कच और देवयानी की कथा

कच और देवयानी की कथा


 एक बार देवताओं और असुरों के बीच इस बात पर लड़ाई छिड़ी कि तीनों लोकों पर किसका आधिपत्य हो । देवताओं के गुरु थे बृहस्पति और असुरों के शुक्राचार्य । वेद-मन्त्रों पर बृहस्पति का पूर्ण अधिकार था। शुक्राचार्य का ज्ञान सागर जैसा अथाह था। इन्हीं दो ब्राह्मणों के बुद्धि-बल से देवासुर-संग्राम होता रहा । शुक्राचार्य को मृत-संजीवनी विद्या का ज्ञान था, जिसके सहारे युद्ध में जितने भी असुर मारे जाते उनको फिर से जिला देते थे। इस तरह युद्ध में जितने असुर खेत रहते वे शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या से जो उठते और फिर मोर्चे पर आ डटते। 

उधर देवताओं के पास यह विद्या न थी। देव-गुरु बृहस्पति संजीवनी विद्या नहीं जानते थे। इस कारण देवता सोच में पड़ गये। उन्होंने आपस में इकट्ठे होकर मंत्रणा की और एक युक्ति खोज निकाली। वे सब देव-गुरु बृहस्पति के पुत्र कच के पास गये और उनसे बोले-- "गुरुपुत्र ! तुम हमारा एक काम बना वो तो बड़ा उपकार हो। तुम अभी जवान हो और तुम्हारा सौन्दर्य मन को लुभाने वाला है। तुम हमारा काम आसानी से कर सकोगे। काम यह है कि तुम शुक्राचार्य के पास ब्रह्मचारी बनकर जाओ और उनकी खूब सेवा-टहल द्वारा उनके विश्वास-पात्र बनकर उनकी सुन्दरी कन्या का प्रेम प्राप्त करो और फिर शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीख लो।" कच ने देवताओं को प्रार्थना मान ली। शुक्राचार्य असुरों के राजा वृषपर्वा की राजधानी में रहते थे। 

कच वहां पहुंचकर असुर-गुरु के घर गया और आचार्य को दण्डवत करके  बोला--"आचार्य, मैं अंगिरा मुनि का पोता और बृहस्पति का पुत्र हूं। मेरा नाम कच है । आप मुझे अपना शिष्य स्वीकार करने की कृपा करें। मैं आपके अधीन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा ।" उन दिनों ब्राह्मणों में यह नियम था कि कोई सुयोग्य शिष्य किसी बुद्धिमान आचार्य से शिष्य बनने की प्रार्थना करे तो उसकी प्रार्थना अस्वीकार न की जाय । शर्त केवल यह थी कि शिष्य ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करे। इस कारण विपक्ष का होने पर भी शुक्राचार्य ने कच को प्रार्थना मान ली। उन्होंने कहा-- "बृहस्पति-पुत्र, तुम अच्छे कुल के हो। तुम्हें मैं अपना शिष्य स्वीकार करता हूं। इससे बृहस्पति भी गौरवान्वित होंगे।" कच ने ब्रह्मचर्य-व्रत को दीक्षा ली और शुक्राचार्य के यहां रहने लगा। वह बड़ी तत्परता के साथ शुक्राचार्य और उनकी कन्या देवयानी की सेवा-शुश्रूषा करने लगा। शुक्राचार्य अपनी पुत्री को बहुत चाहते थे ।

 कच देवयानी को प्रसन्न रखने का हमेशा प्रयत्न करता। उसको इच्छाओं का बराबर ध्यान रखता। इसका असर देवयानी पर भी हुआ । वह कच के प्रति आसक्त होने लगी, पर कच अपने ब्रह्मचर्य-ग्रत पर दृढ़ रहा । इस तरह कई वर्ष बीत गए । असुरों को जब पता चला कि देव-गुरु बृहस्पति का पुत्र कच शुक्राचार्य का शिष्य बना हुआ है तो उनको भय हुआ कि कहीं शुक्राचार्य से वह संजीवनी-विद्या न सीख ले। अतः उन्होंने कच को मार डालने का निश्चय किया। एक दिन कच जंगल में आचार्य को गायें चरा रहा था कि असुर उस पर टूट पड़े और उसके टुकड़े-टुकड़े करके कुत्तों को खिला दिया। सांझ हुई तो गायें अकेली घर लौटीं । 

