"मानसिक व्यभिचार"
याद रहे, कि ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का सर्वप्रधान साधन इन्द्रिय विजय है और यह विजय तभी प्राप्त हो सकती है, जब उस प्रदेश के महावञ्चल राजा मन पर पूर्णाधिपत्य स्थापित हो। जब तक इन्द्रियों पर विजय नहीं है, अपने वश में नहीं हैं, वीर्य रक्षा कदापि नहीं की जा सकती। जो मानसिक व्यभिचार से पीड़ित है, उसने यदि इन्द्रियों पर कृत्रिम नियंत्रण रखा, तो लाभ के विपरीत हानि की ही आशंका है। और यह हानि निस्सन्देह किसी
संक्रामक रोग के रूप में प्राप्त होगी।
इसलिये सर्वप्रथम मन को वश में करने की आवश्यकता है। विवाहित व्यक्ति भी यदि मन को वश में नहीं रखते, तो मानसिक व्यभिचार से पीड़ित होंगे और उन पर उन्हीं भीषण रोगों के आक्रमण की आशङ्का रहेगी। मानसिक व्यभिचार ही एक प्रकार का क्षय रोग है, जो क्रमशः मनुष्य को कमजोर और कान्तिहीन तथा वीर्य दोषयुक्त बनाता जायेगा। मानसिक व्यभिचार एक ऐसा भीषण घुन है, जो मनुष्य के शरीर को बड़ी ही तीव्र गति से खोखला बना देता है, रक्त की गति मन्द और वीर्य पतला कर देता है, बुद्धि लुप्त-सी होने लगती है। यानी एक प्रकार का नशा-सा वर्तमान रहता है। ऐसा व्यक्ति इतना विषयासक्त हो जाता है, कि अप्राकृतिक मैथुन का आश्रय लेता है। 'एक बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। वह यह कि मानसिक व्यभिचार का परिणाम अक्सर मानसिक रोग होता है और पागलपन या उन्माद आदि के होने की सम्भावना रहती ह। मानसिक बीमारी से यदि कोई व्यक्ति बच
भी जांए, तो आगे चलकर अधिक आयु में उसे फिर वही रोग न्यूनाधिक रूप में प्रकट होगा और इसका प्रभाव उसकी सन्तान पर निश्चित रूप से पड़ेगा।
एक डॉक्टर का कहना है, कि मानसिक व्यभिचार के प्रभावसे ही कुछ लोगों को रक्त दवाव (Blood Pressure) की बीमारी हो जाती है। कभी-कभी कुछ लोगों में स्मरण सम्बन्धी रोग, या ठीक उत्तर न देने की कमजोरी आदि भी इसी मानसिक व्यभिचार की देन है। इसी बात को लेकर एक विद्वान ने एक स्थल पर लिखा था कि शारीरिक व्यभिचार उससे कम हानिकर है। फलतः लोगों ने इसका यह भ्रमात्मक निष्कर्ष निकाला कि ब्रह्मचर्य या वीर्य-सञ्चय ही दोषकारक है।
यह तो निश्चित है, कि मानसिक व्यभिचार अधिक वीर्यपात से भी भयंकर है। वचन की दृष्टि से भी यदि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन न किया गया और गन्दे-भद्दे गाने और साहित्य रस का पान किया गया, तो अन्त में उसका असर भी मानसिक
व्यभिचार के रूप में पड़ेगा। इसीलिये कहा गया है, कि वास्तविक ब्रह्मचर्य वही है, जिसका मन, वचन और कर्म से पालन किया गया हो। अतएव मन
और वचन से यदि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन न किया गया, तो ब्रह्मचर्याश्रम में १०० वर्ष रहकर भी मनुष्य स्वस्थ और सफल नहीं हो सकता। वरन् उसको ब्रह्मचर्याश्रम में रखना ही हितकर न होगा।
मन इन्द्रियों का राजा है। मन सबसे अधिक चंचल है। यदि उस पर वश न रहा, तो वह भीषण व्यभिचार में लिप्त करके छोड़ेगा। सभी प्रकार के मनोविकारों का जन्म मन से ही होता है और यदि उन्हें दूर न किया गया तो फिर उनका पोषण इन्द्रियां करती रहेंगी। फिर ऐसी दशा में मनुष्य कब तक वीर्य की रक्षा करेगा। मनोविकारों से बचने के लिये खान-पान, रहन-सहन और वातावरण का
भी ध्यान रखना होगा। इन तीनों कारणों से कोई एक भी मनोविकार ला सकता है और अन्त में मानसिक व्यभिचार का शिकार होना पड़ेगा।
मन, वचन और शरीर से सभी अवस्थाओं में सदैव, वीर्यरक्षा का नाम ही वास्तविक ब्रह्मचर्य हैं। वास्तविक ब्रह्मचर्य वही होगा जो सचमुच मन, वचनों एवं कर्मों से पालन किया गया हो। बहुधा ऐसा देखा जाता है, कि ऐसे नवयुवक जिनसे स्वप्न
