जीवन बदल देने वाली अनमोल बातें - भाग 3
११०१-मनरूपी पखेरू तभीतक विषयवासना के आकाश में उड़ता है, जबतक कि वह ज्ञानरूपी बाज की झपेट में नहीं आता।
११०२- आवश्यकता चावल की होती है, परंतु चावल बोने से वह उपजता नहीं। चावल पाने के लिये बोना पड़ता है, धान । धान में छिलका यद्यपि अनावश्यक है; परंतु छिलके के बिना धान नहीं उगता। इसी प्रकार शास्त्रविहित आचारों का पालन किये बिना कभी धर्म-लाभ नहीं होता।
११०३- जो वस्तु अनादि और अनन्त है, उसी में सुख है; अन्तवान् वस्तुमें सुख नहीं है। अन्तवान् वस्तु का एक दिन अवश्य नाश होगा, इसलिये जो उसपर आसक्त होगा उसको दुखी होना ही पड़ेगा।
११०४- जो बिना जड़ की अमर बेल को पालते हैं उन प्रभु को छोड़कर दूसरे किसकी खोज करनी चाहिये?
११०५- जो एक प्रभु अपनी नियामक शक्ति के द्वारा सबको नियम में रखते हैं, जो एक अहेतु होते हुए ही सब लोकों की उत्पत्ति और लय करने में समर्थ हैं, उस देवको जो लोग पहचान लेते हैं वे अमृतरूप हो जाते हैं।
११०६- मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण मन है, विषयासक्त मन से बन्धन होता है और विषयवृत्ति से रहित मन से मुक्ति। अतएव मुक्तिकी चाह करने वाले मन को सदा विषयों से रहित रखे। विषय संग से छूटा हुआ मन जब उन्मनी भाव को प्राप्त होता है, तब परमपद की प्राप्ति होती है।
११०७- जीवित अवस्था में शरीर को लोग देव (नरदेव,भूदेव) शब्द से पुकारते हैं, परंतु मर जाने पर उस शरीर के या तो (सड़ जानेपर) कीड़े हो जाते हैं, या (जला देनेपर) राख हो जाती है अथवा (पशु आदि के खाने पर उसकी) विष्ठा बन जाती है। ऐसे शरीर के लिये जो मनुष्य दूसरे प्राणियों से द्रोह करता है, जिससे नर्क की प्राप्ति होती है, वह
क्या अपने स्वार्थ को जानता है?
११०८- परमात्मा का वाचक प्रणव है, उसका जप और उसके अर्थ की भावना करनी चाहिये। इससे आत्मा की प्राप्ति और विघ्नों का अभाव होता है।
११०९- परलोक में सहायता के लिये माता-पिता, पुत्र-स्त्री और सम्बन्धी कोई नहीं रहते। वहाँ एक धर्म ही काम आता है। मरे शरीर को बन्धु-बान्धव काठ और मिट्टी के ढेलों के समान पृथ्वी पर
पटककर घर चले जाते हैं। एक धर्म ही उसके साथ जाता है।
१११०- मन, वाणी और कर्म से प्राणिमात्र के साथ अद्रोह, सब पर कृपा और दान-यही साधु पुरुषों का सनातन धर्म है।
११११- जो आत्मनिष्ठ हैं तथा जो आत्मा के सिवा कुछ भी नहीं चाहते, वे विषयी मनुष्यों की भाँति रमणीय वस्तु की प्राप्ति में हर्षित नहीं होते और दुःखरूप वस्तु की प्राप्ति में उद्विग्न नहीं होते।
१११२- सोये हुए गाँव को जैसे बाढ़ बहा ले जाती है। वैसे ही पुत्र और पशुओं में लिप्त मनुष्यों को मौत ले जाती है। जब मृत्यु पकड़ती है, उस समय पिता, पुत्र, बन्धु या जाति वाले कोई भी रक्षा नहीं कर सकते। इस बात को जानकर बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि वह शीलवान् बने और निर्माण की ओर ले जाने वाले मार्ग को जल्द पकड़ ले।
१११३- भगवान की माया के दोष-गुण बिना हरिभजन के नहीं जाते, अतएव सब कामनाओं को छोड़कर श्रीराम को भजो।
१११४- जो दिन आज है, वह कल नहीं रहेगा, चेतना है, तो जल्दी चेत जा, देख मौत तेरी घात में घूम रही है।
