जीवन बदल देने वाली अनमोल बातें - भाग 2
१०५१-अपनी स्त्री के सिवा अन्य किसी स्त्री से सम्बन्ध न रखे। किसी भी स्त्री को अपने पास सहसा न रहने दे। अपनी-स्त्रीक्षसे भी उचित ही सम्बन्ध रखे और चित्त को कभी आसक्त न होने दे।
१०५२- धान जबतक सीजता नहीं तभीतक उग सकता है, लेकिन एक बार भी सीज जाने पर वह नहीं उगता, ऐसे ही जीव एक बार ज्ञानाग्नि में पक गया तो फिर उसे जन्म लेना नहीं पड़ता। जबतक अज्ञान है, तभीतक आना-जाना है।
१०५३- जब विवेक के द्वारा मन की सारी उपाधियाँ छूट जाती हैं और वैराग्य के उत्पन्न हो जाने से गृहस्थी का बखेड़ा छूट जाता है, तब मनुष्य अंदर और बाहर दोनों ओर से मुक्त होकर योगी हो जाता है।
१०५४- जिस क्षण भगवान नाम का स्मरण न हो, वही सबसे बड़ा दुःख है और भगवान नाम का समरण होता रहे, तो शरीर को चाहे कितना भी
क्लेश हो उसे परमसुख ही समझना चाहिये।
१०५५- तुम्हारे सब सांसारिक बन्धन और सम्बन्ध तुम्हें चिन्ता और दुर्भाग्य के वश में डालते हैं। उनसे ऊपर उठो। ईश्वर से अपनी एकता का अनुभव करो, बस तुम्हारा निस्तार है। तुम स्वयं मोक्षरूप हो।
१०५६- जिस मनुष्य में ईश्वर का स्मरण करने की शक्ति हो, उसको गरीब या दीन न समझकर महान् धनवान् समझो और जिसके पास यह ऊँची-से-ऊँची और बड़ी-से-बड़ी सम्पत्ति नहीं है, वह चाहे बड़ा भारी बादशाह हो; परंतु असल में वही गरीब और अनाथ है।
१०५७- पिता-माता ईश्वर के प्रतिनिधिस्वरूप हैं, साक्षात् प्रत्यक्ष देवता हैं। पिता-माता में परमात्मसत्ता की स्फूर्ति के दर्शन कर गाढ़ भक्ति-भाव से इनकी सेवा करते रहनेसे भी निश्चय ही मनुष्य को सिद्धि मिल जाती है।
१०५८- जिनको दूसरों की निन्दा करने में रस आता है, वे मित्र बनाने की मीठी कला नहीं जानते। वे फूट का बीज बोकर अपने पुराने मित्रों को दूर हटा देते हैं।
१०५९- परमात्मा निश्चय ही हमें सुख देते हैं। यदि हमारे पीछे पाप न लगे तो हमारे सामने सदा कल्याण ही होता रहे।
१०६०- महर्षियों ने प्रतिष्ठा को शूकरी-विष्ठा के समान अत्यन्त हेय बतलाया है। अतएव त्यागी को सदा कीट की तरह प्रतिष्ठाहीन होकर विचरण करना चाहिये।
१०६१- सब इन्द्रियों में से यदि एक भी इन्द्रिय विचलित हो जाती है, तो उससे इस मनुष्य की बुद्धि ऐसे चली जाती है, जैसे मशक में जरा-सा
छेद होने पर तमाम जल निकल जाता है।
१०६२- चैतन्यरूप वस्त्र से युक्त महाभाग्यवान् पुरुष वस्त्रहीन, वस्त्रयुक्त अथवा मृग-चर्मादि धारण कर उन्मत्त के समान, बालक के समान अथवा पिशाचादि के समान स्वेच्छानुसार भूमण्डल में विचरते रहते हैं।
१०६३- भगवान की भक्ति करना ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है। उन्हींकी भक्ति करके परम शान्ति को प्राप्त करो।
१०६४- मेधावी और बहुश्रुत सत्पुरुषों का संग करो, क्योंकि जो महापुरुषों की शरण लेता है, वह उसको जानकर सुख प्राप्त करता है।
१०६५- जब एक राम को ही शरण लेने से स्वार्थ और परमार्थ सहज में ही सिद्ध हो जाते हैं, तब दूसरे के द्वार पर जाकर अपनी हीनता दिखलाना उचित नहीं।