जब देवयानी ने देखा कि गायों के साथ कच नहीं आया है तो उसके मन में शंका पैदा हो गई । उसका दिल धड़कने लगा। वह पिता के पास दौड़ी गई और बोली--"पिताजी, सूरज डूब गया । गायें भी अकेली वापस आ गई। आपका अग्निहोत्र भी समाप्त हो गया। फिर भी न जाने क्यों कच अभी तक नहीं लौटा । मुझे शक है कि जरूर उस पर . कोई-न-कोई विपत्ति आ गई होगी। उसके बिना मैं कैसे जिऊंगी ?" कहते-कहते देवयानी की आंखें भर आई। अपनी प्यारी बेटी को व्यथा शुक्राचार्य से न देखी गई । उन्होंने संजीवनी-विद्या का प्रयोग किया और मृत कच का नाम पुकार कर बोले--"आओ, कच! मेरे प्रिय शिष्य, आओ !" संजीवन-मन्त्र की शक्ति ऐसी थी कि शुक्राचार्य के पुकारते हो मरे हुए कच के शरीर के टुकड़े कुत्तों के पेट फाड़कर निकल आये और जुड़ गये। कच फिर सजीव हो उठा और गुरु के सामने हाथ जोड़कर आ खड़ा हुआ ।

उसके मुख पर आनन्द की झलक थी। देवयानी ने पूछा--"क्यों कच ! क्या हुआ था ? किसलिए इतनी देर हुई ?" कच ने सरल भाव से उत्तर दिया-"जंगल में गायें चराने के बाव लकड़ी का गट्ठा सिर पर रखे आ रहा था कि जरा थकावट मालूम हुई। एक बरगद के पेड़ की छाया में तनिक देर विश्राम करने बैठा। गायें भी पेड़ की ठंडी छांह में खड़ी हो गई। इतने में कुछ असुरों ने आकर पूछा-"तुम कौन हो ?" मैंने उत्तर दिया--"मैं बृहस्पति का पुत्र कच हूं।" उन्होंने तुरन्त मुझपर तलवार का वार किया और मुझे मार डाला। न जाने कैसे फिर जीवित हो गया हूं! बस इतनी ही बात है।" कुछ दिन और बीत गये। एक बार कच देवयानी के लिए फूल लाने जंगल आया। असुरों ने वहीं उसे घेर लिया और खत्म कर दिया और उसके टुकड़ों को पीसकर समुद्र में बहा दिया। इधर देवयानी कच को बाट जोह रही थी। जब शाम होने पर भी वह न लौटा तो घबराकर उसने अपने पिता से कहा। शुक्राचार्य ने पहले की भांति संजीवन-मन्त्र का प्रयोग किया। कच समुद्र के पानी से जीवित निकल आया और सारी बातें देवयानी को कह सुनाई। 

असुर इस प्रकार इस ब्रह्मचारी के पीछे हाथ धोकर पड़ ही गये। उन्होंने तीसरी बार भी कच की हत्या कर डाली, उसके मृत शरीर को जला कर भस्म कर दिया और उसकी राख मदिरा में घोलकर स्वयं शुक्राचार्य को पिला दी। शुक्राचार्य को मदिरा का बड़ा व्यसन था। असुरों की दी हुई सुरा बिना देखे-भाले पो गये । कच के शरीर की राख उनके पेट में पहुंच गई। सन्ध्या हुई, गायें घर लौट आई, पर कच न आया। देवयानी फिर पिता के पास आंखों में आंसू भर कर बोलो--"पिताजी! कच को पापियों ने फिर मार डाला मालूम होता है। उसके बिना मैं पलभर भी जी नहीं सकूँगी ।" शुक्राचार्य बेटी को समझाते हुए बोले--"मालूम होता है, असुर कच के प्राण लेने पर तुले हुए हैं। चाहे में कितनी ही बार उसे क्यों न जिलाऊं, आखिर वे उसे मारकर ही छोड़ेंगे। किसी की मृत्यु पर शोक करना तुम जैसी समझदार लड़को को शोभा नहीं देता। तुम मेरी पुत्री हो। तुम्हें किस बात की कमी है ! सारा संसार तुम्हारे आगे सर झुकाता है। फिर तुम्हें सोच किस बात का है ? व्यर्थ शोक न करो।" शुक्राचार्य ने हजार समझाया, किन्तु देवयानी न मानी। 