१११५- श्रीराम के चरणों की पहचान हुए बिना मनुष्य के मन की दौड़ नहीं मिटती, लोग केवल भेष बनाकर दर-दर अलख जगाते हैं, परंतु भगवान के चरणों में प्रेम नहीं करते, उनका जन्म वृथा है।
१११६- जो शान्त, दान्त, उपरत, तितिक्षु और समाहित होता है, वही आत्मा को देखता है और वही सब का आत्मरूप होता है।
१११७- जिन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर। इन छः शत्रुओं को जीत लिया है, वे पुरुष ईश्वर की ऐसी भक्ति करते हैं, जिसके द्वारा भगवान में परम प्रेम उत्पन्न हो जाता है।
१११८- जैसे प्रवाह के वेग में एक स्थान की बालू अलग-अलग बह जाती है और दूर-दूर से आकर एक जगह एकत्र हो जाती है, ऐसे ही काल के द्वारा सब प्राणियों का कभी वियोग और कभी संयोग होता है।
१११९- सरलता, कर्तव्यपरायणता, प्रसन्नता और जितेन्द्रियता तथा वृद्ध पुरुषों की सेवा-इनसे मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
११२०- जिससे सब जीव निडर रहते हैं और जो सब प्राणियों से निडर रहता है, वह मोह से छूटा हुआ सदा निर्भय रहता है।
११२१- जो मनुष्य समस्त भोगों को पा जाता है और जो सब भोगों को त्याग देता है, इनमें सब भोगों को पाने वाले की अपेक्षा सबका त्याग करने वाला श्रेष्ठ है।
११२२- जो संग्रह का त्याग करके अपरिग्रह.में रत है, ऐसे चित्त के मल से रहित हुए ज्ञानवान् पुरुष ही निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
११२३- जैसे अग्नि के समीप रहने वाले पुरुष का अन्धकार और शीत अग्नि की स्वाभाविक शक्ति से ही दूर हो जाता है, वैसे ही पापी पुण्यात्मा जो कोई भी भगवान को भजता है, वही उनकी महिमा को जानता है और वही शान्ति प्राप्त करता है।
११२४- जब दृश्य नहीं है, तब दृष्टि भी कुछ नहीं है, दृश्य के बिना देखना कहाँ, दृश्य के कारण ही द्रष्टा और दर्शन हैं।
११२५- काम, क्रोध, मद, लोभ.की खान जबतक मन में है, तबतक पण्डित और मूर्ख में क्या भेद है? दोनों एक समान ही हैं।
११२६- सब ओर से मन.को हटाकर भगवान के चरणों का आश्रय लेने वाले भगवान के प्रिय पुरुष में यदि कोई दोष भी हो तो हृदय में रहने वाले सर्वेश्वर भगवान् उसे नष्ट कर देते हैं।
११२७- यह अखिल जगत् सर्वभूतमय भगवान् विष्णु का ही विस्तार है, अतएव ज्ञानी पुरुष इसे अपने साथ आत्मवत् अभेद-रूप से देखें।
११२८- यह अक्षर (कभी नाश न होनेवाला) ही ब्रह्म है; अक्षर ही परम है, इस अक्षर को ही जानकर जो पुरुष जैसी इच्छा करता है, उसको वही प्राप्त होता है। इस अक्षर परमात्मा का आश्रय ही श्रेष्ठ है। यह आश्रय सबसे उत्तम है। इस आश्रय का रहस्य जानकर जीव ब्रह्मलोक में पूजित होता है।
११२९- चित्त से निरन्तर परमात्मतत्त्व का चिन्तन करते रहो, अनित्य धन की चिन्ता छोड़ दो। क्षणभर के साधु संग को भी भवसागर से तारने के लिये नौकास्वरूप समझो।
११३०- भोगों में रोग का भय है, कुल में च्युत होने का भय है, धन में राजा का भय है, मौन में दीनता का भय है, बल में बैरी का भय है, रूप में बुढ़ापे का भय है, शास्त्र में विवाद का भय है, गुणों में दुष्टों का भय है, शरीर में मृत्यु का भय है, इसी प्रकार संसार की सभी वस्तुओं में मनुष्यों को
कोई-न-कोई भय है। केवल एक 'वैराग्य में कोई भय नहीं है।
११३१- इस संसार की अपेक्षा भी कोई प्रियतम वस्तु इसकी अवश्य है; क्योंकि यह मन समय-समय पर इससे छूटकर उसकी ओर दौड़ना चाहता है।
