ब्रह्मचर्य की आवश्यकता क्यों है


               "ब्रह्मचर्य की आवश्यकता"

   विश्व में आज कितना हाहाकार फैला हुआ है। यह हरा-भरा संसार, जहांपर परम पिता परमात्मा ने प्रकृति द्वारा सुख-वैभव के सारे सामान जुटा दिये हैं, किस प्रकार पीड़ित जन-समाज के चीत्कार से गुञ्जित हो रहा है ।जहां सुख के सभी साधन हैं, जहां पर सृष्टिकर्ता ने अपनी सर्वोच्च कला दिखलायी। आज वह रोगी, पीडित, सङ्कटग्रस्त जनों- स्त्री, पुरुष, बच्चों, बूढों के हाहाकार से भर गया है। दुःख, रोग, क्लेश, अकालमृत्यु,अविद्या, अज्ञान, अशान्तिका घटाटोप सारे संसार पर छाया हुआ है और भीषण वर्षा हो रही है। आज मनुष्य की,जो कि ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है, यह दुर्दशा है। सृष्टि में जिसे सर्वोत्तम सुन्दर शरीर, क्रियाशील दिमाग और तमाम सुखों के साधन मिले हैं, वही मनुष्य आज निर्बल और पीड़ित होकर रुदन करता फिरता है। कहां गया वह पुरुषार्थ कहां गये हमारे प्राचीन पुरुषार्थी, कहां गये हमारे बलशाली नवयुवक ? कहां गयी है, वह भारतीय मर्यादा ? भारतीय संस्कृति आज किधर है ? आज हमारे सब प्रकार से हीन होने का कारण क्या है ? हम दिन-ब-दिनः पतन की ओर ही क्यों चले जा रहे हैं ?


   आज धर्मप्राण, आदर्श भारत की सभी प्रकार से दुर्दशा है और जब तक हममें शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक बल नहीं आता। इसकी इस अधोगतिको दूर कर फिर एक बार आकाश में उसे प्रकाशमान नहीं  किया जा सकता। यदि इस दुर्दशाकी खोज की जांए, तो तुरन्त मालूम हो जाएगा कि मनुष्य पुरुषार्थहीन होता जा रहा है और कृत्रिम एवं क्षणिक सुखों के लिये कृत्रिम साधनों का गुलाम होता जा रहा है। विषय-वासना में लिप्त होकर अपना, अपने देश का एवं विश्व का कल्याण करने के उद्देश्य को हम भूल बैठे हैं। जिन इन्द्रियों के रहने के कारण ही मनुष्य सर्वोसष्ट जीव माना गया है, उन्हीं द्वारा आज हम पशुवृत्ति को अपना रहे हैं और जानवरों की भांति अपना जीवन बना अपने आप पैरमें कुल्हाड़ी मार रहे है। मानव जातिका यह पतन ।

   ओ! सर्वोत्कृष्ट जीव तृ.जाग! विश्वका कल्याण तेरे इशारे पर अवलम्बित है ! तू पुरुगर्थी धन !

   जहां पर विद्वान, बलवान, तपस्वी, मनस्वी, ग्रहाचारी, पुरषार्थी निवास करते थे। आज वहीं कान्तिहीन, पुरुषार्थहीन और उद्देश्यरहित युवक दिखलायी पड़ते है। जहां राम-कृष्ण ने जन्म लिया, जहां बुद्ध, शङ्कराचार्य, महावीर, जैसे महात्मा हुए, जहां भगवान शङ्कर, सनत, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन, शुक्राचार्य, परशुराम, दत्तात्रेय, शुक्र, वामदेव, पभदेव, भारद्वाज, चीर हनुमान तथा भीम पितामह जैसे पराक्रमी ब्रह्माचारी हो गये और जहाँ के राजाओंने विभिन्न देशोंपर पराक्रम दिखलाया, आज वही
देश निवींज-सा क्यों है ? भाइयो! देशवासियो! चेतो! सोचो! हमारा जीवन दवाइयों और लाल-पीली बोतलों पर क्यों टिका हुआ है ?

   उसका कारण यह है, कि हम आज ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर रहे हैं। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते ही हम भूल जाते हैं कि गृहस्थाश्रम के नियमों का पालन, सुखकर जीवन, मनुष्य जीवन के कर्तव्यों की पूर्ति  तथा योग्य सन्तान की उत्पत्तित भी प्राप्त
हो सकती है, जब हम वीर्यकी रक्षा करें। यदि स्त्री और पुरुष अपने रज और वीर्यकी रक्षा नहीं करते तो निश्चय ही भयङ्कर विनाश अट्टहास करता हुआ हमें निगल जाने को खड़ा हुआ है। सम्भल जाओ! इस विपाक्त नींदसे जागो! होश में आओ! हम क्या कर रहे हैं, कहां जा रहे हैं !

