"क्या खाएं ? क्यों खाएं? कैसे खाएं?"
शरीर के कायाकल्प का साधनभोजन
आहारस्त्वपि सर्वस्व त्रिविधो भवति प्रियः ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥
आयुः सत्वबलारोग्य सुख प्रीति विविर्धनाः ।
रस्या स्निग्धा स्थिरा हृद्या आहाराः
सात्विक प्रियोः।।
* भोजन की उपयोगिता --
शरीर की रक्षा, पुष्टि और स्वास्थ्य के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व मनुष्य का भोजन है। जैसे कोयले से इंजिन चलता है, चाभी से घड़ी चलती है, उसी प्रकार अस्तित्व स्थिर रखने, स्वस्थ रूप में कार्य कर दीर्घ 'जीवी होने के लिए भोजन की उपयोगिता है। बिना भोजन के मृत्यु अवश्यंभावी है। भोजन पचकर रक्त, मांस आदि का रूप प्राप्त कर शरीर के विभिन्न अवयवों को निज कार्य संपन्न करने की शक्ति प्रदान करता है। शरीर के विकास, परिवर्धन, नित्य प्रति के जीवन की छिजाई, घिसाई की क्षति-पूर्ति पौष्टिक भोजन के द्वारा ही संभव हो सकती है।
मनुष्य वृद्धावस्था तक में अच्छे भोजन के बल पर पुष्ट, स्वस्थ और युवक बना रह सकता है। इसके विपरीत अपूर्ण या असंतुलित भोजन के कारण यौवन में वृद्धावस्था आ कूदती है।
"जैसा भोजन वैसे विचार"- इस तथ्य में गहरी सत्यता है। साधारणतः लोगों का विचार है, कि ब्रह्मचर्य पालन के लिए शुद्ध विचारों, सुसंगति, स्वाध्याय, भजन पूजन इत्यादि में लगे रहना चाहिए। ऐसा कहने वाले प्रायः भोजन और विचारों का जो अन्योन्याश्रित संबंध है, उसे भूल जाते हैं। भोजन हमारे संस्कार बनाता है, जिसके द्वारा हमारे विचार बनते हैं। यदि भोजन सात्विक है, तो मन में उत्पन्न होने वाले विचार सात्विक और पवित्र होंगे। इसके विपरीत उत्तेजक या राजसी भोजन करने वालों के विचार अशुद्ध और विलासी होंगे। जिन जातियों में मांस, अंडे, मद्य, चाय, तंबाकू इत्यादि का प्रयोग किया जाता है, वे प्रायः विलासी,
विकारमय, गंदे विचारों से परिपूर्ण होते हैं। उनकी कामेंद्रियां उत्तेजक रहती हैं, मन कुकल्पनाओं से परिपूर्ण रहता है, क्षणिक प्रलोभन से अंतर्द्वद्व से परिपूर्ण हो जाता है। भोजन हमारे स्वभाव, रुचि तथा विकारों का निर्माता है।
पशु जगत को लीजिए। बैल, भैंस, घोड़े, गधे इत्यादि शारीरिक श्रम करने वाले पशुओं का मुख्य भोजन घास पात, हरी तरकारियां, या अनाज रहता है। फलतः वे सहनशील, शांत, मृदु होते हैं। इसके विपरीत सिंह, चीते, भेड़िये, बिल्ली इत्यादि मांस भक्षी, चंचल, उग्र, क्रोधी, उत्तेजक स्वभाव के बन जाते हैं। घास पात तथा मांस के भोजन का यह प्रभाव है। इसी प्रकार उत्तेजक भोजन करने वाले व्यक्ति कामी, क्रोधी, झगड़ालू, अशिष्ट होते हैं। विलासी भोजन करने वाले आलस्य में डूबे
रहते हैं, दिन रात में दस बारह घंटे सो कर नष्ट कर देते हैं। सात्विक भोजन करने वाले हल्के, चुस्त, कर्मों के प्रति रुचि प्रदर्शित करने वाले, कम सोने वाले, मधुर स्वभाव के होते हैं। उन्हें कामवासना अधिक नहीं सताती। उनके आंतरिक अवयवों में विष-विकार एकत्रित नहीं होते। जहाँ अधिक भोजन करने वाले अजीर्ण, सिर दर्द, कब्ज, सुस्ती से परेशान रहते हैं, वहा कम भोजन करने वालों के आंतरिक अवयव शरीर में एकत्रित होने वाले कूड़े कचरे को बाहर फेंकते रहते हैं। विष-संचय नहीं हो पाता।
भोजन की उपयोगिता स्पष्ट करते हुए एक वैद्य-विशारद लिखते हैं - भोजन से शरीर की छीजन, जो हर समय होती रहती है, दूर होती है। यदि यह छीजन दूर न होगी तो कोष दुर्बल हो जाएंगे और चूँकि शरीर कोषों का समूह है। कोष के दुर्बल होने से संपूर्ण शरीर दुर्बल हो जाएगा। कोषों को वे ही पदार्थ मिलने चाहिए, जिनकी उन्हें आवश्यकता हो, जैसे- गर्मी व स्फूर्ति देने वाले, उनको पुष्ट करने और अच्छी हालत में रखने वाले पदार्थ। कोषों के अंशों के टूटने-फूटने से शरीर में बहुत से विषैले अम्ल पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं। इनको दूर करने के लिए क्षार बनाने वाले पदार्थ पक्के मीठे फल, खट्टे फल, नीबू, आम, चकोतरे, अनन्नास, रसभरी, कच्ची या उचित ढंग से पकाई गई साग सब्जी, दूध-घी, मीठा दही, छाछ खाने चाहिए।

No comments: