देवयानी का विवाह
असुर राजा वृषपर्वा की बेटी शर्मिष्ठा और शुक्राचार्य की बेटी देवयानी एक दिन अपनी सखियों के संग बन में खेलने गई। खेल-कूद के बाद कन्यायें तालाब में स्नान करने लगीं। इतने में हवा चली और सबको साड़ियां उलट-पुलट हो गईं। कन्यायें नहाकर बाहर निकल आई और जो भी कपड़ा हाथ में आया लेकर पहनने लगीं। इस गड़बड़ी में वृषपर्वा को बेटी शर्मिष्ठा ने धोखे से देवयानी की साड़ी पहन ली। देवयानी को विनोद सूझा । उसने शमिष्ठा से कहा-“अरी असुर की लड़की ! क्या तुम्हें इतना भी पता नहीं कि गुरु-कन्या का कपड़ा शिष्य की लड़की को पहनना नहीं चाहिए ? सचमुच तुम बड़ी नासमझ हो!" देवयानी को अपने ऊंचे कुल का घमंड तो जरूर था, लेकिन यह बात मजाक में ही उसने कही थी। राजकुमारी शर्मिष्ठा को इससे बड़ी चोट लगी। वह क्रोध के मारे आपे से बाहर हो गई और बोली-"अरी भिखारिन ! क्या भूल गई कि मेरे पिताजी के आगे तेरे गरीब बाप हर दिन सिर नवाते हैं और हाथ फैलाते हैं ? भिखारी की लड़की होकर तुझे यह घमण्ड ! अरी ब्राह्मणी ! याद रख कि मैं उस राजा की कन्या हूं जिसके लोग गुण गाते हैं और तू उस दोन ब्राह्मण को बेटी है जो मेरे पिता का दिया खाता है। इस फेर में न रहना कि हम ऊंचे कुल के हैं। मैं उस कुल की हूं जो देना जानता है, लेना नहीं। और तू उस कुल की है जो भीख मांगकर ही निर्वाह करता है। एक दीन ब्राह्मणी को यह मजाल कि मुझे तमीज सिखाये; धिक्कार है तुझे और तेरे कुल को।" यों असुर-राजकन्या बरस पड़ी।
उसके तीखे शब्द-बाण देवयानी से न सहे गये। वह भी क्रुद्ध हो उठी। राजकन्या और गुरुकन्या में देर तक तू-तू मैं-मैं होती रही । आखिर हाथापाई की नौबत आ पहुंची। ब्राह्मणी को कन्या भला असुर-राज की बेटी के आगे कहां ठहर सकती थी ? शर्मिष्ठा ने देवयानी के जोर का थप्पड़ लगाया और उसे एक अन्धे कुएं में धकेल दिया । दैवयोग से कुआं सूखा था । उसमें पानी नहीं था। असुर-कन्याओं ने देवयानी को मरी समझा और जल्दी से महल लौट गई। देवयानी कुएं में गिरी तो उसे बड़ी चोट आई। वैसे भी थकी हुई "मैं असुर-गुरु थी। कुआं काफी गहरा था। बिचारी ऊपर चढ़ न सकी और अन्दर पड़ी-पड़ी तड़पती रही ।
इतने में भरतवंश के राजा ययाति शिकार खेलते हुए संयोगवश उधर से आ निकले। उन्हें प्यास लगी थी और वे पानी खोजते-खोजते उस कुएं के पास पहुंचे। कुएं के अंदर झांका तो कुछ प्रकाशसा दीखा। वे एकदम आश्चर्य-चकित हो गये। अंदर उन्होंने बजाय पानी के एक तरुणी को खड़े देखा। उसका कोमल शरीर अंगारों की भांति प्रकाशमान था और उससे सौन्दर्य को आभा फूट रही थी । "तरुणी ! तुम कौन हो ? तुमने कुण्डल पहने हैं। तुम्हारे नाखून लाल हैं। तुम किसको बेटी हो ? और किस कुल को हो ? कुएं में कैसे गिर पड़ी ?" राजा ने आश्चर्य और अनुकंपा के साथ पूछा । देवयानी ने दाहिना हाथ बढ़ाते हुए राजा से कहाशुक्राचार्य की कन्या हूं। पिताजी को यह मालूम नहीं है कि कुएं में पड़ी हूं। कृपाकर मुझे बाहर निकाल दीजियेगा।"
