"स्त्री और ब्रह्मचर्य"
बहुधा लोगों की यह धारणा होती है, कि ब्रह्मचर्य
सृष्टि विरोधी है। साथ ही यह भी भ्रम है, कि ब्रह्मचर्य केवल पुरुषों के लिये है और केवल पुरुष ही ब्रह्मचारी हो सकते हैं। वास्तव में ब्रह्मचर्य का वास्तविक महत्व गृहस्थाश्रम में है। इस दृष्टि से यह भ्रम तो दूर ही हो जाता है, कि उससे सृष्टि संचालन में बाधा हो सकती है। सृष्टि संचालन के लिये ही यह आवश्यक है, कि प्रत्येक गृहस्थ ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे और प्राकृतिक धर्म (रजस्राव, गर्भावस्था आदि) के अनुसार केवल सन्तान की कामना करके ही स्त्री के साथ समागम करें।क्योंकि प्राचीन ग्रन्थों में बतलाया गया है, कि ऋतुकाल में नियमानुसार पत्नीके साथ समागम करने से ब्रह्मचर्य व्रत भङ्ग नहीं होता वरन् गृहस्थ का यही ब्रह्मचर्य है। अतएव यह तो स्पष्ट है, कि प्रत्येक गृहस्थ ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर सकता है।
ब्राह्मचारी गृहस्थ ही उत्तम सन्तान पैदा कर सकता है। इस प्रकार जीवन नियमित हो जाने पर गृहस्थ स्वयं तो दीर्घजीवी होगा ही, सन्तान उत्तम, योग्य, स्वस्थ और दीर्घजीवी बनेगी। अतः सृष्टि को बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है, कि वीर्य की रक्षा सभी प्रकार से की जाये। प्रत्येक प्रकार की उन्नति और विकास के लिये ब्रह्मचर्य व्रत की आवश्यकता है। फिर सृष्टि कायम तभी रह सकती है, जब सर्वत्र पुरुषार्थी व्यक्ति पाये जायें और मानव जाति उन्नत और विकसित होती रहे। लेकिन वास्तव में हम देखते हैं, कि दिन-ब-दिन मनुष्य पतन की ओर अग्रसर हो रहा है और आहार के नियमों की अवहेलना की जा रही है। कुत्सित विचारधारा ही आज की विश्व अशान्ति का कारण है। सदाचार और ब्रह्मचर्य के नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत किया जाये, तो इस प्रकार अमानुषिक कार्य न हों और विभिन्न प्रकार के कलह, रोग-दोप और अशान्ति न उत्पन्न हों। तात्पर्य यह कि सृष्टि को कायम रखने, मानव जाति को विकसित करने तथा जीवन सुखी बनाने के लिये यह अनिवार्य है, कि वीर्य रक्षा की जाये और उसके लिये आहार-विहार नियमानुसार हो।
गृहस्थाश्रम में ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिये स्त्री का सहयोग प्राप्त न हो, तो वीर्य रक्षा सम्भव नहीं, और यदि सम्भव हो भी तो वह दोषपूर्ण है तथा स्त्री का सहयोग अहितकर हो सकता है। वास्तविकता तो यह है, कि पुरुष की अपेक्षा स्त्री अधिक धैर्य और शान्ति धारण कर सकती है और वह पुरुष को इस कार्य में विशेष रूप से सहायता पहुंचा सकती है।
ब्रह्मचर्य स्त्री तथा पुरुष दोनों के लिये समान रूप से आवश्यक है। जिस प्रकार वीर्यक्षय होने से पुरुष की शारीरिक एवं मानसिक शक्ति क्षीण होती है और सन्तानोपत्ति का विशेष भार उसी पर होने के कारण उसके द्वारा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन होना अत्यावश्यक है। ब्रह्मचर्य व्रतके पालन का ध्यान दोनों में से किसी एक को ही होना अहितकर है तथा उससे ब्रह्मचर्य के सभी फल प्राप्त नहीं
होंगे। विशेषतः उत्तम सन्तान की उत्पत्ति तथा उनके उचित पालन-पोषणके लिये यह आवश्यक है, कि स्त्री को इसका उतना ही ज्ञान और ध्यान हो, जितना पुरुष को। ऐसी अवस्था में उस दम्पति का पारिवारिक जीवन स्वर्ग बन जायेगा और किसी भी कार्य में दोनों सफल होंगे। फिर सन्तान का पालन-पोषण भी उन्हीं उत्तम माता-पिता द्वारा होने से मानव जाति का भविष्य आशापूर्ण हो जाता है।
स्त्री जाति के लिये ब्रह्मचर्य का पालन करना किसी अंश तक स्वाभाविक है, क्योंकि वह अपने सतीत्व के लिये विख्यात है तथा लज्जा उसका आभूषण है। अबला भी अपने सतीत्व पर आघात होते देख सांप की भांति फुंफकार उठती है और जिस प्रकार कहीं-कहीं स्त्रियों ने अपने सतीत्व की रक्षा की है, वह सर्वविदित है। यदि पति चाहे तो पत्नी को ब्रह्मचर्य का महत्व बतलाकर सफलता के साथ मनुष्य जीवन व्यतीत कर सकता है।
यदि पुरुष अखण्ड ब्रह्मचारी हो सकता है, तो स्त्रियों के लिये भी यह सम्भव है। जो फल ब्रह्मचर्य धारण कर पुरुस पा सकता है, वह स्त्री के लिये भी सुलभ है। गृहकार्य के संचालनका भार प्रधानतया स्त्री पर रहता है और यदि उसमें ब्रह्मचर्य द्वारा प्राप्त गुण हों, तो निश्चय ही परिवार का कल्याण होगा। प्राचीन भारत में ऐसी स्त्रियों के होने की कथाएं पायी जाती हैं और साधारण स्त्रियों की अपेक्षा उनमें विशेषता अवश्य ही स्वीकार की
गयी है।
इसके अतिरिक्त गृहस्थाश्रम में ब्रह्मचर्य व्रत के पालन की विशेष आवश्यकता है और उस आवश्यकता की पूर्ति तभी हो सकती है, जब पुरुष और स्त्री दोनों का सहयोग हो। ऐसा परिवार अनुकरणीय होगा और सर्वत्र कल्याणकारी होगा। जिस प्रकार पुरुष के लिये गृहस्थ बनने के पूर्व ब्रह्मचर्याश्रम का विधान है, उसी प्रकार स्त्री के लिये कहा गया है- 'ब्रह्मचर्येण कन्यां युवानं विन्दते पतिम्' ब्रह्मचर्य धारण करने के बाद युवा पति से कन्या का विवाह किया जाये। इस प्रकार स्त्री के लिये ब्रह्मचर्य की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी पुरुष के लिये। इसके प्रमाणस्वरूप शास्त्रों में व्यवस्था तो है, ही। आधुनिक मनोविज्ञानवेत्ता इसकी आवश्यकता स्वीकार करते हैं।व्यवहारिकता सभी प्रकार के नियमों और विधानों की कसौटी है, और व्यवहारिकता ही इस सिद्धान्त का अकाट्य प्रमाण है। सच्चा कल्याण, वह चाहे आधिभौतिक हो अथवा आध्यात्मिक, तभी प्राप्य है, जब नियमपूर्वक गृह धर्म का पालन किया जाये। यह तभी हो सकता है, जब प्रत्येक गृह में दम्पति ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करें।

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