देवव्रत कौन था और इनका (भीष्म) जन्म कैसे हुआ
गंगादेवी एक सुन्दर युवती का रूप धारण किये नदी तट पर खड़ी थी। उसके सौंदर्य और नवयौवन ने राजा शान्तनु को मोह लिया । "सुन्दरी, तुम कोई भी हो, मेरा प्रेम स्वीकार कर लो और मेरी पत्नी बन जाओ। मेरा राज्य, मेरा धन, यहांतक कि मेरे प्राणतक आज से तुम्हारे हैं।" प्रेम-विह्वल राजा ने उस वैवी सुन्दरी से याचना की। स्मित-वदना गंगा बोली-- “राजन् ! आपकी पत्नी होना मुझे स्वीकार है। पर इससे पहले आपको मेरी कुछ शर्ते माननी होंगी। मानेंगे?" राजा ने कहा-- "अवश्य ।" गंगा बोली--"कोई भी मुझसे यह न पूछे कि तुम कौन हो, किस कुल को हो ? मैं कुछ भी करूं-- अच्छा, या बुरा, मुझे कोई न रोके । किसी भी बात पर कोई मुझसे नाराज न हो और न कोई मुझे डोटे-डपटे । ये मेरो शतें हैं। इनमें से एक के भी तोड़े जाने पर मैं आपको छोड़कर फौरन चली जाऊंगी। ये आपको स्वीकार है ?"
शान्तनु ने गंगा को शर्त मान ली और वचन दिया कि वह उनका पूर्ण रूप से पालन करेंगे। गंगा राजा शान्तनु के भवन की शोभा बढ़ाने लगी। उसके शील. स्वभाव, नम्रता और अचंचल प्रेम को देखकर राजा शान्तनु मुग्ध हो गये । काल-चक्र धूमता गया; किन्तु प्रेम-सुधा-मग्न राजा और गंगा को उसको खबरतक न थी । गंगा से शान्तनु के कई तेजस्वी पुत्र हुए; पर गंगा ने उनको जीने न दिया। बच्चे के पैदा होते ही वह उसे नदी की बढ़ती हुई धारा में फेंक देती और फिर सस्मित वदन राजा शान्तनु के पास आ जाती । अज्ञात सुन्दरी के इस कुत्सित व्यवहार से राजा शान्तनु चकित होकर रह जाते। उनके क्षोभ और आश्चर्य का पारावार न रहता। सोचते, यह मृदुल गात और यह पैशाचिक व्यवहार ! यह तरुणी कौन है ? कहां की है ? इस तरह के कई विचार उनके मन में उठते, पर वचन दे चुके थे, इस कारण मन मसोस कर रह जाते।
सूर्य के समान तेजस्वी सात बच्चों को गंगा ने इसी भांति नदी की धारा में बहा दिया। आठवां बच्चा पैदा हुआ। गंगा ने उसे भी लेकर नदी की तरफ पर बढ़ाये तो शान्तनु से न रहा गया। बोले--"ठहरो, यह घोर पाप करने पर क्यों तुली हो ? मां होकर अपने नादान बच्चों को क्यों अकारण हो मार दिया करती हो? यह घृणित व्यवहार तुम्हें नहीं सोहता ।" राजा की बात सुनकर गंगा मन-ही-मन मुसकराई; पर क्रोध का अभिनय करती हुई बोली"राजन् ! आप क्या अपना वचन भूल गये ? मालूम होता है, आपको पुत्र ही से मतलब था, मुझसे नहीं। अब आपको मेरी क्या परवाह ! ठोक है। मै जाती हूं। हां, आपके इस पुत्र को मैं नहीं मारूंगी।" इसके देवव्रत ७ वसु बाब गंगा अपना परिचय देती हुई बोली-“शान्तनु ! घबराओ मत । मैं वह गंगा हूं जिसका यश ऋषि-मुनि गाते हैं। जिन बच्चों को मैने बहा दिया वे आठों थे । महर्षि वसिष्ठ ने आठों वसुओं को मर्त्यलोक में जन्म लेने का शाप दिया था। वसुओं ने मुझसे प्रार्थना की थी कि मैं उनकी मां बनूं और जन्मते ही उनको नदी में फेंक दूं। मैंने उनकी प्रार्थना मान ली, तुम्हें लुभाया और उनको जन्म दिया। यह अच्छा ही हुआ कि उन्होंने तुम्हारे जैसे यशस्वी राजा को पिता के रूप में पाया। तुम भी भाग्यशाली हो जो आठों वसु तुम्हारे पुत्र हुए। तुम्हारे इस अन्तिम बच्चे को मैं कुछ दिन पालुंगी और फिर पुरस्कार के रूप में तुम्हें सौंप दूंगी।" यह कहकर गंगादेवी बच्चे को साथ ले ओझल हो गई।
यही बच्चा आगे चलकर भीष्म के नाम से विख्यात हुआ ।