११३२- संसार क्षणभङ्गुर और अनित्य है, यहाँ एक पलका भी भरोसा नहीं, जो कुछ कल्याण का काम करना है, तुरंत कर लो।
११३३- गायका तुरंत जन्मा हुआ बच्चा जैसे बीसों बार गिरने उठने पर कहीं खड़ा हो सकता है, इसी प्रकार साधना करते समय साधक अनेक बार गिर पड़ने पर कहीं अन्त में सिद्धि-लाभ करता है।
११३४- यदि मेरे दिल में तीर की नोंक नहीं चुभती तो तीर का क्या दोष है? क्योंकि मेरे दिल में जो प्रेम की आग जलती है, वह इतनी भड़क रही है, कि उसमें लोहा भी पड़े तो वह गल जाता है।
११३५- जो हृदय कोमल, दीन और भगवान के विरह से व्याकुल है, उसी में प्रभु का निवास है।
११३६- संसार के लोग मेरी जितनी चाहे निन्दा करें, मैं इसका कुछ विचार नहीं करता। जिसके मुख है, जो इच्छा हो सो कहे। मैं तो हरिरस में मतवाला होकर कभी धरती पर लोटता हूँ, कभी नाचता हूँ और कभी सो जाता हूँ।
११३७- मनुष्य-मनुष्य की आँखों में धूल झोंक सकता है, पर परमात्मा की आँख में धूल नहीं झोंकी जा सकती।
११३८- स्त्रियों की मीठी बातों में नहीं भूलना चाहिये। इनकी बातें रसमयी हैं, किंतु वैरागी के लिये तलवार की धार के समान हैं। उनसे अपनी रक्षा करना कठिन है।
११३९- जो परायी स्त्रियों को माता के समान नहीं मानता वह महामूर्ख है। उसके पापका प्रायश्चित्त नहीं।
११४०- जो परस्त्रियों को माता के समान, पराये धन को मिट्टी के ढेले के समान और सब प्राणियों को अपने समान समझता है, वही देखता है और तो सब अन्धे हैं।
११४१- शरीर अनित्य है, ऐश्वर्य अनित्य है, मृत्यु सदैव पास है, इसलिये धर्म करो।
११४२- जो अपना जीवन सुख से बिताना चाहें, वे विषयों का संग न करें और जो परमपद के अभिलाषी हों, वे तो उनका नाम भी न लें।
११४३- जो तुम्हारी बातों को सुनना चाहें, उन्हीं को अपनी बातें सुनाओ। जो तुम्हारी बातें सुनना न चाहें, उनके गले मत पड़ो।
११४४- विषय भोगों में सुख नहीं है। एक-न-एक दिन मनुष्य को इनसे अलग होना ही पड़ता है। अलग होने के समय विषय-भोगी को बड़ा दुःख होता है ।
११४५- आत्मचिन्तन करो, पर आत्मचिन्तन करना सहज काम नहीं है। इसके लिये मन को वश में करना होगा, उसे विषयों से हटाना होगा, उसे वृत्तियों से अलग कर एकाग्र करना होगा, तभी सफलता हो सकेगी।
११४६- मूर्ख मनुष्य भाग्य पर संतोष नहीं करता, धन के लिये मारा- मारा फिरता है। जब कुछ हाथ नहीं लगता, तब रोता और कलपता है।
११४७- यदि तू सुख-शान्ति से जीवनयापन करना चाहता है, तो तृष्णा पिशाची के फंदे से निकलकर भाग्य पर संतोष कर।
११४८- अरी पामर तृष्णा! मैं तुझसे पूछता हूँ कि इतने कुकर्म कराकर भी तुझे संतोष हुआ या नहीं।
११४९- सूर्य के उदय और अस्त के साथ मनुष्यों की जिन्दगी रोज घटती जाती है। समय भागा जाता है, पर कारोबार में मशगूल रहने के कारण वह भागता हुआ नहीं दीखता। लोगों को पैदा होते, विपत्तिग्रस्त होते और मरते देखकर भी मन में भय नहीं होता। इससे मालूम होता है, कि मोहमयी प्रमादरूप मदिरा (शराब) के नशे में संसार मतवाला हो रहा है।
११५०- मनुष्य दूसरे को बूढ़ा हुआ तथा मरनेवाला देखता है, पर आप यही समझता है मैं तो सदा जवान रहूँगा-अमर रहूँगा।

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