जीवन बदल देने वाली अनमोल बातें - भाग 4

जीवन बदल देने वाली अनमोल बातें - भाग 4

११५१- मनुष्यों ! मिथ्या आशा के फेर में दुर्लभ मनुष्य देह को यों ही नष्ट न करो। देखो, सिर पर काल नाच रहा है। एक श्वास का भी भरोसा न करो। जो श्वास बाहर निकल गया, वह वापस आवे न आवे, इसलिये गफलत और बेहोशी छोड़कर अपनी काया को क्षणभङ्गुर समझकर दूसरों की भलाई करो और अपने सिर जनहार में मन लगाओ; क्योंकि नाता उसका सच्चा है।


११५२- माँगना और मरना दोनों समान हैं, बल्कि माँगने से मरना भला। याचना करने से त्रिलोकी नाथ भगवान को भी छोटा होना पड़ा, तब दूसरों के लिये कहना ही क्या?

११५३- हाथ के ऊपर हाथ करो, पर हाथ के नीचे हाथ न करो। जिस दिन दूसरों के आगे हाथ फैलाने की नौबत आवे, उस दिन मरण हो जाय तो अच्छा।

११५४- स्त्री-पुत्रों के पालन-पोषण की चिन्ता में मनुष्य की सारी आयु बीत जाती है; पर परमात्मा के भजन में उसका मन नहीं लगता।

११५५- स्त्री-माया ही संसार-वृक्ष का बीज है। शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध-उसके पत्ते काम-क्रोधादि उसकी डालियाँ, पुत्र-कन्या प्रभृति उसके फल हैं और तृष्णा रूपी जल से यह संसार वृक्ष बढ़ता है।

११५६- लोह और काठ की बेड़ियों से चाहे कभी छुटकारा हो जाय, पर स्त्री-पुत्रादि की मोहरूपी बेड़ियों से पुरुष का पीछा नहीं छूट सकता। जिनके मुँह देखने से पाप लगता है, स्त्री के लिये उन्हीं की
खुशामदें करनी पड़ती हैं।

११५७- किस्मत को देखो कि जिसने मनुष्य को कितना कमजोर बनाया, पर काम उससे दोनों लोकों के लिये गये। उसे इस लोक और परलोक की फिक्र लगा दी।

११५८- स्त्री के वश में होना सर्वनाश का बीज बोना है।

११५९- गर्दन पर बिखरे हुए बालों वाला करालमुखी सिंह, अत्यन्त मतवाला हाथी और बुद्धिमान् समरशूर पुरुष भी स्त्रियों के आगे
पर्म कायर हो जाते हैं।

११६०- मनुष्य अपने पापों को कितना ही छिपावे, पर एक-न-एक दिन वे प्रकट हो जाते हैं।

११६१- घी, नोन, तेल, चावल, साग और ईंधन की चिन्ता में बड़े-बड़े मतिमानों की उम्र पूरी हो जाती है। इसी से मनुष्य को ईश्वर-भजन का समय नहीं मिलता।

११६२- जितनी आवश्यकताएँ कम होंगी, उतना ही सुख बढ़ेगा, इसलिये महात्मा लोग महलों में न रहकर वृक्षों के नीचे उम्र काट देते हैं।

११६३- विषयों को हमने नहीं भोगा, किंतु विषयों ने हमारा ही भुगतान कर दिया, हमने तप को नहीं तपा, किंतु तपने हमें ही तपा डाला, कालका खात्मा न हुआ, किंतु हमारा ही खात्मा हो चला, तृष्णा का बुढ़ापा न आया, किंतु हमारा ही बुढ़ापा आ गया।

११६४- लोग दुनिया को नहीं छोड़ते, दुनिया ही भले उन्हें निकम्मा करके छोड़ दे।

११६५- जो लोग शक्ति-सामर्थ्य रहते विषयों को छोड़ते हैं, वे ही प्रशंसा के भाजन होते हैं।

११६६- घर-जंजालों में रहकर सर्दी-गर्मी और शोक-तप आदि के कष्ट उठाने ही पड़ते हैं, फिर तप ही क्यों न किया जाय? क्योंकि घर की
झंझटों के दुःख से कोई लाभ नहीं, किंतु तप से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।

११६७- धन के ध्यान से जो सुख मिलता है, वह क्षणस्थायी और झूठा है। इसलिये धन-ध्यान छोड़कर आशुतोष भगवान् शिव के चरणों का ध्यान करना अच्छा, जिससे सभी मनोरथ पूरे होते हैं और अन्त में जन्म-मरण के झगड़े से छुटकारा मिलकर परम पद-मोक्ष मिल जाता है।

११६८- चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गयीं, सिर के बाल पककर सफेद हो गये, सारे अंग ढीले हो चले पर तृष्णा तो तरुण होती जाती है।

११६९- जवानी बुढ़ापे से, आरोग्यता व्याधियों से और जीवन-मृत्यु से ग्रसित है, पर तृष्णा को किसी उपद्रवका डर नहीं।

११७०- मनुष्य नितान्त निकम्मा और जर्जर शरीर होने पर भी तृष्णा को नहीं त्यागता, यही बड़े आश्चर्य की बात है।

११७१- अङ्ग शिथिल हो गये हैं, बुढ़ापे से सिर सफेद हो गया, मुहँ के दाँत गिर गये, हाथ में ली लकड़ी की तरह शरीर काँपता है, तो भी मनुष्य आशारूपी पाश को नहीं त्यागता।

