जीवन बदल देने वाली अनमोल बातें - भाग 1
१००१- भगवान का भजन-ध्यान करने वाला मनुष्य उनकी कृपा से परमानन्द और शान्ति को प्राप्त कर ले, इसमें तो आश्चर्य ही क्या है, भगवान के भक्तों का आश्रय ग्रहण करके उनके वचनों के अनुसार चलने वाला अतिशय मूढ़ पुरुष भी दुःखों से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
१००२- सदा याद करते रहने की तो एक ही वस्तु है। सदा-सर्वदा सर्वत्र श्रीकृष्ण के सुन्दर नामों के ही स्मरण से प्राणि मात्र का कल्याण हो सकता है। सदा उसी का स्मरण करते रहना चाहिये।
१००३- मन में कामना रखकर भजन करने से सिर्फ उसका फल मिलता है परंतु निष्काम भजन से भगवान की प्राप्ति होती है। सांसारिक फल तो मनुष्य को भगवान से दूर करता है, इसलिये निष्काम भाव से भगवान् का भजन करना ही श्रेष्ठ है।
१००४- जबतक यह शरीर स्वस्थ है, जबतक वृद्धावस्था दूर है, जबतक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं हुई है और जबतक आयु शेष नहीं हुई है, तभीतक परमात्मा को पाने के लिये उपाय कर लो। जो मनुष्य यह सोचकर चुपचाप बैठा रहता है कि घर में आग लग जाने पर कुआँ खोदेंगे, उसे जैसे जलना ही पड़ता है, यही दशा तुम्हारी होगी।
१००५- भगवान का नाम ही भव-रोग की दवा है। अच्छा न लगने पर भी नाम-कीर्तन करते रहना चाहिये, करते-करते क्रमशः नाममें रुचि हो जायेगी।
१००६- विषयी पुरुष नीचे लिखी तीन बातों के लिये अफसोस करते हुए मरते हैं-
(१) इन्द्रियों के भोगों से तृप्ति नहीं हुई।
(२) मन की बहुत-सी आशाएँ अधूरी ही रह गयीं। (३) परलोक के लिये कुछ साथ न ले चले।
१००७- ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा सब कर्मों का नाश हो जाने के कारण मनुष्य बिना किसी प्रतिबन्ध के मुक्त हो जाता है।
१००८- सबसे प्रेम बढ़ाइये, 'मेरे द्वारा दूसरे का कैसे हित हो'–निरन्तर यही बात सोचते रहिये और यथाशक्ति सब की सेवा सहायता कीजिये।
१००९- यदि कोई कमजोर मनुष्य प्रभु के कार्य में लग जाता है, तो उसको भी अन्त में प्रभु का बल मिल जाता है। इसी प्रकार यदि कोई बलवान् पुरुष लौकिक स्वार्थों में ही लगा रहता है, तो अन्त में उसे बलहीन तथा लाञ्छित होना पड़ता है।
१०१०- जो मूढ़ लोग बाहर की कामनाओं में लगे रहते हैं, वे विषयासक्त पुरुष आधि-व्याधिरूप से फैले हुए मृत्यु के पाश में बँधते हैं। इसलिये धीर पुरुष नित्य अमृतत्त्व को जानकर अनित्य वस्तुओं की इच्छा नहीं करते।
१०११- शान्त स्वभाव रहो, किसी के द्वारा अपने पर कैसा भी लाञ्छन लगाये जाने पर भी अपने मन को मत बिगाड़ो।
१०१२- जो लोभी विषयों की आशाओं के दास बने हुए हैं, वे तो सभी के गुलाम हैं। जिन्होंने भगवान में विश्वास करके आशा को जीत लिया है, वे ही भगवान के सच्चे सेवक हैं।
१०१३- बाहरी स्वाँग में और सच्चे साधु में उतना ही अन्तर है, जितना पृथ्वी और आकाश में। साधु का मन राम में लगा रहता है और स्वाँगधारी का जगत के विषयों में ।
१०१४- जो फल के लिये भगवान की सेवा करते हैं और मन से कामना का त्याग नहीं करते, वे चीज का चौगुना दाम चाहने वाले लोग सेवक नहीं है।
१०१५- जिसका मन परमात्मा में रहता है, परमात्मा उसकी सँभाल रखते हैं।
१०१६- मनुष्य जब किसी उत्तम कार्य में लग जाता है, तब उसके नीची श्रेणी के कार्य दूसरे लोग आप ही सँभाल लेते हैं। इसी प्रकार ज्यों-ज्यों अपने ध्येय की ओर आगे बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों उसके
सांसारिक और शरीरिक कार्य कुदरत के नियम से उलटे अच्छी तरह होने लगते हैं।
१०१७- जिस विद्या से लोग जीवन-संग्राम में शक्तिमान् नहीं होते, जिस विद्या से मनुष्य के चरित्र का विकास नहीं होता और जिस विद्या से मनुष्य परोपकार-प्रेमी और पराक्रमी नहीं बनता, उसका नाम विद्या नहीं है।