उस तेजस्वी ब्रह्मचारी पर वह जान देती थी। उसने कहा--'पिताजी, अंगिरा का पोता और बृहस्पति का बेटा कच कोई ऐसा-वैसा युवक नहीं है। वह अटल ब्रह्मचारी है । तपस्या ही उसका धन है। वह यत्नशील था और कार्य-कुशल भी । ऐसे युवक के मारे जाने पर मैं उसके बिना कैसे जी सकती हूं ? मैं भी उसी का अनुकरण करूंगी।" यह कह कर शुक्र-कन्या ने अनशन शुरू किया--खाना-पीना छोड़ दिया । असुरों पर शुक्राचार्य को बड़ा क्रोध आया। वे इस निश्चय पर पहुंचे कि असुरों का अब भला नहीं जो ऐसे ब्राह्मण को मारने पर तुले हुए हैं। यह निश्चय कर उन्होंने कच को जिलाने के लिए संजीवन-मन्त्र पढ़ा और पुकार कर बोले--"वत्स, आ जाओ।" 

उनके पुकारते ही कच जीवित हो उठा और आचार्य के पेट के अन्दर से बोला--"भगवन्, मुझे अनुगृहीत करें ।" अपने पेट के भीतर से कब को बोलते हुए सुनकर शुक्राचार्य बड़े अचरज में पड़ गये और पूछा--"हे ब्रह्मचारी ! मेरे पेट के अन्दर तुम कैसे पहुंचे ? क्या यह असुरों को करतूत है ? अभी बताओ। मैं इन पापियों का सत्यानाश कर दूंगा और देवताओं के पक्ष में चला जाऊंगा। जल्दी बताओ।" क्रोध के मारे शुक्राचार्य के ओंठ फड़कने लगे। कच ने शुक्राचार्य के पेट के अन्दर से ही सारी बातें बता दीं। महानुभाव, तपोनिधि तथा असीम महिमा वाले शुक्राचार्य को जब यह ज्ञात हुआ कि मदिरा-पान के ही कारण उन्हें यह धोखा खाना पड़ा तो अपने ही ऊपर उनको बड़ा क्रोध आया। तत्काल मनुष्य मात्र की भलाई के लिए यह अनुभव-वाणी उनके मुंह से निकल पड़ी--"जो मन्दबुद्धि अपनी नासमझी के कारण मदिरा पीता है धर्म उसी क्षण उसका साथ छोड़ देता है । वह सभी की निन्दा और अवज्ञा का पात्र बन जाता है। यह मेरा निश्चित मत है। आज से लोग इस बात को शास्त्र मान लें और इसी पर चलें।" इसके बाद शुक्राचार्य ने शांत होकर अपनी पुत्री से पूछा--"बेटी, यदि में कच को जिलाता हूँ तो मेरी मृत्यु हो जाती है, क्योंकि उसे मेरा पेट चौरकर ही निकलना पड़ेगा । बताओ, तुम क्या चाहती हो?" यह सुनकर देवयानी रो पड़ी। आंसू बहाती हुई बोली--"हाय, अब मैं क्या करूं ? कच के बिछोह का दुःख मुझे आग की तरह जला देगा और फिर आपकी मृत्यु के बाद में जीवित रह ही न सकेंगी। हाय, मैं तो दोनों तरफ से मरी ।" शुक्राचार्य कुछ देर सोचते रहे। उन्होंने दिव्य दृष्टि से जान लिया कि क्या बात है। वह कच से बोले--"बृहस्पति-पुत्र कच, अब तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी । देवयानी के लिए तुम्हें जिलाना ही पड़ेगा। साथ हो मुझे भी जीवित रहना होगा। इसके लिए केवल एक ही उपाय है 





