भोजन का हमारी बुद्धि पर कैसे प्रभाव पड़ता है


       "भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य"

 भोजन करने का आध्यात्मिक उद्देश्य है। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण उत्पन्न करने वाले भोजनों की ओर संकेत किया है। जिस व्यक्ति का जैसा भोजन होगा उसका आचरण भी तदनुकूल होता जाएगा। भोजन से हमारी इंद्रियाँ और मन संयुक्त हैं :-
  आहरशुद्धोसत्वशुद्धिः सत्वशुद्धो ध्रवास्मृतिः ।
  समृतिलब्धे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः ॥छांदोग्य ।

अर्थात "आहार की शुद्धि से सत्व की शुद्धि होती है, सत्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल और निश्चयी बन जाती है, फिर पवित्र व निश्चयी बुद्धि से मुक्ति भी सुलभता से प्राप्त होती है।"


   जिन्हें काम, क्रोध, उत्तेजना, चंचलता, निराशा, उद्वेग, घबराहट, शक्ति हीनता या अन्य कोई मनोविकार है, उन्हें उसकी चिकित्सा भोजन द्वारा ही करनी चाहिए। सात्विक भोजन से चित्त निर्मल हो जाता है, बुद्धि में स्फूर्ति रहती है। आध्यात्म जगत में उपवास का अत्यधिक महत्व है। अधिक खाए हुए अन्न पदार्थ को पचाने और उदर को विश्राम देने के लिए हमारे ऋषियों ने उपवास की योजना की है। भोजन में चित्तवृत्तियाँ लगी रहने से किसी उच्च विषय पर ध्यान एकाग्र नहीं होता। उपवास से काम, क्रोध, रोगादि फीके पड़ जाते हैं और मन हठात दुष्कर्म में प्रवृत नहीं होता। सात्विक अल्पाहार करने वाले व्यक्ति आध्यात्मिक मार्ग में दृढ़ता से अग्रसर होते हैं। जो अन्न बुद्धि वर्धक हो, वीर्य रक्षक हो, उत्तेजक न हो, कब्ज न करे, रक्त दूषित न करे, सुपाच्य हो, वह सत्व गुण युक्त आहार है। अध्यात्म जगत में उन्नति करने, पवित्र विचार और अपनी इंद्रियों को वश में रखने, ईश्वरीय तेज उत्पन्न करने वाले अभ्यासियों को सात्विक आहार लेना चाहिए ।

* सात्विक आहार --
   सात्विक आहार क्या है ? जो ताजा, रसयुक्त, हल्का,हपौष्टिक, मधुर और प्रिय हो, उसे सात्विक आहार कहते हैं। जैसे- गेहूँ, चावल, जौ, साठी, मूंग, अरहर, चना, दूध, घी, चीनी, फल, सेंधा नमक, रतालू, शंकरकंद, तरकारियाँ, शाक इत्यादि। शाकों में घीया, तुरई, खीरा, पालक, मेथी, गाजर का विशेष महत्व है। ये हल्के, सुपाच्य तथा शुभ प्रकृति उत्पन्न करने वाले पदार्थ हैं। फलों में आम, तरबूज, खरबूजा, आलू बुखारा, नारंगी इत्यादि उत्तम हैं। दही भूलोक का अमृत है। सात्विक पुरुष दही, छाछ, मक्खन, पनीर इत्यादि का खूब प्रयोग कर सकते हैं।

   स्वामी शिवानंद जी के अनुसार, हरे ताजे शाक, दूध, घी, बादाम, मक्खन, मिसरी, मीठे संतरे, सेब, अंगूर, केले, अनार, चावल, गेहूँ की रोटी, मखाना, सिंघाड़े, काली मिर्च ली जा सकती हैं। सात्विक आहार से चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। दही की लस्सी, मिश्री का शरबत, नारंगी, नींबू के रस का प्रयोग सात्विक है। नीबू को खटाई में गिनना भूल है। साधक इसका सफलता पूर्वक प्रयोग कर सकते हैं। इससे पित्त का शमन होता है तथा रक्त शुद्ध होता है। एकादशी के दिन अन्न का परित्याग कर दूध और फलों का सेवन करना चाहिए। इससे इच्छाशक्ति बलवंती होती है तथा जिह्वा पर नियंत्रण प्राप्त होता है।

