वीर्य रक्षा या ब्रह्मचर्य के 19 अद्भुत नियम


                 "वीर्य रक्षा के नियम"

              ब्राह्ममुहर्त में जागरण (१)

   रात के चौथे प्रहर का नाम ब्राह्ममुहूर्त है। चार-साढ़े चार बजे निद्रात्याग सभी प्रकार से लाभकर है, क्योंकि; इस समय त्रिविध (शीतल, मन्द, सुगन्ध ) वायु चलती है। प्रकृति सरस और सुन्दर रहती है तथा सर्वत्र स्फूर्ति और प्रसन्नता दृष्टिगोचर होती रहती है। सूर्योदय से पहले उठ जाना स्वास्थ्य रक्षा का सर्वप्रथम, सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोपयोगी नियम है। जो लोग इस समय सोते रहते हैं, वे प्राय: आलसी, अल्पायु एवं अशक रहते हैं।


                        उषःपान (२)

   आयुर्वेद शास्त्र विशारदों ने उषःपान के बहुत लाभ बतलाये हैं। इस समय का जल पीना बड़ा लाभदायक होता है। इस समय जल पीने से वीर्य सम्बन्धी रोग दूर होते हैं, काम-विकार शान्त होता है, मेधा और शक्ति की वृद्धि होती है तथा कोष्ठबद्धता, अजीर्ण, स्वप्नदोष आदि रोग दूर होते हैं। उषःपान का समय सूर्योदय से पहले (ब्राह्ममुहूर्त) माना गया है।

                    मल-मूत्र त्याग (३)

   सूर्योदय से पहले उषः पान कर मल त्याग करना
चाहिये। आलस्यवश जो लोग इस आवश्यकता को रोकते है, वे अपने स्वास्थ्य को खो बैठते हैं। उनके मलाशय और मूत्राशय में रोंग उत्पन्न हो जाते हैं। मल के बिगड़ने से ही प्राय: अनेक रोगों की उत्पत्ति होती है। नियमित रूपेण शौच कर्म करने से समस्त दिन स्फूर्ति, प्रसन्नता, क्रियाशीलता, वित्त शुद्धि, सुबुद्धि आदि की वृद्धि होती है तथा प्रमाद, अग्निमान्द्य, पीड़ा तथा ज्वर आदि नहीं सताते।

                      वायु सेवन (४)

   प्रात:काल शुद्ध वायु सेवन स्वस्थ रहने के लिये परमावश्यक है। प्रातःकाल की त्रिविध वायु स्वास्थ्य के लिये परमोपयोगी है। प्रातःकाल वायु सेवन करने से देह की धातु और उपधातु शुद्ध और पुष्ट होती है। मनोद्वेग, आलस्य, दुर्बलता आदि का नाश होता है। बुद्धि और बल की वृद्धि होती है तथा नेत्र और श्रवण की शक्ति बढ़ती है।

                    नित्यस्नान (५)

   सदैव स्नान करने वाले मनुष्य को रूप, तेज, बल, पवित्रता, आयुष्य, आरोग्य, अलोलुपता, मेधा आदि गुण प्राप्त होते हैं तथा बुरे स्वप्न नहीं दिखलायी पड़ते। वीर्य रक्षा के लिये अन्तःशुद्धि के साथ-साथ बाह्यशुद्धि भी आवश्यक है।

