* मिताहारी बनिए :--
अपनी आयु, शरीर, क्षुधा के अनुसार सादा और ताजा अल्पाहार करने वाला व्यक्ति 'बल और आयु की वृद्धि कर प्रसन्नता और आरोग्य लाभे करता है। अति भोजन करने वाला पेटू होता है, जो केवल स्वाद और जिह्वा के वशीभूत होकर अनावश्यक बोझ अपनी आँतों पर डालता है ।
जीने के लिए खाइए, खाने मात्र के लिए जीवित मत रहिए। अति भोजन से भाँति-भाँति की बीमारियां फैलती हैं। सुस्ती और काहिली आती है। कठोर कार्यों में दिल नहीं लगता, अतिरिक्त अंश को पचाने में बहुत-सी जीवन शक्ति क्षय हो जाती है और स्वप्नदोष प्रारंभ हो जाता है। तन और मन दोनों रोगी बन जाते हैं और स्वार्थ और परमार्थ कुछ भी नहीं बन पड़ता।
* अधिक भोजन करने के दुष्परिणाम :--
स्वामी शिवानंद जी ने ठीक लिखा है, "आहार, निद्रा, भय, मैथुन, क्रोध, कलह आदि जितनी बढ़ाई जाएँ उतनी ही बढ़ती जाती हैं और जितनी कम की जाएं, उतनी ही कम हो जाती हैं।" भगवान बुद्ध कहते हैं- "एक बार हल्का आहार करने वाला महात्मा है, दो बार सम्हल कर खाने वाला बुद्धिमान और भाग्यवान है और इससे अधिक बेअटकल खाने वाला महामूर्ख, अभागा और पशु का भी पशु है।" सच है, गले तक खूब तूंस कर खाना तथा फिर पछताना कौन बुद्धिमानी है। जिस भोजन से दुःख उत्पन्न होता है, वह विष तुल्य समझना चाहिए ।
डा० स्थाक फैडन कहते हैं- "आजकल साधारणतः लोग भोजन के बहाने जितने पदार्थों का सत्यानाश कर डालते हैं, उनके चतुर्थ अंश से
ही उनका कार्य बड़े मजे से चल सकता है। अकाल में अन्न के अभाव में लोग उतने नहीं मरते जितने काल में अन्न खाने से तरह-तरह के रोगों से मर जाते हैं।"
मनु महाराज ने कहा है --
अनारोग्य अनामुष्यं अग्वर्य चाऽति भोजनं ।
अपुण्यं लोक विद्विष्टं तस्यात्तत्परिवर्जयेत ॥
अति भोजन रोगों को बढ़ाने वाला, आयु को घटाने वाला, नर्क में पहुँचाने वाला, पाप को कराने वाला और लोगों में निंदित करने वाला है। अतः बुद्धिमान को चाहिए, कि सुस्वाद पदार्थों के फेर में न पड़कर आवश्यकता से अधिक कदापि न खाएं, क्योंकि वैसा करना अधर्म है ।
अधिक भोजन करने से जो रोग उत्पन्न होते हैं, उन्हें देख लीजिए। प्रथम तो अजीर्ण या बदहजमी है। पेट बाहर निकल आता है, भूख नष्ट हो जाती है, खट्टी डकारें आती हैं, पेट में भारीपन प्रतीत होता है, मोटापन बढ़ता है।
दूसरा भयंकर रोग आंत्र-पुच्छ वृद्धि ( अपेंडिसाइटिस ) है। जो अयुक्त आहार से संबंधित है। जो व्यक्ति अम्लकारक, श्वेतसार और
प्रत्यामिन अधिक और खनिज लवण वाले पदार्थ कम खाते हैं, वे इस रोग से परेशान रहते हैं। अम्ल की अधिकता हो जाने से पाचन प्रणाली साफ नहीं रह पाती। अंदर ही अंदर एकत्रित होता जाता है और इस रोग की उत्पत्ति हो जाती है। इसके अतिरिक्त पक्वाशय संबंधी अन्य रोग जैसे - मधुमेह इत्यादि भी आक्रमण करते हैं।
श्री जीवानंद श्रीवास्तव ने अति भोजन के दुष्परिणामों में वृक्ष विकार भी बताया है। आप लिखते हैं- "वृकविकार बहुत दिनों तक अधिक प्रत्यामिन, विशेषकर माँस अंडा खाने वालों के बारे में आती है। तोंद का बढ़ना और आँतों का स्थान भ्रष्ट होना तो सदैव अति भोजन करने, पेट का व्यायाम न करने का ही परिणाम होता है। लोग अप्राकृतिक और स्वादिष्ट पदार्थों का ही ज्यादा शौक करते हैं और अधिक खाते हैं। वस्तुतः लोग प्रयत्न करके भी प्राकृतिक पदार्थों को उनके मूल रूप में अधिक नहीं खा सकते क्योंकि स्वाद
बाधक होता है और पेट भी विद्रोह करने लगता है। आवश्यक और पर्याप्त मात्रा में खा लेने पर भूख और इच्छ दोनों शांत हो जाती हैं।"
* अल्पाहार : दीर्घायु का रहस्य
संयत एवं परमित मात्रा में खाने से हम अपनी शरीर रूपी मशीन के लिए केवल आवश्यक तत्व ही खींचते हैं, सड़ने और व्यर्थ पड़े रहने के लिए कोई गुंजायश नहीं रहती। प्रोटीन वाले पदार्थों को अधिकाधिक खाने का लालच होता है। इनके विषय में अपने लालच को रोकें और दो छटांक से अधिक एक बार में लेने का प्रयत्न न करें। शर्करा, श्वेतसार और प्रोटीन सदा संयत और परिमित मात्रा में ही लें। खनिज लवण वाले पदार्थ हमेशा स्वास्थकर होते हैं और उन्हें अधिक मात्रा में लेना प्रायः असंभव-सा होता है।