एक दिन आठों वसु अपनी पत्नियों समेत हंसते-खेलते उस पहाड़ी के नजदीक विचरण कर रहे थे जहां वसिष्ठ मुनि का आश्रम था। ऋतु सुहावनी थी और पहाड़ी का दृश्य मनोहर । वसु-दंपति निकुंजों और पहाड़ों पर विचरण करते हुए अपने खेल-कूद में मग्न थे कि इतने में वसिष्ठ मुनि की गाय नन्दिनी अपने बछड़े के साथ चरती हुई उधर से आ निकली। उसके अलौकिक सौंदर्य एवं देवी छवि को देखकर वसुपत्नियां मुग्ध हो गई और उस मोदमयी गाय की प्रशंसा करने लगीं। एक वसु-पत्नी का मन उसको देखकर ललचा गया। उसने अपने पति प्रभास से अनुरोध किया कि यह गाय मुझे पकड़ा हो । सुनकर प्रभास को हंसी आई। उसने कहा- "प्रिये ! हम तो देवता हैं ! दूध को हमें आवश्यकता ही क्या है ? जानती नहीं हो हम महर्षि बसिष्ठ के तपोवन में हैं और यह उनकी प्यारी गाय नन्दिनी है ? इस गाय का दूध मनुष्य पियें तो चिरंजीवी बन सकते हैं। हम तो खुद ही अमर ठहरे । इसे लेकर क्या करेंगे ? व्यर्थ ही मुनिवर का कोष क्यों मोल लें ?" प्रभास ने हजार समझाया, फिर भी उसकी पत्नी ने न माना। उसने कहा--"मैं अपने लिए थोड़े ही मांग रही हूँ ? मर्त्यलोक में मेरो एक सहेली है, उसी के लिए मांग रही हूं। महर्षि वसिष्ठ अब आश्रम में नहीं हैं। उनके आने से पहले हम इसे भगा ले जायं । क्या मेरे लिए तुम इतना भी नहीं कर सकते?" प्रभास पत्नी का अनुरोध टाल न सका। दूसरे बसुओं की सहायता से नन्दिनी और उसके बछड़े को वह भगा ले गया ।
वसिष्ठ जब आश्रम लौटे तो हवन-सामग्नी देने वाली गाय और बछड़े को न पाया। गाय को खोज में उन्होंने सारा वन-प्रदेश छान डाला, पर वह न मिली। तब मुनि ने अपने ज्ञान-चक्षु से देखा तो उन्हें वसुओं को करतूत का पता लगा। वसुओं को इस धृष्टता पर वसिष्ठ का शान्त मन भी क्रुद्ध हो उठा। चूंकि वसुओं ने देवता होकर मनुष्य के-से लालच से काम लिया था इसलिए मुनि ने शाप दिया कि आठों वसु मनुष्य-लोक में जन्म लें । मुनि का तपोबल ऐसा था कि उनके शाप देते ही वसुओं के मन में घबराहट पैदा हो गई। बेचारे भागे आये और ऋषि के सामने गिड़गिड़ाने और उनको मनाने लगे। तब वसिष्ठ बोले--"मेरा शाप झूठा नहीं हो सकता। तुम लोगों को मर्त्य-लोक में जन्म तो लेना ही पड़ेगा। फिर भी प्रभास को छोड़कर बाकी सबके लिए इतना कर सकता हूं कि वे पृथ्वी में जन्म लेते ही विमुक्त हो जायं । प्रभास चूंकि तुम्हें उभारने वाला था इसलिए उसे काफी दिन मर्त्य-लोक में जीवित रहना होगा। हां, वह बड़ा यशस्वी होगा।" इतना कहकर मुनि शांत हो गये और अपनी क्रोध-विक्षत तपस्या में फिर ध्यान दिया ।
मुनि के आश्रम से लौटते हुए वसुओं ने अपने मन में सोचा कि चलो, मुनि ने इतनी कृपा तो को। वहां से वे गंगादेवी के पास गये और उसके सामने अपना दुखड़ा रोया। गंगा से उन्होंने प्रार्थना को कि पृथ्वी में तुम्ही हमारी माता बनो और उत्पन्न होते ही हमें जल में डुबोकर मुक्त कर दो। गंगा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उन्हींको प्रार्थनानुसार गंगा ने यशस्वी शान्तनु को लुभाया और सात बच्चों को नदी में प्रवाहित किया था। गंगा चली गई तो शान्तनु का मन विरक्त हो गया। उन्होंने भोग लालसा छोड़ दी और राज-काज में दिल लगाया । एक दिन राजा शिकार खेलते-खेलते गंगा के तट पर गये तो एक अलौकिक दृश्य देखा। किनारे पर देवराज जैसा एक सुन्दर और गठीला युवक खड़ा गंगा को बहती हुई धारा पर बाण चला रहा था। बाणों की बौछार से गंगा की प्रचण्ड धारा एकदम रुकी हुई थी। देख कर शान्तनु दंग रह गये इतने में ही राजा के सामने स्वयं गंगा आ खड़ी हुई। गंगा ने युवक को अपने पास बुलाया और राजा से बोली-- “राजन्, यही तुम्हारा और मेरा आठवां पुत्र देवव्रत है।
महर्षि वसिष्ठ से इसने वेदों और वेदांगों की शिक्षा प्राप्त की है। शास्त्र-ज्ञान में शुक्राचार्य और रणकौशल में परशुराम ही इसका मुकाबला कर सकते है। यह जितना कुशल योद्धा है, उतना ही चतुर राजनीतिज्ञ भी है। तुम्हारा पुत्र अब तुम्हारे सुपुर्द है। इसे साथ ले जाओ।" गंगादेवी ने देवव्रत का माथा चूमा और आशीर्वाद देकर राजा के साथ उसे विदा किया। तेजस्वी पुत्र को पाकर राजा प्रफुल्लित मन से नगर को लौटे। थोड़े ही दिन में देववत राजकुमार के पद को सुशोभित करने लगे।
देवव्रत कौन था और इनका (भीष्म) जन्म कैसे हुआ
Reviewed by Tarun Baveja
on
April 17, 2021
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