   प्रात:काल का स्नान बहुत ही उपयोगी होता है।
सायंकाल को भी स्नान किया जा सकता है। ग्रीष्म ऋतु में दो बार स्नान करना आवश्यक है। प्रत्येक स्त्री पुरूष को सदैव कम से कम एक बार तो अवश्य ही स्नान कर लेना चाहिये। स्नान के समय सारे शरीर को भली-भांति मल-मल कर धोना चाहिये। स्नान के लिये स्वच्छ और ताजा जल बहुत ही उपयोगी माना गया है। शरद ऋतु में अधिक शीत पड़ने पर गर्म जल से भी स्नान करना हानिकारक नहीं है। पर सिर को पहले ठण्ढे जल से ही धो लेना चाहिये। कूप जल सभी ऋतुओं में नहाने में लाभदायक होता है। थोड़े जल से नहाने में शरीर के छोटे-छोटे छिद्रों का मल दूर नहीं होता, और भीतर का दोष बाहर नहीं निकलने पाता। इसलिये यदि नदी पास हो तो उसी के जल में नियमित रूप से स्नान करना चाहिये। नत्य स्नान से वीर्य तथा शरीर के अन्य धातुओं को शान्ति
मिलती है।

                  सात्विक भोजन (६)

   जीवधारियों के लिये आहार बहुत आवश्यक पदार्थ होता है, पर अधिक होने से यह हानि पहुंचाता है। स्वल्पाहार करने वाले सदा सुखी रहते हैं। विशेष आहार करने वालों को प्रायः स्वप्नदोष से पीड़ित पाया गया है। कुछ लोगों की धारणा-सी हो गयी है, कि जितना खाया जांए, उतना ही अच्छा है। बड़े-बड़े वैद्यों का कहना है कि थोड़ा ही आहार करना स्वास्थ्य के लिये उपयोगी होता है। प्रत्येक ग्रास को दांतों से खूब मसल कर खाना चाहिये। आहार उतना ही करना चाहिये, जितना कि सुगमता से पच सके। विशेष आहार से अजीर्ण, ज्वर, संग्रहणी, कोष्ठबद्धता और धातु-दौर्बल्य आदि अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। भोजन कर लेने पर पानी और हवा के लिये पेट में काफी स्थान छोड़ देना चाहिये। तभी शरीर स्वस्थ और नीरोग रहता हैं। मन में बल और स्फूर्ति का वास रहता हैं। आलस्य निद्रा, अनुत्साह का नाश होता है। इससे वीर्य रक्षा में भी बहुत सहायता मिलती है।

   जो आहार, आयुष्य, ओज, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाला हो और जो सरस, चिकना,गुरु तथा रुचिवर्द्धक हो, वह सात्विक लोगों को प्रिय होता है।

   ब्रह्मचर्य पालन करने वालों को आहार पर बहुत ध्यान देना चाहिये। तामस आहार से कभी वीर्य रक्षा नहीं हो सकती। सात्विक आहार करते रहने से मानसिक वृत्ति भी सात्विक बन जाती है।

   सात्विक आहार से शरीर के सब धातुओं को लाभ पहुंचता है, बुद्धि और शक्ति बढ़ती है, काम, क्रोध, मद, लोभ, और मोह का नाश होता है तथा स्वास्थ्य और जीवनी शक्ति की वृद्धि होती हैं।

   वैद्यक शास्त्र में फलाहार के अपरिमित लाभों का वर्णन है। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते होंगे कि हमारे ऋषि मुनि फलाहारी होते थे। बहुत से
लोग ऐसे भी हुए हैं, कि जिन्होंने फल या मूल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं खाया है। दुर्वासा ऋषि
दूब ही खाकर बहुत दिनों तक जीवित रहे।

   फलों में प्राकृतिकता विशेष है। बहुत से वैद्य लोग बड़े-बड़े रोगियों को फल खाने की सलाह देते हैं। एकादशी जैसे कई उपवास व्रतों में भी लोग फल खाकर रह जाते हैं। भोजन कर लेने के पश्चात् फल खाना बहुत आवश्यक है। जो लोग काम विकारों से विशेष पीड़ित हो, वे कुछ दिनों तक फल खाकर ही रहें। जो फल जिस ऋतु में होता है, वह उस ऋतु में अधिक लाभकारी होता है। वीर्य रक्षा के लिये भी फलों का खाना बहुत लाभदायक
है। फलाहार से स्वास्थ्य, दीर्घायु, बल और बुद्धि बढ़ती है। कोष्ठबद्धता, निर्बलता, मल विकार, ज्वर तथा अन्य रोगों से रक्षा होती है। मन शान्त होकर सत्कर्मों में लगता है, वीर्य पुष्ट होता है, काम शक्ति की प्रेरणा दब जाती है और इन्द्रियों पर विजय मिलती है।