१०६६- मनुष्य ! उस दिन को याद रख जिस दिन तेरी देह छूट जाएगी और गङ्गातट पर जाकर जला दी जायगी, यहाँ का न कुछ संग जाएगा और न कोई सहायक होगा।
१०६७- जो दूसरों की आँखों में धूल झोंकने में चतुर होते हैं, वे समझते हैं कि हम इसी तरह से भगवान को भी धोखा दे सकेंगे; परंतु सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ भगवान के सम्बन्ध में ऐसा सोचना उनका निरा पागलपन है।
१०६८- मूर्ख समझता है, कि वह इन्द्रियों के सुख लूटता है, किन्तु वह यह नहीं जानता कि अस्वच्छ विचार या कार्य के लिये बदले में उसकी जीवन-शक्ति ही बिक जाती अथवा नष्ट हो जाती है।
१०६९- हृदय की सरलता और निर्मलता ईश्वरीय ज्योति है, यह ज्योति ही ईश्वर का मार्ग दिखलाती है। प्रभु से क्षमा की आशा इन साधनों की ओर खींचती है, प्रभु का भय ही पाप से निवृत्त करता है। और प्रभु-महिमा का स्मरण ही इस सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ाता है।
१०७०- भगवान के दास कहलाकर जगत की आशा मत रखो। जब समर्थ स्वामी को प्राप्त कर लिया तब किसी के सामने दीन क्यों होते हो?
१०७१- जगत की किसी भी वस्तु का विश्लेषण करने पर उस में सत्ता, प्रकाश, आनन्द, नाम और रूप ये पाँच चीजें मिलती हैं। इनमें पहली तीन चीजें ब्रह्म की अपनी हैं और शेष दो जगत की हैं। अतएव नाम-रूप से मन हटाकर सच्चिदानन्द में अनुराग कर ।
१०७२- जबतक परमात्मा के यथार्थ स्वरूप की पहचान नहीं होती तभीतक अविद्यारूप संसार और संसारी जीव भासते हैं, वास्तव-स्वरूप की पहचान होते ही जीव-भाव और दृश्यभाव निवृत्त
होकर एक परब्रह्मरूप ही दृष्टिगोचर होने लगता है।
१०७३- शोक, मोह, दुःख, सुख और देह की उत्पत्ति यह सब माया के ही कार्य हैं और यह संसार भी स्वप्न के समान बुद्धि का विकार ही है। इसमें वास्तविकता कुछ भी नहीं है।
१०७४- विषय-वासना के वश में होकर सांसारिक बन्धनों में फँसना मानवधर्म नहीं है। स्त्री, धन, पुत्र, पशु, घर, भूमि, हाथी, खजाना-ये सभी नाशवान्, क्षणभङ्गुर और चलायमान हैं। इनमें ममता रखना भूल है। एकमात्र भगवान की भक्ति से प्राप्त मोक्ष ही अक्षय और सर्वश्रेष्ठ है, अतएव सभी मनुष्यों को भगवद्भक्ति में लग जाना चाहिये।
१०७५- ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होगी, इसमें कोई संदेह नहीं, परंतु उस ज्ञान की कद्र करने वाला शुद्ध मन भी तो होना चाहिये। वैराग्य के बिना ज्ञान कभी नहीं ठहर सकता।
१०७६- भोजन में जहर मिला हो और यह बात भोजन करने वाले को मालूम हो जाए, तो वह तुरंत थाली छोड़कर उठ जाएगा, इसी प्रकार संसार की अनित्यता और दुःखरूपता का पता लगते ही
मनुष्य को वैराग्य हो जाता है। फिर वैराग्य मन से हटता ही नहीं।
१०७७- मैंने संसार के सुख-दुःख, जीवन-मरण तथा जरा और रोग देख लिये हैं, उन्हीं के चंगुल से बचने के लिये मैंने संन्यास लिया है। क्या फिर भी मैं मूल की तरह उनका स्वाद चखने के लिये लौट
सकता हूँ?