राजा ने उसका दाहिना हाथ पकड़ कर उसे कुएं से बाहर निकाल लिया । शर्मिष्ठा से अपमानित होने पर देवयानी ने मन में निश्चय कर लिया था कि अब वृषपर्वा के राज्य में अपने पिताजी के पास वापस नहीं जाऊंगी। वहां जाने से बेहतर है कि कहीं वन में चली जाऊं। उसने ययाति से अनुरोध-पूर्ण स्वर में कहा-- "मालूम नहीं आप कौन है ? पर ऐसा लगता है कि आप बड़े शक्तिशाली, यशस्वी और चरित्रवान् हैं। आप कोई भी हों, मेरा दाहिना हाथ ग्रहण कर चुके है । अतः आपको मैने अपना पति मान लिया है। आप मुझे स्वीकार करें।" ययाति ने उत्तर दिया-- "हे तरुणी ! तुम ब्राह्मणी हो, शुक्राचार्य की बेटी, जो संसार भर के आचार्य होने योग्य है । मैं ठहरा साधारण क्षत्रिय । मैं तुम से ब्याह कैसे करूं ? इसलिए, देवी, मुझे आज्ञा दो और तुम भी घर चली जाओ।" यह कहकर राजा ययाति देवयानी से विदा होकर चल दिये ।
उस जमाने में कोई ऊंचे कुल का पुरुष निचले कुल की कन्या से विवाह कर लेता तो उसे अनुलोम विवाह कहते थे। निचले कुल के पुरुष के साथ ऊंचे की कन्या का विवाह प्रतिलोम कहा जाता था। प्रतिलोम विवाह मना किया गया था ; क्योंकि स्त्री के कुल को कलंक न लगने देना उन दिनों जरूरी समझा जाता था। यही कारण था कि ययाति ने देवयानी की प्रार्थना अस्वीकार कर दी। ययाति के चले जाने पर देवयानी वहीं कुएं के पास सांप की फुफकार की भांति आहे भरती और सिसकियां लेती हुई खड़ी रही। शमिष्ठा को बातों-रूपी वाणों ने उसके हृदय को छेद डाला था। वह घर नहीं जाना चाहती थी। शुक्राचार्य अपनी बेटी को प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। जब देवयानी देर तक वापस न आई तो वे घबराये। उन्होंने फौरन अपनी एक नौकरानी को लड़को की तलाश में भेज दिया।
नौकरानी अपनी कुछ सहेलियों को साथ लिये उस जंगल में खोजने चली गई, जहां देवयानी अपनी सखियों के साथ खेलने गई थी। आखिर एक पेड़ के नीचे देवयानी को खड़े देखा। उसकी आंखें बहुत रोने के कारण एकदम लाल हो गई थीं। मुख मलिन था और क्रोध के कारण ओठ कांप रहे थे। देवयानी का यह हाल देखकर सखियां घबरा गई और बड़ी आतुर होकर उन्होंने पूछा कि क्या बात हुई है ? देवयानी के मुख से मानो चिनगारियां निकलीं ! उसने कहा"पिताजी से जाकर कहना कि उनकी बेटी देवयानी वृषपर्वा के राज्य के अन्दर कदम न रक्खेगी।" देवयानी का हाल जानकर शुक्राचार्य बड़े दुःखी हुए। वे बेटी के पास दौड़े आये और उसे गले लगा लिया। दोनों खूब रोये । थोड़ी देर बाद आचार्य शुक्र शान्त हुए और अपनी बेटी को प्यार से दुलाराया, फिर मृदुल स्वर में समझाते हुए बोले- "बेटा, लोग अपने ही किये का फल भोगते हैं। बुराई का बुरा और भलाई का नतीजा भला हुआ ही करता है। किसी दूसरे की बुराई से हमें कुछ हानि नहीं पहुंच सकती। सो तुम किसी पर नाराज न होना । इसे अपने ही दोष का परिणाम समझना ।"
