जीभ की गुलामी ब्रह्मचर्य में सबसे बड़ी बाधक


            "आत्म संयम और इन्द्रियां"

   मनुष्य को ५ शानेन्द्रियां और ५ कर्मेन्द्रियां प्राप्त हैं। जिनके द्वारा वह मनुष्य जीवन व्यतीत करता है। इन दो प्रकार की १० इन्द्रियों में जिहा की अपनी विशेषता है। वह ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों है। वाणी की शक्ति भी इसी में है और स्वादेन्द्रिय भी यही है। आत्म संयम और वीर्य की रक्षा के लिये जिहा के स्वादेन्द्रिय और वाणी दोनों कार्य विशेष रूप से विचारणीय हैं। स्वादेन्द्रिय का कार्य उसमें भी विशेषता लिये है। इसीलिये आत्म संयम के लिये सबसे पहले स्वादेन्द्रिय पर नियन्त्रण पाना अनिवार्य है। यदि स्वादेन्द्रिय पर नियन्त्रण न रहा, तो फिर आत्म संयम का ढोंग व्यर्थ है। जो स्वादेन्द्रिय की लगाम ढीली कर अन्य इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना चाहेगा, वह कभी सफल न होगा। यदि स्वादेन्द्रिय वश में आ जाये, तो ब्रह्मचर्य धारण करना बिल्कुल सरल हो जाता है ।


   जीवन धारण करने और पुरुषार्थमय जीवन व्यतीत करने के लिये वीर्य की रक्षा करनी अनिवार्य है। और इस व्रत का पालन करने के लिये मनुष्य को सर्वप्रथम अल्पाहारी होने की आवश्यकता है। ठूस-ठूसकर पेट भरने वाला कभी
सुखी नहीं रह सकता। आरोग्यता और वीर्य की पुष्टि के लिये अल्पाहारी होना चाहिये। अधिक भोजन करने वाले का वीर्य बराबर पतला होता जाएगा और वह अंतड़ियों के रोग, स्वप्नदोष आदि का शिकार होता जायेगा। नियमित, सात्विक और अल्पाहार हो, मनुष्य को लाभकर है। इस बात के अकाट्य प्रमाण हैं, कि अधिक खाने वाला व्यक्ति
कभी भी दीर्घायु नहीं पा सकता और अकाल मृत्यु विकराल मुंह खोले सदैव खड़ी रहेगी। बहुधा तो अधिक खाने से ही हैजा जैसी बीमारी हो जाती है और इस भयङ्कर रोग से कितने छुटकारा पाते हैं, यह मालूम ही है। आहार जीवन धारण करने के लिये है, न कि जीवन आहार के लिये है। मनुष्य जीवन पाकर विभिन्न कर्तव्यों और दायित्व को पूरा करना पड़ता है। भोजन जीवन को बनाये रखने के लिये है।

   अपने यहां कहावत है, कि कम खाना और गर्म खाना हर हालत में अच्छा है। मनुष्य और पशु में अन्तर क्रियाशील मस्तिष्क से प्रकट होता है। खान-पान का भेद तो कोई भेद नहीं है। यदि पशु को भी अधिक घास दिया जाये, तो वह नहीं खायेगा। लेकिन मनुष्य समझता है, कि संसार में इतना खाद्य पदार्थ है, तो फिर खायेगा कौन। वह
यह बात भूल जाता है, कि अति भोजन हानिकर तो है, ही, साथ ही इससे मनुष्य जीवन का उद्देश्य भी भ्रष्ट हो जाता है। उत्तम से उत्तम कार्य मनुष्य द्वारा सम्पादित हो सकता है। किन्तु यदि आहार-विहार ही जीवन का ध्येय हो जांए, तो जीवन के शेष महत्वपूर्ण कार्य यों ही पड़े रह जाते हैं और मनुष्य जीवन पशुओं से भी गया-गुजरा हो जाता है। पशु अपने प्रकृतिजन्य गुणों के अनुसार कार्य करते हैं और हम प्रकृति के दिये हुए पदार्थों का भोग अप्राकृतिक रूप से करते हैं। यही कारण है, कि मनुष्य की मनोवृत्ति में इतना परिवर्तन हो गया है, और सर्वत्र खाद्य पदार्थों के लिये भीषण अशान्ति फैल रही है। अर्थ प्रधान युग में अर्थाभाव
ही एक विकट समस्या है। अति भोजन करने से खाद्य पदार्थ का अभाव हो जाएगा, ऐसी कोई बात नहीं है। लेकिन अति भोजन मनुष्य को भीषण शारीरिक और मानसिक हानि पहुंचाता है।