१०७८- भगवान की खोज करना और राज्यपद की इच्छा रखना ये दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। इनमें उतना ही विरोध है और छाया में, आग और पानी में। जो मनुष्य राज्यपद पाना चाहता है, उसके लिये शान्ति की इच्छा करना व्यर्थ है।
१०७९- देह को चाहे जितना सुख-दुःख हो भक्त उसका ख्याल नहीं करते, उनकी वृत्ति एकमात्र भगवद्भक्ति में लगी रहती है, वे नित्य
भक्तिके ऐश्वर्यमें सराबोर रहते हैं।
१०८० -घर में दीया जलाने से वह झरोखे में भी प्रकाशित है। वैसे ही भगवान् मन में प्रकट होते ही अन्य इन्द्रियों में भी भजनानन्द उत्पन्न कर देते हैं।
१०८१- जो किसी भी बहाने से, हँसी में, दुःख में अथवा वैसे ही भगवान के नामों का उच्चारण कर लेता है उसके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैभचण।
१०८२- सांसारिक भोगों के प्राप्त होने पर जो उन्हें लेता ही नहीं, वह पूरा मनुष्य है। जो लेता है; परंतु लेकर सच्चे पात्रों को दे देता है वह भी सच्चा है, पर वह आधा मनुष्य है; परंतु जो मनुष्य दान लेता है, पर किसी को देता नहीं, वह तो मक्खी चूस ही नहीं, मधुमक्षिका-जैसा भी नहीं है; क्योंकि ऐसा करने में वह अपना कुछ भी हित या कल्याण नहीं करता।
१०८३- जो मनुष्य परलोक की साधना न कर केवल संसार की साधना में ही लगा रहता है, वह इस लोक और परलोक में दुःख और नुकसान ही प्राप्त करता है
१०८४- ज्ञान और प्रेम सर्वथा भिन्न वस्तु नहीं है। किसी भी एक मार्ग का अवलम्बन करो, लक्ष्य स्थल पर पहुँचते ही इस बात को तुरंत समझ सकोगे कि जिसको 'अपरोक्षज्ञान' या आत्मदर्शन कहते हैं, सचमुच उसीका नाम 'प्रेम' है।
१०८५- रक्त, मांस और हड्डियों से बने हुए यन्त्ररूप बहुतेरे मनुष्य केवल खा-पीकर जगत के पदार्थों को बिगाड़ रहे हैं, उनमें बुद्धिमान् मनुष्य बहुत ही दुर्लभ है। जो मोह के वश हुए बार-बार जन्म-मृत्यु और जरारूप दुःखों वाले संसार में ही पड़ा करते हैं, कुछ भी विचार नहीं करते, उन्हें पशु ही समझना चाहिये।
१०८६- जो अपने लिये या किसी दूसरे के लिये पुत्र, धन और राज्य नहीं चाहते और न अधर्म से ही अपनी उन्नति चाहते हैं, वे ही पुरुष सदाचारी, प्रज्ञावान् और धार्मिक हैं।
१०८७- गौ अपने गले में पड़ी हुई माला के रहने या गिरने की तरफ जिस प्रकार कुछ भी ध्यान नहीं देती, इसी प्रकार प्रारब्ध की डोरी में पिरोया हुआ यह शरीर रहे या जाय, जिसके चित्त की वृत्ति आनन्दरूप ब्रह्म में लीन हो गयी है, वह पुरुष फिर उसकी ओर देखता ही नहीं।
१०८८- भगवान के रूप का ध्यान करो, भगवान नाम सङ्कीर्तन करो, भगवान के गुणानुवाद का गायन करो, भगवान की लीलाओं का परस्पर
कथन और श्रवण करो।
१०८९- हे भगवन् ! मेरे जीवन के शेष दिन किसी पवित्र वन में 'शिव, शिव, शिव'जपते हुए बीतें। साँप और फूलों का हार,बलवान् बैरी और मित्र, कोमल पुष्प-शय्या और पत्थर की शिला; रत्न और पत्थर, तिनका और सुन्दरी कामिनी-इन सबमें मेरी दृष्टि सम हो जाय।
