गणेशजी की शर्त
भगवान् व्यास महर्षि पराशर के कीर्तिमान् पुत्र थे। चारों वेदों को क्रमबद्ध करके उनका संकलन करने का श्रेय इन्हींको है। महाभारत को पुण्य कथा भगवान् व्यास ही की देन है । महाभारत की कथा व्यासजी के मानस-पट पर अंकित हो चुकी थी। तब उनको यह चिंता हुई कि इसे संसार को किस तरह प्रदान करें। यह सोचते हुए व्यासजी ने ब्रह्मा का ध्यान किया। ब्रह्मा प्रत्यक्ष हुए। व्यासजी ने उनके सामने सिर नवाया और अंजलिबद्ध होकर निवेदन किया-"हे भगवन् ! एक महान् ग्रंथ की रचना मेरे मन में हुई है। चिंता इस बात की है कि इसे लिपिबद्ध कौन करे ?" यह सुन कर ब्रह्मा बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने व्यासजी की भूरि-भूरि प्रशंसा की और बोले--"तात ! तुम गणेशजी को प्रसन्न करो। वे हो तुम्हारे ग्रंथ को लिख सकने में समर्थ हैं।" यह कह ब्रह्मा अन्तर्धान हो गए।
महर्षि व्यास ने गणेशजी का ध्यान किया। गणेशजी प्रसन्नमुख व्यासजी के सामने उपस्थित हुए। महर्षि ने विधिवत् उनकी पूजा की और उनको प्रसन्न देखकर प्रार्थना की--"एक सर्वोत्तम ग्रंथ की रचना मेरे मन में हुई है। आप उसे लिपिबद्ध करने की कृपा करें।" गणेशजी मान तो गये, लेकिन एक शर्त के साथ । उन्होंने कहा-"लिखने के लिए तो मैं तैयार हूं, लेकिन शर्त यह है कि एक बार अगर में लिखना शुरू करूं तो फिर मेरी लेखनी पलभर भी रुकने न पाए। अगर आप जरा भी रुक गए तो फिर मेरी लेखनी भी एकदम रुक जायगी। क्या आपसे यह हो सकेगा ?" शर्त जरा कठिन थी। लेकिन व्यासजी ने मान ली। वह बोले"आपकी शर्त मुझे मंजूर है, पर मेरी भी एक शर्त है। वह यह कि आप भी तभी लिखियेगा जब हर श्लोक का अर्थ ठीक-ठीक समझ लें।" सुनकर गणेशजी हंस पड़े। बोले---"यह भी कोई बड़ी बात है ?" और व्यास और गणेश आमने-सामने बैठ गये। व्यासजी बोलते जाते थे और गणेशजी लिखते जाते थे। कहीं-कहीं व्यासजी श्लोकों को इतना जटिल बना देते थे कि गणेशजो को समझने में कुछ देर लग जाती थी और उनकी लेखनी जरा देर रुक जाती थी। इस बीच व्यासजी कितने ही और श्लोकों की मन-ही-मन रचना कर लेते थे। इस तरह महाभारत की कथा व्यासजी की ओजभरी वाणी से प्रवाहित हुई और गणेशजी को अथक लेखनी ने उसे लिपिबद्ध किया । ग्रंथ लिखकर तैयार हो गया।
अब व्यासजी के मन में उसे सुरक्षित रखने तथा उसके प्रचार का प्रश्न उठा। उन दिनों छापेखाने का आविष्कार नहीं हुआ था। शिक्षित लोग ग्रंथों को कण्ठस्थ कर लिया करते थे और इस प्रकार स्मरण-शक्ति के सहारे उनको सुरक्षित रखते थे। व्यासजी ने भी भारत की कथा अपने पुत्र शुकदेव को कण्ठस्थ कराई और बाद में अपने और कई शिष्यों को भी कराई । कहा जाता है कि देवों को नारदमुनि ने महाभारत-कथा सुनाई थी और गन्धर्वो, राक्षसों तथा यक्षों में इसका प्रचार शुक मुनि ने किया। यह तो सभी जानते है कि मानव-जाति में महाभारत-कथा का प्रचार महर्षि वैशंपायन से हुआ। वैशंपायन भगवान् व्यास के प्रमुख शिष्य थे और बड़े विद्वान् तथा धर्मनिष्ठ थे । महाराजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने एक महान् यज्ञ किया । उसमें उन्होंने महाभारत-कथा सुनाने की वैशंपायन से प्रार्थना की। महर्षि ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और महाभारत को कथा विस्तार से सुनाई। इस यज्ञ में सुप्रसिद्ध पौराणिक सूतजी भी विद्यमान थे।