   यदि स्वादेन्द्रिय पर वश न रहा, तो पेट कमी ठीक नहीं रहेगा और उससे सभी प्रकार के विकार उत्पन्न होंगे। अनेक प्रकारके रोग-दोष का कारण पेट की गड़बड़ी है। यदि उसे ठीक रखा जाये, उससे उसकी शक्ति के अनुसार काम लिया और कभी-कभी आराम भी दिया जांए, तो पहले
तो कोई रोग होगा नहीं और यदि हो भी जाये तो कभी संक्रामक नहीं होने पायेगा। पाश्चात्य देशों में अति भोजन करने का बड़ा रिवाज था, और अभी भी है। लेकिन विद्वान विशेषज्ञों ने जब अनुसन्धान किया तो मालूम हुआ, कि ना-ना प्रकार के रोग, मस्तिष्क का विकृत होना आदि का कारण अति, अनियमत और सात्विक भोजन है। फलतः इसके विरुद्ध आन्दोलन चलाया जा रहा है और आज वहां असंख्य व्यक्ति ऐसे मिलेंगे, जो सात्विक जीवन व्यतीत करते हैं। फल और दूध के आहार का प्रचार पाश्चात्य देशों में विशेष रूप से हो रहा है और राजसिक और तामसिक भोजन की तीव्र निन्दा की जा रही है। एक बात विशेष रूप से विचारणीय है, कि फल और शाकाहार का प्रयोग उधर के विद्वान मनीपी और महान् पुरुष ही अधिकांश में करते देखे गये हैं, और तामसिक वातावरण में पलकर भी अनेक महान् पुरुषों ने तामसिक और राजसिक वृत्ति को त्यागकर सात्विक जीवन को अपनाया और वे ही उसके प्रचार के कारण और प्रमाण बन रहे हैं। इसी प्रकार उपवास का महत्व भी वे स्वीकार करते हैं। हमारे
यहां व्रतोपवास का जो महत्व बतलाया गया है और जो नियम बने हैं, उन पर हम नाक-भौं सिकोड़ते हैं। लेकिन पाश्चात्य डॉक्टरों की सम्मति लेने पर हम देखते हैं, कि आरोग्यता और वीर्य-रक्षा के लिये सात्विक भोजन को ही उन्होंने महत्व दिया है। इस प्रकार की व्यवस्था हमारे यहां हजारों वर्ष पहले से है। जो आरोग्य रहना चाहते हैं, उन्हें
ऐसा भोजन करना चाहिये, जो पचने योग्य हो, और जिनका परिणाम भी लाभकर हो। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा, कि वस्तुएं खाद्य हों, भोजन करने योग्य हों। भगवान कृष्ण ने गीता में बतलाया है, कि सात्विक जीवन या दूसरे शब्दों में मनुष्य जीवन व्यतीत करने के लिये यह आवश्यक है, कि राजसिक और तामसिक भोजन का त्याग
किया जाये और ऐसा आहार हो जिससे आयु, जीवन की पवित्रता, बल, आरोग्यता, तथा सुख प्राप्त हो और जो प्रेम को बढ़ाने वाला, सरस, पुष्टिकारक एवं रुचिकारक हो । यदि भोजन से शरीर और मनको लाभ नहीं पहुंचता और वह केवल स्वादेन्द्रिय को तृप्त करने और पेट भरने के
लिये किया जाता है, तो निश्चय ही उससे हानि होगीऔर रोग-दोष की वृद्धि होती जायेगी। अति और असात्विक भोजन करने को हमारे शास्त्रों ने पाप बतलाया है। पाप इसीलिये है, कि इससे मनुष्य अपना अहित तो करता ही है, वह दूसरे के लिये भी घातक रहता है और यह महापातक है।