अपमानित देवयानी को ऐसी बातों से शांति नहीं मिली। वह बोलो-"पिताजी, मुप्तमें दोष हो सकते हैं। लेकिन चाहे दोष हों या गुण, उनकी जिम्मेदारी सिर्फ मुझ पर ही है । दूसरों का उनसे कोई मतलब नहीं। तब वृषपर्वा की लड़की ने क्यों कहा कि तेरा बाप राजाओं की चापलूसी करता है, भिखारी है। पिताजी, क्या यह बात सच है ? आप चापलूसी करने वाले है ? वृषपर्वा के आगे सिर नवाते है ? भिखारी की तरह हाथ फैलाते हैं ? एक मूर्ख असुर की लड़की ने मेरा इतना अपमान किया था ! फिर भी मैं चुप रही। प्रतिवाद नहीं किया। ऊपर से उस दानवी ने मुझे मारा-पीटा और कुएं में धकेल कर चली गई। फिर भी आप कहते हैं कि मैं घर वापस लौट आऊं। पिताजी, आप ही बताइए कि इतना अपमानित होने के बाद शर्मिष्ठा के पिता के राज्य में मैं कैसे रहूं?" यह कहते-कहते देवयानी फूट-फूट कर रोने लगी।
शुक्राचार्य देवयानी को समझाते हुए बोले- "बेटी, वृषपर्वा की कन्या ने असत्य कहा। तुम किसी चापलूस को बेटी नहीं हो, न ही तुम्हारा पिता भीख मांग कर गुजर करता है, बल्कि तुम उस पिता की बेटी हो जिसका सारा संसार गुण गाता है। इस बात को देवेन्द्र जानता है । भरतवंश का राजा ययाति जानता है और खुद वृषपर्वा जानता है। अपने मुंह अपनी प्रशंसा करते हुए किसी भी समझदार और योग्य व्यक्ति को बुरा लगता है। अतः मैं अधिक कुछ नहीं कहूंगा। तुम मेरे कुल के यशोरूपी प्रकाश को बढ़ाने वाली नारी-मणि हो। तुम शांत होओ, घर चलो।" इसी प्रसंग में फिर देवयानी को समझाते हुए वे बोले-- "बेटो, जिसने दूसरों की कड़वी बातें सह ली उसने मानो सारे संसार पर विजय पा ली।
मनुष्य के मन में जो क्रोध है वह अड़ियल घोड़े के समान है। घोड़े की बागडोर हाथ में पकड़ने भर से कोई घुड़सवार नहीं हो जाता । चतुर घुड़सवार वह है जो क्रोध रूपी घोड़े पर काबू पा सके। सांप जैसे केचुली को निकाल देता है वैसे ही जो क्रोध को मन से निकाल सके वही पुरुष कहला सकता है । दूसरों के हजार निन्दा करने पर भी जो दुःखी नहीं होता, वही अपने यल में सफल हो सकेगा। जो हर महीने यज्ञ करते हुए सौ बरस तक दीक्षित रहे, उससे भी बढ़ कर श्रेय उसी को है जिसने क्रोध पर विजय पा ली हो। जो बात-बात पर बिगड़ता है उसे क्या नौकर, क्या मित्र, क्या पत्नी, क्या भाई सब छोड़ कर चले जाते हैं। धर्म और सचाई तो एकदम ही उसका साथ छोड़ देती है। समझदार लोग बालकों की बातों पर ध्यान नहीं दिया करते।" यह उपदेश सुनकर देवयानी ने नम्रभाव से कहा-- "पिताजी, में यद्यपि उम्न में छोटी ही हूं, फिर भी धर्म का कुछ मर्म जानती हूं। क्षमा बड़ा धर्म है, यह मुझे मालूम है । फिर भी जिनमें शील नहीं, जो की मर्यादा नहीं जानते उनके पास रहना कहां का धर्म है ? समझवार लोग ऐसे लोगों के साथ कभी नहीं रहते जो कुलीनों को निन्दा करते हैं, उच्च कुल की इज्जत करना नहीं जानते । जिनमें शोल नहीं, जिनका व्यवहार सज्जनोचित नहीं, वे चाहे संसार भर के धनी हो. फिर भी चाण्डाल ही समझे जाते हैं।