महाभारत को कथा सुनकर वह बहुत ही प्रभावित हुए। सद्धर्म के प्रचार के लिए भगवान् व्यास के इस महाकाव्य से मनुष्यमात्र को लाभ पहुंचाने की इच्छा उनके मन में प्रबल हुई। इस उद्देश्य से सूतजी ने नैमिषारण्य में तमाम ऋषियों को एक सभा बुलाई। महर्षि शौनक इस सभा के अध्यक्ष हुए। मुनि-पुंगवों की इस सभा में सूतजी ने महाभारत का गान किया । "राजा जनमेजय के नाग-यज्ञ के अवसर पर महर्षि वैशंपायन ने व्यासजी की आज्ञानुसार भारत को कथा सुनाई थी। बह पवित्र कथा मैंने सुनी और तीर्थाटन करते हुए कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि को भी जाकर देखा ।" इस भूमिका के साथ सूतजी ने ऋषियों के सामने महाभारत की कथा कहना शुरू किया। (महाराजा शान्तनु के बाद उनके पुत्र चित्रांगब हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे। उनकी अकाल मृत्यु पर उनके भाई विचित्रवीर्य राजा हुए। उनके दो पुत्र हुए--धृतराष्ट्र और पाण्डु । धृतराष्ट्र जन्म से ही अन्ध थे। इसलिए पाण्टु को गद्दी पर बिठाया गया । पाण्डु मे कई वर्षतक राज किया। उनके दो रानियां थीं-कुन्ती और माद्री।
कुछ काल तक राज्य करने के बाद पाण्डु अपने किसी पाप के प्रायश्चित्तार्थ तपस्या करने जंगल में चले गए। उनकी दोनों रानियां भी उनके साथ गई। बनवास के समय कुन्ती और माद्री ने पांचों पाण्डवों को जन्म दिया। कुछ समय बाद पाण्डु की मृत्यु हो गई। तब पांचों अनाथ बच्चों का बन के ऋषि-मुनियों ने पालन-पोषण किया और पढ़ाया-लिखाया। जब युधिष्ठिर सोलह वर्ष के हुए तो ऋषियों ने पांचों कुमारों को हस्तिनापुर ले जाकर भीष्म पितामह के हवाले कर दिया। महाभारत-कथा पांचों पाण्डव बुद्धि के तेज थे और शरीर के बली। छुटपन में ही उन्होंने वेब, वेदांग तथा अनेक शास्त्रों का अध्ययन सफलता से कर लिया था और शीघ्र ही क्षत्रियोचित विधाओं में भी वक्ष हो गये। उनकी प्रखर बुद्धि और मीठे स्वभाव ने सबको मुग्ध कर लिया । यह देखकर धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव उनसे जलने लगे और उन्होंने उनको कई तरह के कष्ट पहुंचाये। दिन-पर-दिन कौरव-पाण्डवों के बीच वैर बढ़ता गया।
अन्त में भीष्म पितामह ने दोनों को किसी तरह समझाया और उनमें सन्धि कराई । वृद्ध भीष्म के आदेशानुसार कुरु-राज्य के दो विभाग किये गए। कौरव हस्तिनापुर ही में राज करते रहे और पाण्डवों को एक अलग राज्य दिया गया जो आगे चलकर इन्द्रप्रस्थ के नामसे मशहूर हुआ। इस प्रकार थोड़े दिन तक शान्ति रही । उन दिनों राजा लोगों में जुआ (चौपड़) खेलने का आम रिवाज था। राज्यों तक की बाजियां लगाई जाती थीं। इस रिवाज के मुताबिक एक बार पाण्डवों और कौरबों ने जुआ खेला। कौरवों की तरफ से चालाक शकुनि खेला। उसने धर्मात्मा युधिष्ठिर को हरा दिया। इसके फलस्वरूप पाण्डवों का राज्य छिन गया और उनको तेरह वर्ष का बनवास उसमें एक शत यह भी थी कि बारह वर्ष के बनवास के बाद एक वर्ष अज्ञातवास करके लौटने पर उनका राज्य उन्हें वापस कर दिया जायगा।
द्रौपदी के साथ पांचों पाण्डव बारह वर्ष बनवास और एक वर्ष अज्ञातवास में बिताकर वापस लौटे। पर लालची दुर्योधन ने उनसे लिया हुआ राज्य वापस करने से इन्कार कर दिया। अतः पाण्डवों को अपने राज्य के लिए लड़ना पड़ा। युद्ध में सारे कौरव मारे गये । पाण्डव उस विशाल साम्राज्य के एकमात्र स्वामी हुए । इसके बाद छत्तीस वर्ष तक पाण्डवों ने राज्य किया। फिर अपने पोते परीक्षित को राज्य देकर द्रौपदी के साथ तपस्या करने हिमालय भोगना पड़ा। देवव्रत चले गए। यही संक्षेप में महाभारत की कथा है ।। महाभारत का अद्भुत काव्य भारतीय साहित्य-भाण्डार के सर्वश्रेष्ठ महाग्रन्थों में से है। इसमें पाण्डवों की कथा के साथ कई सुन्दर उपकथाएं भी हैं। बीच-बीच में सूक्तियों तथा उपदेशों के भी उज्ज्वल रत्न जड़े हुए है। महाभारत एक विशाल महासागर है जिसमें अनमोल मोती और रत्न भरे पड़े हैं। रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति और धार्मिक विचार के मूल-स्रोत माने जा सकते हैं ।
गणेशजी की शर्त
Reviewed by Tarun Baveja
on
April 17, 2021
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