   प्रकृति ऐसे अन्न, फल, शाक, दूध आदि वस्तुए हमें प्रदान करती है, जो हमारी मानसिक और शारीरिक उन्नति में सहायक हैं और हम उनके गुणों की हत्या कर इस प्रकार सेवन करते हैं कि धन भी
व्यय होता है और बदले में विकार मिलता है। दूसरे शब्दों में हम बीमारी मोल लेते हैं। मैदा, आचार, मुरब्बा, बहुत उबाली हुई तरकारियां, मिठाइयां, रबड़ी आदि से हमें लाभ नहीं। केवल स्वादेन्द्रिय को तृप्त करने के लिये हम उनका सेवन करते हैं। प्रकृति ने हमारे हितार्थ उनमें जो गुण दिये थे, उन्हें तो हमने उनका रूप बदलकर नष्ट कर दिया और तब उसका इस प्रकार सेवन किया जाता है, कि सिवाय हानि के और कोई परिणाम नहीं निकलता। ऐसी अवस्था में हमारा यह कर्तव्य है, कि हम खाद्य पदार्थ का सेवन इस दृष्टि से करें, कि उनके गुण और स्वभाव उनमें प्राकृतिक रूप में रहें, जिससे हमारा लाभ हो।

   भोजन का असर मन पर बहुत पड़ता है। कहावत भी है, जैसा अन्न वैसा मन। यही कारण है, कि राजसिक और तामसिक भोजन करने वाले क्रूर, कोधी, कामी और विवेकशून्य होते हैं। दूध, फल, तथा पूर्णान्ल खाने से मनुष्य की सात्विक वृत्ति जागती है और वह अपना और विश्व का कल्याण कर सकता है। इसके विपरीत भोजन का विपरीत परिणाम होता है। नियंत्रित जीवन ही जीवन है। अनियंत्रित जीवन से उच्छृङ्खलता और नीच वृत्ति मिलती है और किसी भी अवस्था में ऐसा मनुष्य सुखी नहीं रहेगा। वह समाज का सदैव अहित ही करता जाएगा

   भोजन करते समय प्रत्येक ग्रास को भली-भांति चबा लेना चाहिये। ताकि वह राल में मिल जाये। इससे पाचन क्रिया में बड़ी सहायता मिलेगी और भोजन के साथ पानी पीने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। भोजन के साथ अधिक या बाद में पानी पीना हानिकारक है।

   आत्मसंयम का मुख्य साधन यही है, कि स्वादेन्द्रिय पर नियन्त्रण हो। यदि यह कार्य सफल हुआ तो मनुष्य आरोग्य रहेगा और मानसिक उन्नति उत्तरोत्तर होती जाएगी। स्वादेन्द्रिय अपने वश के बाहर गयी और फिर सुख की आशा करना ही व्यर्थ है। प्राण रक्षा ही आहार का उद्देश्य है। इस उद्देश्य को भ्रष्ट करना दुःखों की जड़ है। अतएव स्वादेन्द्रिय को वश में रखकर केवल जीवित रहने के लिये अल्प, सात्विक और नियमित भोजन किया जाये।

   एक व्यक्ति जब आसानी से उत्तेजित हो जाता है, तो वह अपनी पाशविक इच्छाओं को पूरा करने के लिये नयी-नयी तरकीब ढूंढ़ता फिरता है और पतन की ओर गिरता चला जाता है। समाज का वायु मण्डल मन पर नियन्त्रण दूषित हो जाता है। लेकिन अगर ध्यानपूर्वक देखा जांए, तो मालूम होगा कि इस भ्रष्टाचार और घृणित मनोवृत्ति का केन्द्र हमारा मन है। दोष चीजों में नहीं बल्कि हमारी आंखों में हैं। हमारी भ्रष्टता का कारण हमारी भावनाएं हैं। इस प्रकार विचार करने से हमें
तुरन्त मालूम होगा कि युवकों में जिस प्रकार व्यभिचार और कमजोरी ने अपना घर कर लिया है तथा व्यक्ति, परिवार और समाज जिस प्रकार दुर्दशाग्रस्त है, उसका कारण नैतिक संयम का अभाव है। वास्तवमें दोष साधनोंका नहीं, वायु-मण्डल का नहीं बल्कि मनोवृत्तिका है। आदमी अपने विचारों में आनन्द से गन्दगी पैदा होने देता है और बड़ी तेजी से वह उसी कुत्सित
जीवन की ओर बहता जाता है।