   प्रसिद्ध आत्मवादी डा० दुर्गाशंकर नागर की सम्मति इस प्रकार है - 'आध्यात्मिक पुरुष को अवस्था, प्रकृति, ऋतु तथा रहन सहन के अनुसार विचार कर शीघ्र पचने वाला सात्विक भोजन करना चाहिए। फलाहार सब आहारों में श्रेष्ठ है। संतरे, सेब, केले, अंगूर, चूसने के आम आदि फल उत्तम होते हैं श। फलाहार से उतरकर अन्नाहार है। रोटी, मूंग अरहर की दाल, चावल, शाक, भाजी, दूध, मक्खन, घी आदि का समावेश अन्नाहार में होता है। आटा हाथ का पिसा हुआ चोकर सहित
उपयोग में लेना चाहिए।'

   गेहूँ और जौ सत्वगुणी अनाज हैं। चने का अधिक उपयोग वायु कारक होता है। कच्चे चने को छिलके सहित भिगोकर नसें फूटने पर खाना बलकारी है। यही बात मूंग के संबंध में भी है। दालों में मूंग, मोठ, अरहर, श्रेष्ठ हैं। सिंघाड़े, शकरकंद, सत्वगुणी हैं। चावल हितकर अनाज है, जो इसे पचा सकें अवश्य लें। फलों के रस, बादाम, खीरे के बीज, सौंफ, इलायची, गुलाब के फूलों की ठंडाई मिश्री मिलाकर पीना उत्तम है। गुड़ सर्वोत्कृष्ठ मीठा है। गौ दुग्ध सात्विक है।

* मन को विकृत करने वाला राजसी आहार --

   कट्वम्ल लवणात्युष्णातीक्ष्णं रूक्ष विदाहिनः ।
   आहाराः राजस, स्येष्टा दुःख शोक भयप्रदाः ॥

   राजसी आहार का प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे मन तथा इंद्रियों पर पड़ता है। मन में कुकल्पनाएं, वासना की उत्तेजना और इंद्रिय लोलुपता उत्पन्न होती है। मनुष्य कामी, क्रोधी, लालची और पापी बन जाता है। रोग शोक, दुःख, दैन्य की अभिवृद्धि होती है। मनुष्य की आयु, तेज, सामर्थ्य और सौभाग्य का तिरोभाव होता है। बुद्धि मलीन होती है।

* राजसी आहार की सूची देखिए:- सब प्रकार के व्यसन जैसे शराब, चाय, काफी, कोको, सोडा, पान, तंबाकू, गांजा, भाँग, चरस, अफीम, कोकेन, चंडू इत्यादि। जो सिगरेट पीते हैं, वे प्रत्यक्ष विषपान किया करते हैं। इससे नशा, भ्रम, सर में चक्कर, खाँसी, पित्त, वमन उत्पन्न होता है। खाने का पान, चूना, फंकी, तंबाकू भी घृणित हैं।

   तेल से तले हुए गरिष्ट पदार्थ, बाजार में बिकने वाली मिठाइयाँ, रबड़ी, पूड़ी, कचौड़ियाँ, मालपुआ, तली हुई दालसेव, अधिक मिर्च मसाले वाले नमकीन, उत्तेजक तरकारियाँ, केवल जिह्वा के स्वाद मात्र के लिए तैयार की गई बाजारू चाट पकौड़ी, समोसे, दही बड़े, खस्ता कचोरियाँ, मसालेदार काबुली चने, डबल रोटी, बिस्कुट, सोडावाटर, विलायती दूध, पौष्टिक दवाइयां भी राजसी आहार हैं।

   हिंदू शास्त्र में प्याज तथा लहसुन वर्जित हैं। इसका प्रमुख कारण यह है, कि ये उत्तेजना उत्पन्न करने वाली तरकारियाँ हैं। राजसी, विलासी व्यक्ति इनका प्रयोग करते हैं। इंद्रियाँ कामुक हो उठती हैं । अतः वे विलास मग्न रहते हैं। क्रोधी, विक्षुब्ध और उत्तेजनाओं में फंसे रहते हैं। मुँह से दुर्गध आती है।

   दालों में उर्द, मसूर पौष्टिक होते हुए भी अपने गुणों में तामसिक हैं। यही कारण है, कि हिंदू लोग मसूर की दाल से परहेज करते हैं। यह ठाकुर जी के भोग में निषिद्ध है। लाल मिर्च, गर्म मसाला, चटनियाँ, अचार, तेल, खटाई, सोंठ, अदरक, काली मिर्च, अधिक नमक राजसिक वृत्ति को प्रोत्साहित करते हैं। अत्यंत उष्ण, ठंडा, कडुवा, तीता, रूखा, चरपरा मिर्च वाला भोजन स्वभाव में उत्तेजना उत्पन्न करने वाला है। कुछ व्यक्तियों को
गर्मागर्म भोजन लेने की आदत होती है, कुछ बर्फ के बिना पानी नहीं पी सकते, सोडा, लेमन बार-बार पीते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से यह बुरा है।
राजसी आहार से मन चंचल, क्रोधी, लालची, विषय वासना में लगता है।