   इस संसार में यदि कोई पदार्थ अमृत कहलाने योग्य है, तो वह दूध ही है। प्रायः सभी वैद्यक ग्रन्थों के रचयिताओं ने इसकी प्रशंसाक्षकी है। पाश्चात्य  देश के कई डॉक्टर लोग केवल दूध से ही कई रोगों को दूर करते हैं। वास्तव में दूध से बढ़कर कोई खाने पीने योग्य पदार्थ है, ही नहीं। यही कारण है,
कि इस देश के ऋषि-महर्षि तक अपने पास गौ रखते थे। यह बड़ा ही सात्विक आहार है। केवल दूध पीकर भी कई दिनों तक रहा जा सकता है। जो लोग यह ख्याल करते हों, कि दूध पीने से वीर्य रक्षा नहीं हो सकती, वे भूल करते हैं। थोड़ा-सा धारोष्ण दूध पीना बड़ा ही हितकर होता है। इस दूध से काम-विकार उत्पन्न नहीं होता। ताजा निकला हुआ दूध बहुत गुणकारी होता है।

   तुरंत के दुहे हुए दूध का नाम ही पीयूष है। इस विषय में गौ का दूध ही मान्य है। भैंस आदि के दूध में वह बात नहीं है। भैस का दूध तमोगुण बढ़ाता है। वह विषय की उत्तेजना भी प्रकट करता है।

   गौ का धारोष्ण दूध थोड़ा-सा प्रातःकाल पीने से
मन को शान्ति मिलती है। पवित्र बुद्धि, सत्साहस, पढ़ने-पढ़ाने में उत्साह, धार्मिक विचार तथा आनन्द उत्पन्न होता है एवं कई प्रकार के धातु सम्बन्धी रोग नष्ट हो जाते हैं। क्षीणता ह्रास तथा अन्य दोषों को नष्ट कर हृदय, मस्तिष्क तथा सर्वाङ्ग पुष्ट तथा तेजस्वो बनाता है और व्यर्थ की उत्तेजना को शान्त करता है।

                        सत्संग (७)

   सत्संग से बुद्धि विमल होती है। वाणी में सत्य का संचार होता है, पाप कोसों दूर भागता है, चित्त में प्रसन्नता आती है तथा मनुष्य यशस्वी बनता है। आत्मोन्नति और आत्मसुधार सज्जनों, साधुपुरुषों तथा विद्वानों के सत्संगसे प्राप्त होता है।

   सत्संग भी दो प्रकारका होता है। घर बैठे सन्तों,
महात्माओं और विद्वानों तथा श्रेष्ठ पुरुषों के विचार सद्ग्रन्थों द्वारा मिलते हैं। जिस प्रकार प्रत्येक घरमें प्रकाश और वायु का रहना आवश्यक है, उसी प्रकार सद्ग्रन्थ भी। अमूल्य से अमूल्य ज्ञान सत्संग द्वारा प्राप्त होते हैं। सत्संग करने और सद्ग्रन्थों के पढ़ने से मनुष्य पापात्मा से पुण्यात्मा, व्यभिचारी से सदाचारी तथा नीचता से उच्चता को प्राप्त हो सकता है।

                    कार्यशीलता (८)

   सदैव किसी न किसी काम में लगे रहना चाहिये। दिन-रात परिश्रम करने से विषय-वासना नहीं सताती। बेकार लोग ही विलासिता से आनन्द पाते हैं। जो लोग अपने वीर्य की रक्षा करना चाहते हों, उन्हें कभी बेकार नहीं रहना चाहिये, क्योंकि; आलस्य सभी प्रकार के विकारों का श्रोत है। परिश्रमरत रहने से कुविचार उत्पन्न नहीं होते और भोग विलास में मन नहीं भटकता।