१०१८- बदला लेने का ख्याल छोड़कर क्षमा करना अन्धकार से प्रकाश में आना है और जीते-ही-जी नर्क की जगह स्वर्ग का सुख भोगना है।
१०१९- असली सत्त्वगुणी भक्त लोग रात को मशहरी में पड़े-पड़े ध्यान किया करते हैं। लोग समझते हैं कि वे सोते हैं; परंतु जिस समय सब लोग सोते हैं, उस समय वे परलोक का काम बनाया करते हैं। वे बाहर का दिखावा बिल्कुल ही पसन्द नहीं करते।
१०२०- इस जगत में करोड़ों आदमी प्रभु के उपासक कहलाते हैं; परंतु सच्चे उपासक कौन हैं तथा प्रभु किनके साथ हैं ? जो ईश्वर से डरकर चलते हैं तथा अपने स्वार्थ का नाश करके भी दूसरों का हित करते हैं, वे ही सच्चे उपासक हैं और भगवान् भी उन्हीं के साथ हैं।
१०२१- मान-बड़ाई अथवा प्रतिष्ठा की इच्छा करना मृत्यु की इच्छा करने के समान है। अच्छे-अच्छे पुरुष भी इसमें फँसकर साधन से
च्युत हो जाते हैं। प्राण चाहे छूट जायँ, परंतु प्राण-प्रियतम परम प्रेमास्पद प्रभु की स्मृति एक क्षण के लिये भी हृदय से न हटे।
१०२२- जगत की प्रभुता कैसी है, जैसे सपने में मिला हुआ पराया खजाना। जागने पर जैसे उस खजाने का कुछ भी नहीं रहता, वैसे ही जगत की प्रभुता भी वास्तव में कुछ भी नहीं है।
१०२३- जैसे एक ही अग्नि भिन्न-भिन्न काठों में प्रवेश करके अनेक प्रकार के रूपवाला हो जाता है, इसी प्रकार एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार का हो जाता है।
१०२४- अहंकार के कारण ही आत्मा को 'मैं देह हूँ ऐसी बुद्धि होती है और इसी के कारण यह सुख-दुःखादि देने वाले जन्म-मरणरूप संसार को प्राप्त होता है।
१०२५- यदि कोई पिता या पुत्र मर जाता है तो मूढ़ लोग ही उसके लिये छाती पीटकर रोया करते हैं। ज्ञानियों के लिये तो इस असार संसार में किसी का वियोग होना वैराग्य का कारण होता है और वह
सुख-शान्ति का विस्तार करता है।
१०२६- कछुए के पीठपर चाहे बाल उग जायँ, बन्ध्या का पुत्र किसी को मार डाले, आकाश में फूल फूल जायँ, मृग-जल से प्यास मिट जाय, खरगोश के सींग आ जायँ, अन्धकार सूर्य का नाश कर दे और बर्फ में अग्नि प्रकट हो जाय, परंतु राम से विमुख मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता।
१०२७- ज्ञानी की बुद्धि में फल और हेतु से आत्मा की पृथक्ता प्रत्यक्ष है, इसलिये उनके मन में अनात्म-पदार्थों में 'मैं यह हूँ' ऐसा आत्मभाव नहीं हो सकता।
१०२८- गोविन्द-विरह में मेरा निमेषकाल भी युग के समान बीतता है। मेरी आँखों ने वर्षा-ऋतु का रूप धारण किया है और समस्त जगत् मुझे शून्य-सा प्रतीत होता है।
१०२९- प्रभु को प्राप्त करने का पहला साधन है- प्रभु को प्राप्त करने का निश्चय। यह निश्चय होने पर ही इन्द्रियों को अपने वश में रखने की आवश्यकता प्रतीत होती है, कुविचार क्षीण हो जाते हैं और उच्च
अवस्था प्राप्त हो जाती है।
१०३०- अरी बुद्धि चकवी ! तू भगवान के चरण-सरोवर में जा बस, जहाँ न तो कभी प्रेम-वियोग होगा और न रोग, दुःख या शोक ही
है तथा रात-दिन 'राम-राम' की वर्षा हो रही है।
१०३१- कल करना हो सो आज ही कर लो और जो आज करना हो, उसे अभी कर लो, पल में मृत्यु हो जायेगी, फिर कब करोगे। लोग कैसे बावले हैं जो झूठे सुख को सुख कहते हैं और मन में मोद
मानते हैं। अरे ! यह जगत् तो काल का चबैना है। कोई काल के मुख में है, तो कोई हाथ में।
१०३२- जगत का जीवन पानी के बुल्ले के समान है। एक उठता है, तो दूसरा बिला जाता है।
१०३३- कामवासना जाग्रत् होने पर नाम की धुन लगा देनी चाहिये। जोर-जोर से कीर्तन करने लगना चाहिये। कामवासना नाम-जप तथा नाम-कीर्तन के सामने कभी ठहर नहीं सकती।