११७२- भगवान के दर्शन के लिये जिसके मन में अत्यन्त तीव्र आकर्षण होता है, वह विषयों की क्षणभङ्गुरता और अनित्यता को देखकर विषयों की ओर कभी ताकता ही नहीं।

११७३- शरणागति के द्वारा भगवान से उपदिष्ट साधन में लग जाने पर शरणागत साधक को भगवान् स्वयं अपने स्वरूप का तत्त्व समझा देते हैं।

११७४- इस मृत्यु के जगत में अमृत के पाने का एक ही उपाय है, जो केवल उसी की ओर देखता है, दूसरी ओर ताकता ही नहीं, वही मृत्यु के हाथ से छुटकारा पा सकता है

११७५- जैसे संसार की बात सोचते-सोचते मनुष्य बड़ा भारी संसारी बन गया है, वैसे ही ईश्वरकी बात सोचते-सोचते ठीक वैसा ही बन सकता है

११७६- हृदय में कामनाओं का निवास है, उसी को 'संसार' कहते हैं और उनके सब तरह के नाश हो जाने को 'मोक्ष' कहते हैं।

११७७- जो निःस्पृह हैं, जिन्हें कामना या तृष्णा नहीं, वे मनुष्यरूप में ही देवता हैं।

११७८- जो जन्म-मरण से मुक्त होना चाहते हैं, वे तृष्णा राक्षसी के भुलावे में न आवें। इसके चक्कर में फँसने से मनुष्य बाध्य होकर नीच-से-नीच कर्म करने पर उतारू हो जाता है।

११७९- सूर्य और चन्द्र को रात-दिन चक्कर लगाने पड़ते हैं। एक-दिन क्या एक क्षण भी स्वेच्छानुसार ये आराम नहीं कर सकते, तब हम और आप तो किस गिनती में हैं ?

११८०- बड़ों की दुर्दशा देखकर छोटों को अपनी विपत्ति पर रोना-कल्पना नहीं बल्कि संतोष करना चाहिये। संसार में कोई सुखी नहीं है।

११८१- विषयों को चाहे जितने दिनों तक क्यों न भोगो, वे एक दिन तुम्हें निश्चय ही छोड़ देंगे, तो उन्हें तुम स्वयं ही क्यों न छोड़ दो? तुम्हारे छोड़ने से तुम्हें अनन्त सुख मिलेगा और उनके छोड़ने से तुम्हें अत्यन्त दुःख उठाना पड़ेगा।

११८२- तृष्णा विषयों के संसर्ग से बेहद बढ़ती है।

११८३- जो तृष्णा को त्यागते हैं, तृष्णा से नफरत करते हैं, उसे पास फटकने नहीं देते, उनसे तृष्णा भी दूर भागती है।

११८४- तृष्णा को शीघ्र छोड़ो ! पुरानी होने से वह और भी बलवती हो जाएगी, फिर उसे त्यागना आपकी शक्ति के बाहर हो जाएगा।

११८५- पत्तों और जलपर गुजर करने वाले ऋषि भी जब स्त्रियों पर मोहित हो गये, तब घी-दूध खाने वालों की क्या बात है ?

११८६- स्त्री का दर्शन ही ऐसा है कि जिससे देवता भी धैर्य त्याग देते हैं।

११८७- जहाँ स्त्री है वहाँ सभी विषय हैं! यही संतों का अनुभव है।

११८८- न तो स्त्री के साथ बात करनी चाहिये, न पहले देखी स्त्री की याद करनी चाहिये और न उनकी चर्चा करनी चाहिये। यहाँतक कि उनका चित्र भी न देखें !

११८९- विषय विष है, इसका त्याग ही सुख की जड़ है।

११९०- काम को जीतो। जिसने काम को जीत लिया उसने सब कुछ जीत लिया।

११९१- अपने मतलब के लिये स्त्री को पति प्यारा होता है। पति के लिये स्त्री को पति प्यारा नहीं होता। यही अवस्था दूसरी ओर भी है।

११९२- सबकी प्रीति झूठी है। प्रीति तो एकमात्र प्रभु में ही सच्ची है।

११९३- स्त्री साँप से भी भयंकर है। साँप के काटने से मनुष्य मरता है, पर स्त्री के रूप-चिन्तनमात्र से ही मनुष्य मर जाता है।

११९४- कामी पुरुषों और कामिनियों के संसर्ग से पुरुष कामी हो जाता है तथा आगे के जन्म में भी क्रोधी, लोभी और मोही होता है।

११९५- रूप को देखने मात्र से ही जहर चढ़ जाता है। तू रूपलालसा छोड़ दे।

११९६- रूप की लालसा काली नागिन है। केवल ईश्वर का नाम जपने वाले ही उससे बचे।

११९७- जल में डूबा बच जाता है पर विषयों में डूबा नहीं बचता।

११९८- एक कञ्चन और दूसरी कामिनी इनसे बचकर रहो ! ये भगवान् और जीव के बीच में खाई बनाते हैं।

११९९- जितना प्रेम जगत के रूपों में है, उतना उस जगदीश में हो तो फिर क्या कहना?

१२००- सूखी हड्डी में खून नहीं होता, पर कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है। उसे अपने खून का स्वाद आता है, पर वह अज्ञानी उस आनन्द को हड्डी में समझता है। यही दशा विषयी पुरुषों की है।

जीवन बदल देने वाली अनमोल बातें - भाग 4 जीवन बदल देने वाली अनमोल बातें - भाग 4 Reviewed by Tarun Baveja on January 10, 2021 Rating: 5

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