                समयका सदुपयोग (९)

   समय का सदुपयोग ही सुख सम्पत्ति का महान साधन है। प्रतिदिन आयु घटती है, इसीलिये संसार में जो कुछ करना है, वह कर लो। मृत्यु का कोई समय निश्चित नहीं। परिस्थितियों का कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं। फिर हमारे पास इतना समय कहां कि हम बेकार रहें। यदि वास्तव में देखा जांए, तो एक क्षण का एक अंश भी यदि व्यर्थ गया तो हमारी हानि हुई यह निश्चित है। चाहे व्यवसाय ले लीजिये चाहे कोई व्यक्तिगत कार्य। हो सकता है,
किसी एक क्षण में आपके मस्तिष्क में ऐसा विचार पैदा हो जांए, जिससे आप व्यवसाय में लाखों रुपये पैदा कर लें अथवा साधारण अवस्था में महान पुरुष बन जायें या कोई बुरा कर्म करने से बच जायें। मन तो कभी बेकार नहीं बैठता फिर किस समय आप क्या खो बैठे उसका क्या ठिकाना। इसलिये यह आवश्यक है, कि समय को हम सभी मूल्यवान वस्तुओं से अधिक मूल्यवान समझे और उसका सदुपयोग ही करें। यदि देखा जाए, तो समय का सदुपयोग कर ही लोग महान बनते हैं, उनका लक्ष्य चाहे विद्या, लक्ष्मी, यश अथवा कोई आधिभौतिक या आध्यात्मिक उन्नति रही हो।

   समय धड़ा निर्मम होता है, वह किसी पर दया नहीं दिखलाता। आप हजार उसे वापस बुलायें वह कभी नहीं आयेगा। अतः मनुष्य का यह कर्त्तव्य है, कि वह अपने समय के छोटे से छोटे अंश का भी सदुपयोग करे और व्यर्थ न जाने दे। मनुष्य जीवन पाकर यदि हम उसके सभी कर्तव्यों को पूरा न कर सके, तो इस जीवन और हरे-भरे संसार से लाभ ही क्या रहा।

                  नियमवद्धता (१०)

   दैनिक जीवन के सभी कर्म नियमबद्ध रहने चाहिये। जीवन को सुखी और शान्त, साथ ही प्रत्येक कार्य में सफल होने के लिये नियमितता परमावश्यक है। स्वस्थ, उद्योगी, साहसी, बुद्धिमान तथा गृढ़प्रतिज्ञ, नियमबद्धता से ही बन सकते हैं। सभी प्रकार की उन्नति, इच्छित कार्यों की पूर्ति, विद्या और धन का संग्रह, कर्तव्यपरायणता आदि
नियमित जीवन के चिन्ह स्वरूप हैं।

   अनियमित व्यक्ति किसी भी कार्य में सफल नहीं हो सकता। किसी भी कार्य के लिये वह दृढ़ संकल्प नहीं हो सकता। इसलिये प्रत्येक कार्य और समय का छोटे से छोटा अंश नियमित होना चाहिये।

            इच्छा शक्ति और संकल्प (११)

   मनुष्य में इच्छा शक्ति एक महान दैविक विभूति है। यह शक्ति जिस लक्ष्य की ओर प्रेरित की जाये, उसे सफल बनाकर छोड़ेगी। अपनी इच्छा को किसी सत्कार्य के सम्पादन में दृढ़ संकल्प लेकर लगा देना चाहिये। इच्छा शक्ति के प्रयोग और दृढ़ संकल्प से मन पर अधिकार और दृढ़ता प्राप्त होती है। बाधाओं से लड़ने की शक्ति आती है, कर्तव्य से विमुख नहीं होने देती, प्रसन्नता और वीरता देती है तथा स्वाधीन विवार उत्पन्न होते हैं। मनुष्य का
क्रमिक और नियमित विकास इसी प्रकार हो सकता है। इसका अभ्यास सदैव करना चाहिये।