में भी यह आशा नहीं है कि उन्होंने वीर्यक्षय किया होगा। ऐसी किसी बीमारीसे पीड़ित रहते हैं, जो विशेषतः वीर्यक्षय अथवा वीर्य की कमजोर अवस्था से उत्पन्न हो सकती है। वह अज्ञान युवक अपने को ब्रह्मचारी होने का ऊपरी दावा भी करता है और लोग विश्वास भी कर ही लेंगे। पश्चिमीय देशों के एवं पाश्चात्य विचारधारा में बहने वाले
लोगों का एक ऐसा दल भी तैयार हुआ है जिनका यह विश्वास है, कि वीर्य के अधिक संग्रह से क्षय आदि संक्रामक बीमारियां हो सकती हैं। इस दल के कुछ लोग ऐसे भी है, जिनका विचार है कि ब्रह्मचर्य से आगे चलकर संक्रामक रोग होने की सम्भावना है। लेकिन परिस्थिति भिन्न है। ब्रह्मचर्य अथवा वीर्यरक्षा का अर्थ यह कदापि नहीं है, कि मन और वचनों से तो चौबीसों घण्टे व्यभिचार में लिप्त रहे, और ब्रह्मचारी भी बना रहे। अवश्य ही मानसिक व्यभिचार का परिणाम संक्रामक बीमारियां के रूप में मिलेगा।
ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के लिये मन और वाणी की शुद्धि के बाद यह भी अनिवार्य है, कि शारीरिक अशुद्धि न आये। शारीरिक अशुद्धि बीमारी का घर है और जो रोगी है, उसका ब्रह्मचारी होना भी सम्भव नहीं है। डॉक्टरों एवं मनोविज्ञानवेत्ताओं का तो कहना है, कि रोगी और निर्बल ही अधिक विषयी होते हैं और फलतः क्षीण होते चले जाते हैं।
शरीर में इतने छिद्र और रोमकूप इसीलिये बने हैं, कि शरीर को भीतरी गन्दगी दूर होती रहे और साथ ही शुद्ध वायु का प्रवेश भी जारी रहे। नाक मुंह के अतिरिक्त रोम कृपादि भी सांस लिया करते हैं और स्वस्थ रहने के लिये यह आवश्यक हैं, कि उन्हें सदैव साफ रखा जाये और यह ध्यान और कोशिश बनी रहे, कि वे बन्द न होने पाय।
स्नान मात्र ही पर्याप्त शुद्धि नहीं दे सकता। केवल १०-२० लोटा पानी डाल लेने या नदी या तालाब में १-२ डुबकी लगा लेना ही पर्याप्त स्नान नहीं। साथ ही गर्म पानी और साबुन से शरीर को मल-मल कर धोना भी पर्याप्त या आवश्यक स्नान कदापि नहीं है। स्वस्थ रहने, वीर्य की रक्षा करने तथा रोग विमुक्त रहने के लिये यह आवश्यक
है, कि प्रत्येक व्यक्ति शरीर को स्वच्छ करने में कदापि आलस्य न करे और विधिवत् स्नान को सुख, सौन्दर्य और स्वास्थ्य का सर्वोच्च साधन माने।
इसके लिये यह आवश्यक है, कि घर्षण स्नान किया जाये। इस विधि से स्नान करने से मनुष्य तेजस्वी, निर्विकारी, नीरोग, ब्रह्मचारी तथा दीर्घजीवी बन सकता है। जो अपने शरीर को गन्दा बनाये रहते हैं, वे अल्पायु को प्राप्त होते हैं और अल्पायु में भी सदैव रोग एवं मनोविकार के शिकार बने रहते हैं। शरीर को किसी खुरदरे गमछे या तौलिये से रगड़ना ही रोमकूपों को साफ रखने का मुख्य साधन है। रोमकूप साफ रहेंगे, तो शरीरकी गन्दगी और विष आसानी से बाहर निकल आयेगा। डॉक्टरों का कथन है, कि बहुधा मन्दाग्नि, कब्जियत आदि रोग इसी से होते हैं।
सुबह और शाम दो बार स्नान करना चाहिये । यदि शीत अधिक पड़ती हो, तो १०-१५ मिनट अन्यथा आधें घण्टे का समय स्नान में व्यतीत करना चाहिये। भली-भांति विधिवत् स्नान ही अपने गुण दिखा सकता है। स्नान का स्थान एकान्त होना चाहिये। पाश्चात्य विद्वानों ने नंगे
स्नान करने की राय दी है. लेकिन यह भारतीय सभ्यताके विरुद्ध है। तथापि शरीर में जितने कम कपड़े हों उतना ही अच्छा। यह भी ध्यान रखना चाहिये, कि भोजन करने के बाद स्नान करने का अवसर न आये। इस प्रकार स्वास्थ्य को सुधारने से ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन हो सकता है।

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