   किसी गन्दे गाने, कविता अथवा कहानी को पढ़कर, किसी उत्तेजक चित्र या अवसर को देखकर यदि हम अपनी इन्द्रियों की लगाम ढीली कर देते हैं, तो मनुष्यत्व कहां रहा। वह मनुष्य कैसा जब उत्तेजक चीजें देख सुनकर उसमें उत्तेजना आ जाये। किसी बदबूदार चीज से जब बदबू आती है, तो लोग नाक दवा लेते हैं, उसे उठाकर सूंघने नहीं लगते। इसी प्रकार यदि किसी गन्दी चींज से साक्षात हो जांए, तो अपनी आंख और कान बन्द कर लेना चाहिये और तुरन्त काबू में कर लेना चाहिये कि उसमें गन्दगी न भर जाये। मनुष्य का ज्ञान और दिमाग इसलिये है, कि वह उनसे काम ले, न कि उनमें गन्दगो पैदा होने दे।

   अन्य जीवों की अपेक्षा मनुष्य इसलिये श्रेष्ठ है, कि उसमें ज्ञान है। अपनी बुद्धि द्वारा वह भला बुरा सोच सकता है। अतः जीवन की सफलता उसके विचारों और भावों में है। ज्ञान का तात्पर्य यह है, कि उसमें उच्च भाव हों और जहां उच्च भाव होगा वहां उत्तेजना बढ़ाने वाली चीजों को स्थान ही नहीं है। किसी अश्लील साहित्य पढ़ने या किसी गन्दे या उत्तेजक अवसर से यदि विचार भी उसी तरह हो जाते हैं, तो यह कमजोरी है। क्या हम इतने कमजोर हो जायें कि कोई भी आकर हमें ठोकर
मारकर नीचे नालियों में ढकेल दे। और ढकेलने वाली चीज ऐसी हो, जिसमें न जान है और न कोई शकि। उत्तेजना को हम अपनी इच्छा से स्थान देते हैं, वही धीरे-धीरे हमारे मन में अपना घर बना लेती है और फिर उसका अधिकार सभी जगह हो जाता है। यदि आपको सहन नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति आप पर अत्याचार करे या मन-माना काम कराये, तो फिर आप ऐसी चीजों से मन को क्यों अपवित्र होने दें। लोग गन्दे-गन्दें गानों की लाइनें
गाया करते हैं और फिर उसी प्रकार के जीवन पर विचार करते हैं। फलतः उनमें बुराइयां पैदा होती जाती हैं।

   जिस किसी चीज से आपमें उत्तेजना या गन्दे विचार आने की शङ्का है। आप ठीक उसके खिलाफ चित्तवृत्ति बनाइये। तत्काल ही आप उच्च भाव ग्रहण कर लीजिये। ऐसे अवसर पर ईश्वर का ध्यान बहुत काम आनेवाला होता है। आदमियत तो यह है, कि जिस प्रकार आप बदबूदार सड़े जानवर की लाश देखकर दूर-दूर भाग जाते हैं और थोड़ी देर में उसे बिल्कुल भूल जाते हैं, उसी प्रकार आपको ऐसी चीजों की ओर भी उदासीनता दिखलानी चाहिये। यदि उस बदबूदार चीज का ध्यान रखने लगेंगे, तो निश्चय ही आप में बदबू आ
जायेगी। इसी प्रकार उत्तेजक विचारों का भी हाल है। यदि आप उन्हें अपने स्थान देंगे तो वासना उत्पन्न होगी और उसकी पूर्ति न होने पर आप में पाशविकता उत्पन्न होगी और ज्ञान लोप हो जायेगा। फिर अपनी इच्छा की पूर्ति के लिये उपाय ढूंढा जायेगा और अपना सत्यानाश कर समाज को भी पतित बनायेंगे। यह आंख का दोष है, चीज का नहीं।