   अभ्यास से सभी साधना सफल होगी, सद्गुणों की वृद्धि होगी। स्वावलम्बन आयेगा और मन विकार रहित बनेगा। नियमित चर्या, समय का सदुपयोग, इच्छा शक्ति, संकल्प और सदभ्यास सफलताकी कुंञ्जी है।

                  सूर्यताप सेवन (१२)

   वैज्ञानिक युग के साथ-साथ सूर्यप्रकाश एवं स्वास्थ्य के सम्बन्ध कोअधिकाधिक समझा जाने लगा है और किन्हीं रोगों से विमुक्त करने के लिये सूर्यरश्मियों का प्रयोग होने लगा है। विद्वानों का विश्वास है, कि सूर्यकिरण में पायी जाने वाली अल्ट्रावायलेट किरणे ही मनुष्य के लिये विशेषरूप से उपयोगी हैं।

   १०-१५ मिनट रोज नंगे बदन धूप ली जानी चाहिये। खुले बदन धूप में लेटना चाहिये। धूप लेनेके बाद यदि स्नान न करना हो, तो गीले और खुरदरे कपड़े से शरीर को पोछना चाहिये। विटामिन डी का काम केवल धूप से ही चल सकता है। गरीबों और ग्रामीणों के लिये तो धूप ही दूध-घी है।

               सामयिक विश्राम (१३)

   दिन-भर की शारीरिक एवं मानसिक थकावट को दूर करने के लिये रात्रि में सामयिक और नियमित व्यायाम आवश्यक है। ठीक समय पर सोने से धातु उचित अवस्था में रहती है और प्रातः उठते ही शरीर में स्फूर्ति-सी भर जाती है। पुष्टि, कान्ति, बल, उत्साह और अग्नि की वृद्धि होती है। ठीक समय पर न सोने या कम सोने से अजीर्ण,
उदासीनता, आलस्य, स्वप्नदोप, वायुविकार, उन्माद आदि रोग हो जाते हैं। वीर्यरक्षा और सुन्दर स्वास्थ्य के लिये यह आवश्यक है, कि नियमानुसार निद्रा ली जाये और ६ से८ घण्टे तक सोना चाहिये। उचित निद्रा का अभाव शरीर के सभी भागों पर पूर्ण रूप से पड़ता है तथा मानसिक विश्राम एवं शान्ति मिलती हैं। आयुर्बल बढ़ता है तथा नेत्र और हृदय को विश्राम व शक्ति मिलती है।

                 दैनिक व्यायाम (१४)

   वायु: जल, अन्न आदि की भांति मनुष्य के लिये
व्यायाम भी आवश्यक है। स्वस्थ रहने के लिये यह अनिवार्य है, कि व्यायाम किया जाये। इस बात में दो मत नहीं हैं कि व्यायाम किये बिना कोई भी मनुष्य नीरोग और स्वस्थ नहीं रह सकता।

   सुश्रुत ने बतलाया है, कि व्यायाम करने से शरीर की कान्ति बढ़ती है, सब अंगों का सुन्दर गठन होता है तथा अग्निदीपता, स्थिरता, स्फूर्ति, आरोग्यता, सहनशक्ति तथा बल की प्राप्ति होती है।

   जिनका वीर्य कमजोर हो, उन्हें भी पहले हल्के व्यायाम या आसन करना चाहिये। फिर शक्ति आ जाने पर कड़े व्यायाम करना चाहिये। पुष्ट से पुष्ट भोजन करने वाले के लिये भी व्यायाम उतना हो आवश्यक है। प्रातःकाल खुले मैदान में टहलना सर्वोत्तम व्यायाम है।

