ के आगे बैठा था और अर्जुन ठीक उसके पीछे । ज्ञानी भीष्म को यह बात मालूम थी कि अंबा ने ही शिखण्डी का रूप धारण कर लिया है। इसलिए किसी भी हालत में उसपर बाण चलाना उन्होंने अपनी वीरोचित प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझा। शिखण्डी को आगे करके अर्जुन ने भीष्म पितामह पर धावा किया और अन्त में उनपर विजय पा ही ली। जब भीष्म आहत होकर पृथ्वी पर गिरे तब जाकर अंबा का क्रोध शांत हुआ। 

अम्बा और भीष्म / amba or bhishma अम्बा और भीष्म / amba or bhishma Reviewed by Tarun Baveja on April 17, 2021 Rating: 5

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