सज्जनों को ऐसे लोगों से दूर ही रहना चाहिए। तलवार के घाव पर मलहम लग सकता है। किन्तु शब्दों का घाव जीवन भर नहीं भर सकता। वृषपर्वा को कन्या की बातों से मेरे सारे शरीर में आगसी लग गई है । जैसे पीपल की लकड़ी रगड़ खाकर जल उठती है वैसे ही मेरा मन जल रहा है। अब में शान्त कैसे होऊ ?" देवयानी को ये बातें सुनकर शुक्राचार्य के माथे पर बल पड़ गये । वे वहां से सीधे असुर-राज वृषपर्वा की सभा में गये। उनका मुंह क्रोध से लाल हो रहा था । वृषपर्वा को सिंहासन पर बैठे देखकर बोले-- “राजन् ! पाप का फल तत्काल हो चाहे न मिले, पर मिलता जरूर है और वह पापी के वंश की जड़ें तक काट देता है। और तुम पाप के रास्ते चल पड़े हो । बृहस्पति का पुत्र कच, ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करता हुआ, प्रेम से मेरी सेवा-टहल करके शिक्षा पा रहा था। उस निर्दोष ब्राह्मण को तुमने मरवाया। तब भी मैं चुप रहा। पर अब क्या देखता हूँ कि मेरी प्यारी बेटी देवयानी को, जो कि आत्माभिमान को प्राणों से भी अधिक समझती है, तुम्हारी लड़की ने अपमानित किया और मारपीट कर कुएं में धकेल दिया ! यह अपमान देवयानी के लिए असहनीय है ।
उसने निश्चय किया है कि वह तुम्हारे राज्य में नहीं रहेगी। और तुम जानते हो कि वह मुझे प्राणों से अधिक प्रिय है। उसके बिना मै यहां नहीं रह सकता। इस कारण में भी तुम्हारा राज्य छोड़कर जा रहा हूं।" आचार्य की बातें सुन कर वृषपर्वा तो हक्का-बक्का रह गया। वह नम्रतापूर्वक बोला--"गुरुदेव, मैं निर्दोष हूं। आपने जो-कुछ कहा, उन बातों से मैं सर्वथा अपरिचित हूं। आप मुझे छोड़ जायंगे तो मैं पल भर भी जी नहीं सकता। आग में कूदकर मर जाऊंगा।" शुक्राचार्य दृढ़तापूर्वक बोले-- “तुम और तुम्हारे दानव-गण चाहे आग में जल मरो, चाहे समुद्र में डूब मरो, जब तक मेरी प्राण प्यारी बेटी का दुःख दूर न होगा मेरा मन शांत नहीं होगा। जाकर मेरी बेटी को समझाओ। अगर वह मान गई तो मैं यहां रह सकता हूं, वरना नहीं।" राजा वृषपर्वा सारे परिवार को साथ लेकर देवयानी के पास गया और उसके पांव पकड़ कर क्षमा मांगी ।
देवयानी दृढ़ता के साथ बोली--"तुम्हारी लड़की शर्मिष्ठा ने मेरा बुरी तरह से अपमान किया और मुझे भिखमंगे की बेटी कहा । इस कारण उसे मेरी नौकरानी बनकर रहना मंजूर हो और पिताजी जहां मेरा ब्याह करें वहां मेरी दासी बनकर मेरे साथ जाने को राजी हो तो में तुम्हारे राज्य में रहूंगी, अन्यथा नहीं ।" असुरराज को देवयानी की शर्त माननी पड़ी। उसने अपनी बेटी शर्मिष्ठा को बुला भेजा और उसे सारी बातें समझाई। देवयानी का विवाह शामिष्टा ने अपना कसूर कबूल किया। उसने शर्म से आंखें नीची करके धीरे से कहा-- "सखी देवयानी की इच्छा पूरी हो। ऐसा न हो कि मेरे अपराध के कारण पिताजो आचार्य को गंवा बैठे। गुरु-पुत्री को दासी बनकर रहना मुझे स्वीकार है।" तब कहीं देवयानी का क्रोध शांत हुआ और वह पिता के साथ नगर लौटी।