   प्रातःकाल या शाम को अथवा दोनों बार व्यायाम
किया जा सकता है। व्यायाम करने के पहले भोजन नहीं करना चाहिये और करने के बाद ही कोई भी चीज खाना या पीना न चाहिये। यदि कुछ पेय पदार्थ, दूध या फलों का रस, लेना हो तो थोड़ा ठहर कर लेना चाहिये। व्यायाम के बाद ही स्नान भी न करना चाहिये। जो व्यायाम नहीं करता वह न तो भोजन पचा सकता है और न वीर्यकी रक्षा ही करने में सफल होगा। क्योंकि व्यायाम से  इन्द्रिय-दमन की शक्ति प्राप्त होती है। अच्छे शरीर में अच्छा मन भी होता है।

                       सादगी (१५)

   आजकल नवयुवकों एवं नवयुवतियों में शृङ्गारका प्रकोप बहुत भीषण हो गया है। सभी सुन्दर बनने की चेष्टा करते है। आकर्षक बनने की प्रबल चेष्टा उनकी रहती हैं और यही कारण है, कि समाज में कभी-कभी हलचल-सी मच जाती है। आकर्षक बनने की भावना दूषित मनोवृत्ति उत्पन्न करती है। आडम्बर व्यभिचार की ओर ले जाता है।

  क्षयदि ब्रह्मचर्य का पालन किया जाये और शरीर में उत्तम वीर्य संचित हो, तो फिर आकर्षक बनने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। जो कान्ति वीर्य के संयम से प्राप्त होगी वह अतुलनीय है। अंग-प्रत्यंग सजाना, विविध प्रकार और रंगके वस्त्र धारण करना, केश-विन्यास तथा अन्य प्रकार के शृङ्गार अवांछनीय हैं। चरित्र-निर्मलता ऐसा शृंगार है, जो विश्वप्रिय बना सकता है और जो प्रेम गुण के लिये उत्पन्न होगा वही चिरस्थायी और सच्चा होगा।सुन्दरता प्रकृति की देन हैं। अपने हाथ सुन्दर नहीं
बन सकते, आकर्षण नहीं पैदा कर सकते, हा विकार और अपव्यय अवश्य ही हाथ लगेगा। सादी रहन-सहन और उच्च भावना का आदर्श आज पाश्चात्य देशों में भी फैल रहा है और मान्य हो गया है। (Plain living and high thinking) सादी रहन सहन और उच्च भावनाओं का प्रचार पाश्चात्य देशों में भी जोरदार हो रहा है।

                      उपवास (१६)

   सभी प्रकार के विकार, वे चाहे शारीरिक हों अथवा मानसिक, उपवास से दूर किये जा सकते हैं। विशेषतया मनोविकारों को दबाने में उपवास का जो महत्व है, वह अतुलनीय है। इन्द्रियों पर अधिकार करना है, तो जुबान और पेट पर विजय प्राप्त कर लो। उपवास से जो चित्त शुद्धि, पेट के विकार का नाश तथा शान्ति मिलती है, वह किसी औषधोपचार से सम्भव नहीं। पेट के विकारों को करने के लिये तथा आहार रस और रक्त बनाने के
लिये यदा-कदा उपवास करना चाहिये। चर्म रोग दूर करने के लिये भी उपवास महत्वपूर्ण है।

   मानसिक शुद्धि के लिये तो उपवास आवश्यक है। कैसा भी विकार मन में उत्पन्न हो उपवास करने से दब जायेगा, इसमें सन्देह की गुजायश नहीं। उपवास करते ही मन में गम्भीरता आयेगी। जब पेट को भोजन को पकाने का कार्य नहीं करना रहता तो वह अङ्गों के अन्य विकारों को दूर करने में लग जाता है। भूख न रहते भी खाना भयंकर है। अन्तड़ियां कभी इतना भार सहन नहीं करेंगी और इसका परिणाम शारीरिक तथा मानसिक विकार होगा। अतएव उपवास सर्वप्रकार से लाभकर है। पेटमें  शिकायत आयी और मन में चंचलता तथा वीर्य में कमजोरी आयेगी। इन दोनों के लिये उपवास सर्वोत्तम है। वीर्य रक्षा के लिये तो यदा-कदा उपवास अनिवार्य है।