शर्करा ( शक्कर या चीनी) से सावधान। देखने में सफेद, खाने में मीठी किंतु गुण में प्रत्यक्ष विष सरीखी इस जहरीली चीज से सावधान। चीनी का अधिक प्रयोग अनेक रोगों को दावत देने जैसा है । सफेद चीनी, छटे चावल तथा मैदा की वृद्धि के अनुपात में सारी दुनियाँ में मधुमेह के रोगी बढ़ रहे हैं। चीनी मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है। यदि मैदा के बदले बिना छना आटा काम में लाया जाए और सफेद चीनी के बजाय गुड़ काम में लाया जाए, तो मनुष्य की खुराक में विटामिन बी० की न्यूनता नहीं रह जाती। चीनी से गुड़ सदैव उत्तम है। श्री पुरुषोत्तमदास टंडन के एक भाषण का अंश देखिए --
"मैने सन १९२०-२१ में चीनी को राजनैतिक कारणों से छोड़ा था, पर भोजनशास्त्र का अध्ययन करने पर मुझे पता चला कि इससे अधिक घातक पदार्थ हमारे शरीर के लिए दूसरा नहीं हो सकता। यह हमारे शरीर में पहुंचकर आँतों में जलन उत्पन्न कर देती है। जो जीभ के स्वाद के वश में नहीं हैं और स्वस्थ रहना चाहते हैं। उन्हें कहूँगा, कि चीनी खाने की मूर्खता में न पड़ें। सफेद चीनी से सभी क्षार निकल जाते हैं और फिर वह शरीर के लिए उपयोगी होने के स्थान पर हानिकारक हो जाती है।
इसलिए आप गुड़ खाएँ या लाल शक्कर खाएँ। चीनी का तो इस देश से बहिष्कार हो जाना चाहिए।
मनुष्य जितना खा लेता है, उसका तिहाई भी नहीं पचा पाता। शेष पेट में रहकर ना-ना प्रकार के जीर्ण रोग उत्पन्न करता है। रक्तविकार होने से शरीर पर छोटी-छोटी कुंसियां या काले काले दाग हो जाते हैं। फालतू भोजन को निकालने में ऊर्जा व्यय करनी पड़ती है और शरीर की मशीन की व्यर्थ ही घिसाई होती है। जल्दी-जल्दी खाने से मनुष्य दुःखी, मलीन, कामी, पेटू, अतृप्त, रोगी, क्रोधी और चिड़चिड़ा बन जाता है। अत: धीरे-धीरे और अल्प मात्रा में ही भोजन करना उचित है।
* भोजन के समय की मनः स्थिति :--
भोजन करते समय मनः स्थिति बड़ी सावधान रखिए। मनः स्थिति उत्साह, प्रेम, सहानुभूति, प्रसन्नता से परिपूर्ण रखिए। मित्र हों तो उनसे कोई अच्छे विषय छेड़िए। पत्नी से प्रेमपूर्ण विषय पर वार्तालाप कीजिए। बच्चों से निर्दोष हँसी कीजिए।
जब भोजन सामने आए, तो उच्च मन:स्थिति द्वारा उसमें शुभत्व की पवित्र भावना प्रवाहित कीजिए।
जब भोजन सामने आए, तो उच्च मनः स्थिति द्वारा उसमें शुभत्व की पवित्र भावना प्रवाहित कीजिए। हमारे यहां भोजन को नमस्कार करने की पद्धति बड़ी मनोवैज्ञानिक है। नेत्र मूंदकर आपको मन ही मन कहना चाहिए --
"हे प्रभो ! यह भोजन आपको समर्पित है। अपने पवित्र स्पर्श द्वारा इसे पवित्र, सुस्वादु, पौष्टिक एवं अमृतमय बना दीजिए। मुझे इससे स्वास्थ्य, बल, पौरुष, दीर्घायु प्राप्त होगी ।"
आपके प्रत्येक कौर के साथ उत्तम भावनाएँ भी भोजन के साथ मिश्रित होकर शरीर में पहुँचनी चाहिए। आप सोचते रहिए- "इस कौर को चबाकर मैं अपने शरीर में पौष्टिक तत्व पहुँचा रहा हूँ। यह भोजन मेरे लिए अमृत का स्रोत है, सुख तथा स्वास्थ्य प्रदान करने वाला है । इसके द्वारा मुझे आरोग्य, बल एवं शक्ति मिल रही है।
जब आप दूध या जलपान करें, तो अपनी शुभ भावनाओं का प्रवाह पवित्रता की ओर रखिए । आप मन में सोचिए, "प्रत्येक घूंट के साथ मैं अपार शक्ति, पौरुष, बल पान कर रहा हूँ, निरंतर बलवान बनता जा रहा हूँ। इस दूध या जल से मुझमें पुष्ट रक्त बनेगा, जिससे पवित्र मांस, मज्जा, रस, वीर्य की उत्पत्ति होगी। मैं शारीरिक सौंदर्य और बल से युक्त हो जाऊँगा और अक्षय यौवन, अमित सुख, दीर्घ आयु और इंद्रिय मन की शुद्धि प्राप्त करूंगा।
इसी प्रकार के पुष्ट और पवित्र संकेत देने तथा पवित्र मनः सिथति रखने से आपके भोजन का अणु-अणु शक्ति से युक्त हो उठेगा और आप अपने में स्फूर्ति और बल का अनुभव करेंगे।

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