वीर्य ही स्वस्थ और सुंदर शरीर का आधार है


                   "ओज और वीर्य"

   मानव तन जिस मूल शक्ति के कारण सजीव रहता है, उसे ओज कहा गया है। यह ओज शरीर की सम्पूर्ण धातुओं का सार और मानवी जीवन शक्ति का आधार है। इसके बढ़ने से आयुर्बल की वृद्धि और घटने से क्षीणता आती है।


   ओज रस से लेकर वीर्यपर्यन्त धातुओं का तेज है,
जिसके नष्ट होने पर कोई भी जीवित नहीं रह सकता। जीवन धारण तभी किया जा सकता है, जब यह शरीर में उपस्थित रहता है।

   ओज प्रधानतया हृदय में रहता हैं और वहीं से सब अंगों में पहुंचकर उनकी रक्षा करता है। वीर्य की उपधातु को भी ओज कहा गया है। लेकिन इस
सम्बन्ध में मतभेद है और इसे सात धातुओं से पृथक् माना गया है। मेरा अपना मत तो ऐसा हैं, कि यह शेष सभी धातुओं से स्वतन्त्र एवं सर्वश्रेष्ठ तत्व है। इसको विशेषज्ञ विद्वानों ने वीर्य की शक्तिका रूप भी दिया है।

   तथापि, ओज समस्त शरीर में निवास करता है।
वैद्यक शास्त्र में इसे चिकना, शीतल, स्थिर तथा उज्वल माना गया है। समस्त शरीर में तेज और कान्ति यही फैलाता है और वीर्यपुष्टि का कारण भी यही है।

   ओज का परिमाण वीर्य पर निर्भर करता है। यदि
वीर्य की अधिकता रही तो वह भी अधिक है। अन्यथा वीर्य की न्यूनता के कारण यह भी अल्प मात्रा में रहेगा। समस्त शारीरिक एवं मानसिक शक्तियां इसी तत्व के आधीन मर्यादित रहती हैं । वीर्यसंचय ही इसका श्रोत है।

   जैसे सोने को सहस्र वार तपाने पर उसमें मल नहीं रह जाता, उसी प्रकार रस के कई बार पकते रहने पर जब वीर्य बन जाता है, तब उसमें फिर मल नहीं रहता। अर्थात् वीर्य के पश्चात् फिर कोई क्रिया शेष नहीं रहती।

   वीर्य ही हृदय को पुष्ट और कर्तव्यशील बनाता है। वीर्य से ही सर्वाङ्ग में जीवनी शक्ति संचालित होती रहती है। वीर्य से ही मस्तिष्क शान्त और विचारशक्ति सम्पन्न रहती है। वीर्य से ही दृष्टि तथा श्रवण शक्ति स्थिर रहती है। वीर्य से ही निर्भयता, स्वतन्त्रता, उत्साह, साहस तथा पराक्रम और गुण बढ़ते हैं। वीर्य से ही आलस्य, रोग, निर्बलता, कलुपता, दम्भ, अज्ञान तथा अविनय और दुर्गुण दूर किये जा सकते हैं। वीर्य के बिना सभी कार्य असिद्ध हो जाते हैं। वीर्य ही सन्तानोत्पत्ति का मूल है। वीर्य मनुष्य की सुन्दरता, सभ्यता, पवित्रता, धैर्य, पुण्य तथा सद्व्यवहार का कारण है।

   वीर्यरक्षा से ही हृदय पुष्ट तथा कार्यकारी बन सकता हैं। प्राणायाम से वीर्यरक्षा हो सकती हैं और हृदय स्वस्थ रह सकता है। व्यायाम से हृदय की शक्ति बढ़ती रहती है। उत्तम आहारसे  वीर्या बनता है और हृदय बलवान होता है। नीरोग रहने से हृदय कभी क्षीण नहीं होता।

   ब्रह्मचर्य के बल पर असाध्य से असाध्य कर्म अविलम्ब किये जा सकते हैं। इसीलिये कार्य की सिद्धि तक लोग ब्रह्मचर्या से रहते हैं। ब्रह्मचर्य की शक्ति से उन्नति, शान्ति और आत्मज्ञान प्राप्त
किया जा सकता है। यह बात हमें ऋषियों के उपदेश से ज्ञात होती है। जो पुरुष देश, धर्म और जाति की सेवा तथा रक्षा करना चाहे वह ब्रह्मचर्या से रहने का प्रयत्न करे। अन्तःकरण के पवित्र और शान्त रखने के लिये ब्रह्मचर्य ही 'परम औषधि है।सदैव प्रसन्न और सुखी रहने का उपाय अक्षुण्ण ब्रह्मचर्य है। जीवन की सफलता, सुन्दर स्वास्थ्य, हृष्टपुष्ट अङ्ग, कार्यकारिती और उद्यमशीलता के लिये ब्रह्मचर्य अमृत रूप है। सदुद्देश, सदाचार, स्वात्म-शासन स्वाधीन विचार और विश्वप्रेम ये सब गुण ब्रह्मचर्य के वशीभूत हैं। सुसन्तान, स्त्री-सुख, कुटुम्ब की अनुकूलता तथा सम्बन्धियों का सद्व्यवहार, सब की प्राप्ति ब्रह्मचर्य से होती है। ब्रह्मचर्य से ही अमृत का लाभ कर वासना रूपी
कुरोगों का नाश किया जा सकता है। ब्रह्मचर्य से ही दिव्य ज्ञान और सच्चे अनुभव मिलते हैं, जिनसे मनुष्य दुर्भावना तथा दुष्कर्मों से मुक्ति पा जाता है।

वीर्य ही स्वस्थ और सुंदर शरीर का आधार है वीर्य ही स्वस्थ और सुंदर शरीर का आधार है Reviewed by Tarun Baveja on October 31, 2020 Rating: 5

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