                   व्यसन त्याग (१७)

   विभिन्न दुर्व्यसनों से बचकर रहने में ही कुशलता है। बीड़ी, सिगरेट, गांजा, भांग, चरस, शराब, पान आदि के व्यसन से सदैव दूर रहना चाहिये। इन व्यसनों में से किसी एक के आ जाने से भी स्वास्थ्य को भारी खतरा रहता है। धूम्रपान से स्नायु की बीमारी हो जाती और ब्रह्माचर्याश्रम या छात्रावस्था में इनका बहिष्कार तो अनिवार्य है। आज भी नवयुवकों में जिस प्रकार उद्देश्य भ्रष्टता पायी जाती
है, उसका कारण यही है कि उनमें दुर्व्यसनों ने घर बना रखा है और मनोविकार एवं रोगों से उनका पीछा-छुटता ही नहीं। फिर इस प्रकार के व्यसन की कोई आवश्यकता लोगों में नहीं होती।

                     उच्च भाव (१८)

   सर्वदा और सभी अवस्थाओं में विमल और उच्च
भाव ही रखना चाहिये, कोई भी उत्तेजक अवसर आये। मन को साम्यावस्था में तभी रखा जा सकता है, जब भाव उच्च हों। स्त्रियों के संसर्ग में आने पर यह ध्यान रहना चाहिये, कि आपकी माता, बहन, बेटी सभी स्त्री जाति की है और उन्हें मातृवत् देखना परम धर्म है। अपनी धर्मपत्नी के प्रति भी विमल भावना ही रखनी चाहिये। हमेशा हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि यह मानवतन धारण करने से इस संसार में और भी अनेक कार्य हैं, जिनकी पूर्ति ही जीवन का सुख और सच्चा पुरुषार्थ है। केवल अच्छा खाना और पहनना नहीं। वह जानवरों के लिये भी सम्भव है। परोपकार, सेवाभाव, गरीब अनाथ अवलाओं, देश जातिकी रक्षा और सेवा अपने जीवन का लक्ष्य होना चाहिये। यदि संसार में एक भी व्यक्ति महापुरुष हो सका है, तो आप भी होंगे। यदि राजनीतिज्ञ या देशभक्त हुए हैं, तो आप भी हो सकते हैं। सभी कुछ पुरुषार्थी के लिये सम्भव हैं। यह भावना लेकर जीवन को उचित लक्ष्य पर जाना ही उच्च और निर्मल भाव हैं। सांसारिक क्षणिक सुखों से जीवनकी सफलता प्राप्य नहीं है।

                    ईश्वर चिन्तन (१९)

   विकारों को दबाने और वीर्यरक्षा के लिये ईश्वर
चिन्तन ही एकमात्र साधन है। पहले भी बताया जा
चुका है, कि दृष्टि दोष और उत्तेजना रोकने के लिये उच्च भाव और विमलता लानी होगी, जो कि तत्काल ईश्वर चिन्तन से मिल सकता है। किसी अवसर या दृश्य से जब विकार आये, तो तुरन्त ईश्वर का नाम जप या चिन्तन लाभकर है। नास्तिक भी हो तो ऐसे अवसर पर ईश्वर चिन्तन के सिवा और कोई चारा नहीं है। अतएव नियमित रूप से सदैव तथा प्रत्येक अवसर पर परमपिता परमात्मा का ध्यान आवश्यक है। उसके ध्यान से विमलता
मिलेगी और चिन्तन से मानसिक विकार दूर हो शक्ति, विश्वास, संकल्प आदि मिलेगा।

वीर्य रक्षा या ब्रह्मचर्य के 19 अद्भुत नियम वीर्य रक्षा या ब्रह्मचर्य के 19 अद्भुत नियम Reviewed by Tarun Baveja on October 31, 2020 Rating: 5

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