* तामसी आहार :--

       यातयामं गतरसं पूतिपर्युषितं च यत् ।
    उच्छिष्टमपिचामेध्यं भोजनं तापसप्रियम् ॥

   मनुष्य का भोजन अनाज तथा तरकारियाँ हैं। एक से एक सुस्वादु और गुणकारी फल परमात्मा की सृष्टि में हैं, मेवों का ढेर मनुष्य को सुखी करने के लिए उत्पन्न किया गया है। दूध और शहद जैसे अमृत-तुल्य पेय पदार्थ मानव के लिए सुरक्षित हैं। किंतु शोक ! महाशोक ! मनुष्य फिर भी तामसी आहार लेता है।

   तामसी आहारों में मांस आता है। मांस, मछली का प्रयोग केवल स्वाद मात्र के लिए बढ़ रहा है। अंडों का प्रयोग किया जा रहा है। भांति-भांति की शक्ति वर्धक दवाइयाँ, मछलियों के तेल, गुटिकाएं,
व्यसन इत्यादि तामसी वृत्ति उत्पन्न करते हैं। तामसी आहार में राजसी के अतिरिक्त रसहीन, बासी और विषम ( अर्थात बेमेल ) भोजन भी सम्मिलित है। बिस्कुट, डबलरोटी, चाकलेट, आमलेट, मांस से तैयार होने वाले ना-ना पदार्थ, काडलिवर आयल, ताकत की दवाइयाँ, काफी, शराब इत्यादि तामसी वृत्ति उत्पन्न करते हैं।

   तामसी आहार के लिए गीता में निर्देश है -- "तामसी आहार से मनुष्य प्रत्यक्ष राक्षस बन जाता है। ऐसा पुरुष सदा दुःखी, बुद्धिहीन, क्रोधी, लालची, आलसी, दरिद्री, अधर्मी, पापी और अल्पायु बन जाता है।

   जितना अधिक अन्न पकाया जाता है, उतना ही उसके जीवाणु तत्व विलीन हो जाते हैं। स्वाद चाहे बढ़ जाए, किंतु उसके खाद्याज्य पदार्थ नष्ट हो जाते हैं। कई-कई रीतियों से उबालने, भूनने या तेल में पूड़ी-कचौड़ी की तरह तलने से आहार निर्जीव होकर तामसी बन जाता है। विलायती दूध, सूखा दूध, रासायनिक दवाइयाँ, बाजारू मिठाइयाँ निर्जीव होकर अपना जीवाणुत्व नष्ट कर देती हैं।

   भोजन में सुधार करना शारीरिक कायाकल्प करने का प्रथम मार्ग है। जो व्यक्ति जितनी शीघ्रता से गलत भोजनों से बच कर सही मार्ग पर आरूढ़ हो जाएंगे, उनके शरीर दीर्घ काल तक सुदृढ, पुष्ट और स्फूर्तिवान बने रहेंगे। क्षणिक जिह्वा सुख को न देखकर, भोजन से शरीर मन और आत्मा का जो संयोग है, उसे सामने रखना चाहिए। जब तक अन्न शुद्ध नहीं होगा, अन्य धार्मिक, नैतिक या सामाजिक कृत्य सफल नहीं होंगे। व्यापार, नौकरी या पेशे में कपट, झूठ, छल, अन्याय होता रहेगा।

* आहार का रासायनिक विश्लेषण :--

   मनुष्य का भोजन पाँच प्रकार के वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -
(१) वसा ।
(२) कार्बोज ।
(३) प्रोटीन ।
(४) जल ।
(५) खनिज लवण ।

   जिन पदार्थों में कार्बन होता है, उन्हें सजीव तथा जिनमें कार्बन नहीं होता है, उन्हें निर्जीव कहा जाता है। उपरोक्त तत्वों में वसा, कार्बोज और प्रोटीन सजीव तथा निर्जीव दोनों पदार्थों से प्राप्त होता है, जल तथा खनिज नमक निर्जीव पदार्थों से प्राप्त होता है, जल तथा खनिज लवण नमक निर्जीव पदार्थों से।