इसके कई दिन बाद एक बार देवयानी की राजा ययाति से जंगल में दुबारा भेंट हुई। देवयानी ने उनपर अपना प्रेम प्रकट किया और कहा--"जब एक बार आप मेरा दाहिना हाथ पकड़ चुके हैं तो फिर आप मेरे पति के ही समान है। आप मुझे अपनी पत्नी स्वीकार कर लें।" परन्तु ययाति ने न माना। उन्होंने कहा- "क्षत्रिय होकर ब्राह्मण-कन्या से ब्याह करने की मैं कैसे हिम्मत करूं ?" तब देवयानी उन्हें अपने साथ लेकर पिता के पास गई और ब्याह के लिए पिता की अनुमति लेकर ही मानी। ब्राह्मण की लड़की देवयानी का राजा ययाति के साथ बड़ी धूमधाम से ब्याह हुआ । ययाति और देवयानी का ब्याह इस बात का सबूत है कि आम रिवाज न होते हुए भी प्रतिलोम विवाह उन दिनों हुआ करते थे ।
शास्त्रों में यह जरूर कहा जाता था कि अमुक कार्य उचित है और अमुक नहीं ; किन्तु जब सबको पसंदगी से कोई विवाह हो जाता था तो शास्त्रोक्त न होने पर भी प्रायः लोग उसे सही मान लिया करते थे । देवयानी ययाति के रनवास में आई और शर्मिष्ठा उसकी दासी बनकर उसके साथ रही। इस प्रकार ययाति और देवयानी कई वर्ष तक सुख-चैन से रहे । इस बीच में एक दिन शर्मिष्ठा ने राजा ययाति को अकेला पाकर उनसे प्रार्थना की कि मुझे भी अपनी पत्नी बना लीजिए । ययाति ने उसकी प्रार्थना मान ली और उसके साथ गुप्तरूप से व्याह कर लिया । देवयानी को इस बात का पता न चलने दिया, लेकिन चोरी आखिर कहां तक छिपती ?
अंत में देवयानी को एक दिन पता चल ही गया कि शमिष्ठा उसको सौत बनी हुई है। यह जानकर वह मारे क्रोध के आपे से बाहर हो गई, रोती-पीटती अपने पिता के पास दौड़ गई और शिकायत की कि राजा ययाति ने वचन-भंग किया है। उसने शर्मिष्ठा को अपनी पत्नी बना लिया है। यह सुनकर शुक्राचार्य गुस्से में आगये। उन्होंने शाप दिया कि ययाति इसी घड़ी बूढ़े हो जायं । उनका शाप देना था कि ययाति को बुढ़ापे ने आ घेरा । वह अभी अधेड़ उम्न के ही थे। जवानी उनको बीत नहीं चुकी थी कि इतने में अचानक बुढ़ापा आ गया । वे शुक्राचार्य के पास दौड़े गये, उनसे क्षमा मांगी और शाप-मुक्ति के लिए बहुत अनुनय-विनय की। शुक्राचार्य को उनके हाल पर दया आई । सोचा--आखिर मेरी कन्या को इसी ने कुएं से बचाया था। सान्त्वनापूर्ण स्वर में बोले-“राजन ! तुम शाप-वश बूढ़े तो हो गये । इसका निवारण तो मेरे पास है नहीं, पर एक बात है। अगर कोई पुरुष अपनी जवानी तुम्हें दे दे और तुम्हारा बुढ़ापा अपने ऊपर ले ले तो तुम फिर से जवान बन सकते हो।" यह युक्ति बताकर शुक्राचार्य ने बूढ़े ययाति को आशीर्वाद देकर बिदा किया ।
देवयानी का विवाह
Reviewed by Tarun Baveja
on
April 17, 2021
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