   इसीलिये हमें बतलाया गया है, कि 'मातृवत् परदारेषु' यानी पर स्त्री माता समान है। वास्तव में स्त्री तो मातृजाति है और प्रत्येक स्त्री को देखकर उत्तेजित हो जाना मातृजाति-माता का अपमान करना है। पशुओं में भले ही ऐसी बात देखी जाये,
लेकिन मनुष्यता-इन्सानियत, इसे नहीं सह सकती। किसी सुन्दर स्त्री को देखकर यदि मन चलायमान हो गया तो वह सुन्दरता का दोष नहीं है। यह शिकायत कि आकर्षक वस्तुओं से विकार पैदा हो जाता है, निराधार है। सभी तो सृष्टि ईश्वर की है। सुन्दर चीज से आकर्षण होना स्वाभाविक है। लेकिन विकार पदा होना अपनी कमजोरी है, अपनी दृष्टि का दोष है। यह दृष्टि-दोष भीषण
काण्ड पैदा कर देता है। उसका सबसे पहला चिन्ह
यह होता है, कि आदमी में मनोबल नहीं है। खाने की चीज देखकर कुत्ता अपनी जान की पर्वाह न कर लपकता है। लेकिन मनुष्य ! उसके तो ज्ञान है। वह तो विवेकशील जीव है। कुत्ते को आकर्षण होना क्षम्य है, लेकिन मनुष्य में वह ऐसी कमजोरी है, जिसे लोग इस उदाहरण से पशुता कहते हैं।

   बुरी चीज की बुराई को जब हम ग्रहण करेंगे, तभी वह हमारे लिये बुरी साबित होगी। वह दोष हमारी दृष्टि का हमारी भावनाओं का होगा। दृष्टि दोष ही सभी चीजों में हमें दोष दिखलाता है, नहीं तो सुन्दर वस्तु भी मनुष्य में विकार क्यों पैदा करे । कुछ ऐसे जीवों में जिन्हें ज्ञान नहीं होता, ऐसा गुण देखा गया है, जिससे वे बुरी चीजों में भी जो गुणकारी अंश होगा तुरन्त उसका उपयोग कर लेते हैं। स्वार्थ के लिये मनुष्य भी, यदि नाली में जवाहिरात पड़ा रहे तो, ऐसी गन्दगी से अपना काम निकाल लेता है। ज्ञान इसलिये मिला है, कि जो गुण हो उसे आप ग्रहण कर और दुर्गुणों की ओर उदासीन रहें। यह सोचने का मौका तक न आये कि क्या गन्दगी है। गुणमात्र आपके लिये हितकारी है। अपनी दृष्टि को बचा रखें और भावना उच्च रखें।

   हो सकता है, कि कुछ लोग कहें कि दृष्टि-दोष दूर होता नहीं है और विकार रुकता नहीं है। लेकिन यह सोच लेना कि विकार दूर करना चाहिये उसे दूर करने की पहली सीढ़ी है। जैसे ही किसी आकर्षक वस्तु से आप में विकार उत्पन्न हो आप तुरन्त अपना ध्यान ईश्वर में लगा दीजिये। बजाये गन्दे-भद्दे गानों के किसी भजन की लाइन आप गुनगुनाइये। कितना आनन्द आयेगा। अपने मन से गन्दगी दूर करने के बाद आपमें विमलता आयेगी, जिसका आनन्द आपको विह्वल कर देगा। आप में इस मानसिक शक्ति के आ-जाने से वह बुद्धि प्राप्त होगी जो आपका प्रत्येक कार्य आसान बना देगी। फिर आप उसे साधकर दुनिया के मुश्किल से मुश्किल काम आसान कर सकेंगे, और क्या चाहिए।

जीभ की गुलामी ब्रह्मचर्य में सबसे बड़ी बाधक जीभ की गुलामी ब्रह्मचर्य में सबसे बड़ी बाधक Reviewed by Tarun Baveja on October 31, 2020 Rating: 5

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