१०३४- परमात्मदेव को जान लेने पर सारे बन्धनों का नाश हो जाता है। क्लेशों के क्षीण हो जाने से जन्म-मृत्यु का अभाव हो जाता है। परमात्मा का
ध्यान करने से तीनों देहों का भेदन हो जाता है और वह केवल आप्तकाम विश्व के ऐश्वर्य को प्राप्त होता है।
१०३५- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध-इन इन्द्रियों के विषयों में कामना से प्रवृत्त नहीं होना चाहिये और मन से उनके विरुद्ध भावना करके, यानी विषय मिथ्या हैं और परिणाम में नरकों में ले जाने वाले हैं, ऐसा विचार करके उनके अति प्रसङ्ग को छोड़ देना चाहिये।
१०३६- यह समस्त विश्व भगवान का ही विस्तृत रूप है। अतएव बुद्धिमानों को चाहिये कि सबको अभेद-दृष्टि से अपने ही समान देखें।
१०३७- रागके समान संसार में दुःख का अन्य कोई कारण नहीं है, राग ही सबसे बढ़कर दुःख देने वाला है और त्याग के समान कोई सुखदाता
नहीं है।
१०३८- साधुओं के सङ्ग से श्रीभगवान के पराक्रम का यथार्थ ज्ञान कराने वाली, हृदय और कानों को सुख देने वाली कथाएँ सुनने को मिलती हैं, उन कथाओं से मोक्षरूप भगवान में श्रद्धा होती है, श्रद्धा से रति और रति से भगवान में भक्ति होती है।
१०३९- बुद्धिमान् धीर पुरुषों को चाहिये कि और सब कर्मों को छोड़कर आत्मा के विचार में तत्पर रहकर संसार-बन्धन से छूटने का यत्न करें।
१०४०-धन चुराया गया, रोता क्यों हैं? क्या चोर ले गये? रो अपनी इस समझपर। प्यारे लेने-ले जाने वाला दूसरा कोई नहीं है, वह एक ही है। जो नये-नये बहानों से तेरा दिल लिया चाहता है। गोपियों के इससे बढ़कर और क्या भाग्य होंगे कि श्रीकृष्ण उनका मक्खन चुरावें। धन्य हैं वह, जिसका सब कुछ चुरा लिया जाय। मन और चित्त तक भी बाकी न रहे।
१०४१- अहंकार करना व्यर्थ है। जीवन, यौवन कुछ भी यहाँ नहीं रहेगा। सब तीन दिनों का सपना है।
१०४२- हे प्रभो! तेरे सामने हाथ जोड़कर सच्चे हृदय से इतनी ही प्रार्थना करता हूँ कि मैं माँगूं या न माँगूं, मुझे ऐसी कोई चीज कभी न देना जो मुझे अच्छी लगने पर भी मेरा बुरा करने वाली हो और मेरी बुद्धि को कुमार्ग पर ले जाने वाली हो।
१०४३- समस्त अनैक्य में ऐक्य को उपलब्ध करना और सारी विभिन्नताओं में एक अभिन्न सद्वस्तु को हृदय में धारण करना ही भारतीय साधना का अन्तिम लक्ष्य है।
१०४४- जिस प्रकार पारस के स्पर्श होते ही लोहा सोना हो जाता है, समुद्र में बूंद गिरते ही उसमें मिल जाती है और गङ्गा में कोई नदी मिलते ही वह गङ्गा हो जाती है, उसी प्रकार सावधान, उद्योगी और दक्ष पुरुष संतों की संगति करते ही मोक्ष को पा जाता है।
१०४५- जिज्ञासु पुरुष को चाहिये कि वह समस्त इन्द्रियों को मन में लय करे, मन को व्यष्टि-बुद्धि में लय करे, व्यष्टि-बुद्धि को महत् यानी समष्टि-बुद्धि में लय करे और समष्टि-बुद्धि को शान्त आत्मा में लय करे।
१०४६- जो मनुष्य दूसरों की आजीविका का नाश करते हैं, दूसरों के घर उजाड़ते हैं, दूसरों की स्त्री का उसके पति से बिछोह कराते हैं, मित्रों में भेद उत्पन्न करते हैं, वे अवश्य ही नर्क में जाते हैं।
१०४७- पुत्र, स्त्री, मित्र, भाई और सम्बन्धियों के मिलने को मुसाफिरों के मिलने के समान समझना चाहिये।
१०४८- जैसे नींद छूटने के साथ ही स्वप्नका भी नाश हो जाता है, वैसे ही इस देह के नाश होने के साथ ही सब सम्बन्धी भी छूट जाते हैं।
१०४९- वे सत्य के उपासक महात्मा मुनि धन्य हैं, जिन्हें न किसी से राग है और न किसी से द्वेष है, जो सभी प्राणियों में समान भाव रखकर सबको समदृष्टि से देखते हैं।
१०५०- जिसका मन विषयों में नहीं है, जिसका मन निर्मल है, जिसकी इन्द्रियाँ विकार को प्राप्त नहीं होतीं, उसी का नाम वैष्णव है।

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