१०९०- भगवान् श्रीराम जिसकी ओर कृपा की नजर से देखते हैं उसके लिये विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्र हो जाते हैं, समुद्र, गौके खुर-बराबर हो जाता है; अग्नि शीतल हो जाती है और भारी सुमेरु पहाड़ रज के समान हो जाता है।
१०९१- प्रेम-प्रेम तो सब कहते हैं, परंतु प्रेम को कोई नहीं पहचानता, जिसमें आठों पहर भीगा रहे वही प्रेम है।
१०९२- लौ तभी लगी समझो, जब कि वह कभी न छूटे, जिंदगीभर लौ लगी रहे और मरने पर प्यारे में ही समा जाय । प्रीति इसी का नाम है।
१०९३-प्राणी जबसे जन्म लेता है, तभी से उसकी उम्र घटने लगती है। बचपन, जवानी, बुढ़ापा यों देखते-देखते जिस तरह तेल घट जाने से दीपक बुझ जाता है, उसी तरह उसका जीवन बुझ जाता है
१०९४- ईर्ष्या, लोभ, क्रोध और अप्रिय किंवा कटुवचन-इन से सदा अलग रहो, धर्मप्राप्ति का यही मार्ग है।
१०९५- तिनके के समान हल्का बनने से, वृक्ष के समान सहिष्णु बनने से, मान छोड़कर दूसरों को मान देनेसे, इष्ट की महिमा समझने से तथा अभिमान त्याग करने से साधना शीघ्र सफल होती है। इस प्रकार की योग्यता प्राप्त करने के लिये सत्सङ्ग, धर्मग्रन्थ और भक्त चरित्र का अभ्यास, गुरु-आज्ञा का पालन तथा माता-पिता आदि गुरुजनों की तथा भक्तों की सेवा -पूजा करना बहुत आवश्यक है।
१०९६- सत्ययुग में भगवान के ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से, द्वापर में सेवा से जो फल मिलता है, वही कलियुग में केवल श्रीहरि-कीर्तन से मिलता है। अतएव जो दिन-रात श्रीहरि का प्रेमपूर्वक कीर्तन करते हुए ही घर का सारा काम करते हैं, वे भक्तगण धन्य हैं।
१०९७- एक क्षण के लिये भी आयु का नाश होना बंद नहीं,होता; क्योंकि शरीर अनित्य है। अतएव बुद्धिमान् पुरुषों को विचारना चाहिये, कि नित्य वस्तु कौन-सी है। उस नित्य वस्तु को जान लेना ही सबसे बड़ा ज्ञान है।
१०९८- जब काल सुमेरु-जैसे पर्वत को भी जला देता है, बड़े-बड़े सागरों को सुखा देता है, पृथ्वी का नाश कर देता है, तब हाथी के कान की कोर के समान चञ्चल मनुष्य तो किस गिनती में है।
१०९९- काम, क्रोध बड़े ही क्रूर हैं, इनमें दया का नाम नहीं, इन्हें काल ही समझो। ये ज्ञाननिधि के साँप, विषयकन्दरा के बाघ, भजन-मार्ग के घातक हैं। ये जल में नहीं बिना ही जल के डुबो देते हैं, बिना ही आग के जला देते हैं और बिना ही शस्त्र के मार डालते हैं।
११००- वे माता-पिता धन्य हैं और वही पुत्र धन्य है जो किसी प्रकार से राम का भजन करता है। जिसके मुख से धोखे से भी राम का नाम निकलता है, उसके पैरों की जूती मेरे तनके चमड़े से बने तो भी कम ही है। वह चाण्डाल भक्त अच्छा जो रात-दिन राम को भजता है। जिसमें हरिका नाम नहीं वह ऊँचा कुल किस काम का।

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