* प्रोटीन :--

   प्रोटीन के अभावों में गिल्टियों की क्रिया निर्बल पड़ जाती है और आदमी अपनी अवस्था से पूर्व ही बूढ़ा हो जाता है।

   प्रोटीन शरीर की बाढ़ और क्षति पूर्ति के लिए आवश्यक है। प्रत्येक जीव छोटी-छोटी कोशिकाओं ( सेल ) से विनिर्मित होता है। मस्तिष्क, नाड़ियाँ, फेफड़े, हृदय, हड्डियाँ प्रोटीन से ही बनती हैं। हड्डियों के वर्धन के लिए आवश्यक होने के कारण प्रथम पच्चीस वर्ष तक प्रत्येक जीव को प्रोटीन की आवश्यकता पड़ती है। बच्चों के पोषण में हमें इस तत्व का विशेष ध्यान रखना चाहिए, कि उन्हें पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन वाले पदार्थ प्राप्त हो रहे हैं या नहीं ? बड़ों के शरीर की टूट-फूट के लिए भी प्रोटीन लाभदायक है। प्रोटीन वाले पदार्थ इस प्रकार हैं --

   बिन छना गेहूँ, जौ या ज्वार इत्यादि का आटा, मशीन से न साफ किए चावल, चना, मटर, लोभिया, आलू, गाजर, शलजम, चुकंदर, हरे शाक भाजियाँ। वनस्पतियों में प्रोटीन विशेष रूप से विद्यमान रहती है। आधे से अधिक संख्या में पशु जगत वनस्पति ( अर्थात पत्तियाँ, घास, हरे शाक, भाजियाँ, आदि) खाकर प्रोटीन प्राप्त करते हैं। वनस्पति अपने आप में पूर्ण, सब तत्वों से युक्त, पौष्टिक, परिवर्धन विकास के लिए उपयुक्त हैं। शाकाहारी पशु इन्हें खाकर अपना डील डौल, शक्ति वर्धन करते हैं। उन्हें अन्य शक्ति वर्धक पदार्थों की आवश्यकता नहीं होती। मनुष्य को भी चाहिए कि अधिक से अधिक वनस्पतियों का उपयोग कर शरीर को पुष्ट करने का प्रयत्न करे। 

परमेश्वर ने ना-ना प्रकार के अन्न, तरकारियाँ, भाजियाँ, फल इत्यादि प्रचुर मात्रा में उत्पन्न किए हैं। खेद है, कि मनुष्य इन तत्वों के प्रति सजग नहीं है। हरी तरकारियों की खपत उतनी नहीं है, जितनी होनी उचित है। होना यह चाहिए कि आधी रोटी खाई जाए तथा आधी हरी भाजियाँ सब्जियाँ, कच्चे फल, मेवे इत्यादि । भारत में फलों के प्रयोग का रिवाज बहुत कम है। जिन्हें ये अनमोल पदार्थ सहज ही उपलब्ध हो सकते हैं, वे भी इन्हें प्रयोग नहीं करना चाहते।

   दूसरे प्रोटीन वे हैं, जो दूध, दही, पनीर, क्रीम, मक्खन, मट्ठा आदि में मिलते हैं। दूध प्रोटीन का खजाना है। सृष्टि के क्रम में परमेश्वर ने दूध द्वारा बच्चों के विकास का क्रम रखा है। माता के स्तन से दूध पाकर बच्चा धीरे-धीरे पनपता है। अपनी हड्डियों, मांस तथा व्यक्तित्व को प्राप्त करता है। यही दूध क्या बड़े क्या छोटे सभी को सुगमता से पच जाता है और पोषण में सहायक बनता है। मक्खन में उच्चकोटि का प्रोटीन है । भगवान कृष्ण ने दूध और मक्खन को अपना कर भारत में इस उच्चकोटि के खाद्य पदार्थ का प्रचार किया था। आज वनस्पति घी और मक्खन निकले हुए दूध का बोलबाला है। जहाँ तक संभव हो, गाय पाल कर घी दूध की व्यवस्था प्रत्येक परिवार को रखनी चाहिए। दूध, घी, मक्खन, पनीर इत्यादि की प्रोटीन सबसे अच्छी होती है।

   दालों में प्रोटीन की मात्रा अधिक है। खेद है, कि हिंदू के भोजन में जो सबसे पौष्टिक तत्व दाल था, वह कम होता जा रहा है। मूंग की पतली दाल, सो भी नगण्य मात्रा में प्रयोग में लाई जा रही है। सभी प्रकार की दालें पर्याप्त मात्रा में लिया करें। दाल की मात्रा में वृद्धि करने से शरीर-पोषण होता रहता है। वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक कथन है, कि मटर, सेम, लोभिया, उड़द इत्यादि की दालों में दूध की अपेक्षा कहीं अधिक प्रोटीन होता है। जो गरीब हैं, वे चावल, मूंगफली, तिल, खोआ, सरसों आदि के तेलों से प्रोटीन प्राप्त कर सकते हैं।

* चिकनाई या वसा :--

   इसका उपयोग शरीर की गर्मी बनाए रखने के लिए किया जाता है। मानसिक श्रम करने वालों को इस तत्व की विशेष रूप से आवश्यकता है। चिकनाई प्राणिज भी हो सकती है। जैसे- घी, मक्खन आदि में तथा वानस्पतिक भी जैसे- सरसों का तेल, तिल का तेल, नारियल का तेल इत्यादि। मूंगफली, सोयाबीन, सभी मेवों जैसे-बादाम, अखरोट, नारियल, पिस्ता, काजू में चिकनाई होती है।

* कार्बोज या कार्बोहाइड्रेट :--

   यह शक्ति उत्पन्न करने वाला पदार्थ है। इसकी उत्पत्ति मुख्यतः वनस्पति से मानी गई है। यह गेहूँ, चावल, बाजरा, ज्वार, साबूदाना, आलू, काजू, अमरूद, केला, सूखे मेवे जैसे खजूर, मुनक्का, किशमिश आदि और गुड़, चीनी तथा अन्य मीठी चीजों में पाया जाता है।

* खनिज लवण :--

   प्राकृतिक नमक हमें शाक भाजियों से प्राप्त होते हैं। लवण फलों में होते हैं, यद्यपि हमें इनका ज्ञान नहीं होता। आलू में मुख्य खनिज पदार्थ पोटाश, कैल्शियम तथा फास्फोरस होते हैं। फलों, तरकारियों, दालों, अनाजों के छिलकों में भी लवण होता है। इस कारण उन्हें छिलके समेत पकाने या खाने की सलाह दी जाती है। फलों में लोहा, कैल्शियम, फास्फोरस सबसे उत्तम होता है और शरीर में अच्छी तरह पच जाता है । तरकारियाँ और फल जितने ताजे होंगे, उतने ही लवण उत्तम और अधिक मात्रा में उपलब्ध होंगे। पालक के शाक, सलाद, हरी ताजा पत्तीदार साग भाजियों में लोहे का अंश अधिक होता है। अतः पत्तीदार शाक पर्याप्त मात्रा में लेने चाहिए।

* जल :--

   जीवन का प्रमुख तत्व है। हमारे शरीर में ६४% जल ही होता है। आज के युग में जल तत्व का शास्त्रीय उपयोग न होने के कारण कब्ज आदि रोग होते हैं। अथर्ववेद में लिखा है, "जल ही जीवन दाता है, जल ही रोगों को दूर करता है, जल सब रोगों का संहार करता है। इसलिए यह जल ही तुम्हें सब रोगों के पंजे से मुक्त करे।"  स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन के लिए जल बड़ा उपयोगी है।

   उपर्युक्त पाँचों प्रकार के जीवन तत्वों को विवेक से हमें अपने भोजन में स्थान देना चाहिए। वसा और कार्बोज दोनों शक्ति उत्पन्न करने वाली हैं। एक की कमी की पूर्ति दूसरी के द्वारा हो जाती है। अंतर केवल यही है, कि वसा देर में पचती है, जबकि कार्बोज शीघ्र पचती है। जल एक ऐसा बहुमूल्य पदार्थ है, जिसकी प्रायः हम उपेक्षा किया करते हैं।

   संक्षेप में प्रोटीन युक्त भोजन शरीर को सुदृढ़ बनाता है, उसका प्रयोग कीजिए। मक्खन और ताजा सब्जियाँ खाने की आदत डालिए। दूध तथा दूध से तैयार होने वाले पौष्टिक पदार्थ, ताजा पनीर, ताजी हरी सब्जियों के रस, साबुत दालें और चोकर वाला गेहूँ का आटा जीवन शक्ति की वृद्धि करता है।

भोजन का हमारी बुद्धि पर कैसे प्रभाव पड़ता है भोजन का हमारी बुद्धि पर कैसे प्रभाव पड़ता है Reviewed by Tarun Baveja on October 30, 2020 Rating: 5

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