कच और देवयानी २५ और वह यह कि तुम्हें संजीवनी विद्या सिखा दूंगा। तुम मेरे पेट के अन्दर ही वह सीख लो। फिर मेरा पेट फाड़कर निकल आओ। उसके बाद उसी विद्या से तुम मुझे जिला देना।" कच के मन की मुराद पूरी हो गई । उसने शुक्राचार्य के कहे अनुसार संजीवनी विद्या सीख ली और पूर्णिमा के चन्द्र की भांति आचार्य का पेट फाड़कर निकल आया। मूर्तिमान बुद्धि जैसे ज्ञानी शुक्राचार्य धड़ाम से मृत होकर गिर पड़े। थोड़ी ही देर में कच ने मन्त्र पढ़कर उनको जिला दिया । देवयानी के आनन्द की सीमा म रही । शुक्राचार्य जी उठे तो कच ने उनके आगे दण्डवत् की और अश्रुधारा से उनके पांव भिगोते हुए बोला--"अविद्वान् को विद्या पढ़ाने वाले आचार्य माता और पिता के समान है । आपने मुझे एक नई विद्या प्रदान की। इसके अलावा अब आपको कोख ही से मानो मेरा जन्म हुआ, सो आप सचमुच मेरे लिए मां के समान हैं।" इसके बाद कई वर्ष तक कच शुक्राचार्य के पास ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करता रहा । व्रत समाप्त होने पर गुरु से आज्ञा लेकर देवलोक लौटने को प्रस्तुत हुआ तो देवयानी ने उससे कहा--"अंगिरा मनि के पौत्र कच, तुम शीलवान हो, ऊंचे कुल के हो । इन्द्रिय-दमन करके तुमने तपस्या की और शिक्षा प्राप्त की। इस कारण तुम्हारा मुखमण्डल सूर्य की भांति तेजस्वी है । जब तुम ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन कर रहे थे तब मैंने तुमसे स्नेहपूर्ण व्यवहार किया था, अब तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम भी वैसा ही व्यवहार मुझसे करो। तुम्हारे पिता बृहस्पति मेरे लिए पूज्य है । सो तुम अब मुझसे यथाविधि ब्याह कर लो।" यह कहकर शुक्र-कन्या सलज्ज खड़ी रही । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि शुक्र-कन्या ने ऐसी स्वतन्त्रता से बातें कीं। वह जमाना ही ऐसा था जब शिक्षित ब्राह्मण-कन्यायें निर्भय तथा स्वतन्त्र होती थीं। मन की बात कहते झिझकती न थीं। इस बात को कितनी ही मिसालें हमारे पुराने ग्रंथों में पाई जाती हैं। महाभारत-कथा देवयानी की बात सुनकर कच ने कहा-"अकलंकिनी, एक तो तुम मेरे आचार्य की बेटी हो सो मेरा धर्म है कि मैं तुम्हें पूज्य समझू । दूसरे मेरा शुक्राचार्य के पेट से मानो पुनर्जन्म हुआ, इससे मैं तुम्हारा भाई बन गया हूं। तुम मेरी बहिन हो । अतः तुम्हारा यह अनुरोध न्यायोचित नहीं ।" किंतु देवयानी ने हठ नहीं छोड़ा। उसने कहा--"तुम तो बृहस्पति के बेटे हो, मेरे पिता के नहीं। तिस पर में शुरू से ही तुमसे प्रेम करती आई हूं। उसी प्रेम और स्नेह से प्रेरित होकर मैने पिता से तुम्हें तीन बार जिलाया। मेरा विशुद्ध प्रेम तुम्हें स्वीकार करना ही होगा।" देवयानी ने बहुत अनुनय-विनय को । फिर भी कच ने उसकी बात न मानी। तब मारे क्रोध के देवयानी की भौहें टेढ़ी हो गई । विशाल काली-काली आंखें लाल बन गई। यह देखकर कच ने बड़े नम्र भाव से कहा--"शुक्र-कन्ये ! तुम्हें में अपने गुरु से भी अधिक समझता हूं । तुम मेरी पूज्य हो । नाराज न होओ। मुझ पर दया करो। मुझे अनुचित कार्य के लिए प्रेरित न करो। मैं तुम्हारे भाई के समान हूं। मुझे स्वस्ति कहकर विदा करो। आचार्य शुक्रदेव को सेवा-टहल अच्छी तरह और नियमपूर्वक करती रहना। स्वस्ति ।" यह कहकर कच वेग से इन्द्रलोक चला गया । शुक्राचार्य ने किसी तरह अपनी बेटी को समझा-बुझाकर शांत किया। 

कच और देवयानी की कथा कच और देवयानी की कथा Reviewed by Tarun Baveja on April 17, 2021 Rating: 5

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