     दोषेण तीयो विषयः कृष्णः सर्प विपादपि।
    विष निहन्ति भोक्तारं द्रप्टारं चक्षपाप्यहम् ॥

   विषयका विष काले सांप से भी भयानक है। हमारी इस दुर्दशा का कारण यही विषय-वासना ही है। यदि आज हम इन्द्रियों को अपने वश में कर रखते तो निश्चित था, कि यह दुर्दशा कदापि न होती। बेकारी, आत्महत्या, रोग, क्लेश आदि सभी का कारण हमारी वीर्यहीनता ही है। भारत में जहां सदाचार की विश्वविजयी पताका लहराती थी और जो जन शेष मानव-समाज को इसकी शिक्षा दिया करते थे, आज वे पददलित हो रहे हैं।

   'मरणं विन्दुपातेन जीवनं विन्दु धारणात् ।' यानी
वीर्यरक्षा ही जीवन और वीर्यका नाश होना ही मृत्युका ग्रास होना है। वीर्यहीन होना मृत्यु है, तो फिर उस अवस्था में उसे किसी भी कार्य में सफलता कैसी ? और यदि जन्म लेकर मरना ही है, तो फिर मनुष्य तन की आवश्यकता ही क्या ? क्या इस प्रकार सुन्दर और सुडौल शरीर, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का समावेश मानव जाति को इसलिये प्राप्त है, कि वह अन्य कीट-पतंगों की भांति नष्ट हो जाये। मनुष्य जीवन की सफलता इन्हीं धार्मिक एवं आर्थिक कर्तव्यों में है। लेकिन 'मरणं विन्दुपातेन्' वीर्यहीनता ही मृत्यु है। वीर्यरक्षा न की गयी तो फिर इन कर्तव्यों की पूर्ति कौन करेगा! अक्सर कुछ लोग कहा करते हैं कि शरीर तो नश्वर है, उसमें समय नष्ट कौन करे। यह तो अन्तर्यामी को धोखा देना है, क्योंकि; यदि शरीर-रक्षा के बगैर ही ब्रह्म की प्राप्ति एवं जीवन की सफलता सुलभ होती तो मनुष्य तन क्यों मिलता? यह तो भ्रम है, अज्ञानान्धकार है। इसी प्रकार के अज्ञानान्धकार में हम सर्वस्व खो बैठे। मानव-जीवन के उद्देश्य को भूल बैठे। यदि आज भारतवर्ष और भारतीय समस्त विश्व को ज्ञान देते, उन पर आच्छादित तमको प्रकाश द्वारा भिन्न-भिन्न कर सकते तो विश्व की इतनी दुर्दशा क्यों होती ? किन्तु भारतीय स्वयं इस महामन्त्र को, इस मृत्युञ्जय क्रिया एवं मनुष्य जीवन के उद्देश्यों को भुलाये बैठे हैं। आज हम जिस तेजी से पतन के गहरे गर्तकी ओर अग्रसर हो रहे हैं, उससे क्या कभी हम अपना या मानव जाति का कल्याण कर
सकते हैं।

   यजुर्वेदका उद्धरण है :--
   
    तदेव शुक तद्ब्रह्म सा श्रापः स प्रजापतिः ।

   सारांश यह कि वीर्य, ब्रह्म, जीव तथा सृष्टिकर्ता में कोई अन्तर ही नहीं। 'जीवनं वीर्य धारणात्'। यानी वीर्यरक्षा ही जीवन है। वीर्य ही शक्ति है। वीर्य ही ब्रह्म है। फिर हमारा शरीर वीर्य धारण क्यों करे और शक्ति उसी पर आधारित क्यों हैं ? क्योंकि शरीर में परमात्मा का वास है। प्रकृति ब्रह्ममय है । आप वीर्यक्षीण होकर उस ब्रह्म को धोखा देते हैं और शरीर को नष्ट कर प्रकृति की अवहेलना करते हैं। परिणाम ? हमारा पतन । हमारे प्राचीन ग्रन्थों द्वारा बतलाये नियमों की अज्ञानता और ज्ञान रहते हुए भी उसकी अवज्ञा। परिणाम प्रत्यक्ष है। इसलिये कहा गया है कि- 'न तपस्तप इत्याहुर्ब्रह्मचर्य तपोत्तमा ।' अर्थात् सर्वोत्तम तप ब्रह्मचर्य है। आप आज के या पिछली शताब्दियों के किसी महापुरुष का जीवन ले लीजिये। यह निश्चित है, कि ब्रह्मचर्य का धारण करना ही उसके महापुरुष होने का कारण है। तारीफ तो यह है, कि
जब एक साधारण व्यक्ति को ज्ञान आता है तो सर्वप्रथम उसका ध्यान वीर्य रक्षा की ओर जाता है।

   गृहास्थाश्रम सभी आश्रमों का आश्रयदाता है। मनुष्य जीवन के उच्चतम आदर्श यहीं कार्यान्वित् होते हैं। २५ वर्ष तक ब्रह्मचर्य धारण कर लेने पर गृहस्थाश्रम में मनुष्य के प्रवेश करने की व्यवस्था की गयी है। अतः सच्चे गृहस्थ बनने के लिये सच्चा ब्रह्मचारी होना आवश्यक है। शारीरिक और मानसिक शक्ति होने पर ही गृहस्थी के कार्य किये जा सकते हैं और उत्तम वीर्य होने पर ही योग्य और
उत्तम सन्तान हो सकती है। बल, बुद्धि, ज्ञान, विद्या
आदि होने पर ही वह अपना और अपने परिवार का कल्याण कर सकता है।

   बहुधा लोगों की यह भ्रमात्मक धारणा होती है, कि ब्रह्मचारी वही हो सकता है, जो सांसारिक जीवन का त्याग कर दे। इसी सिलसिले में पहुधा यह प्रश्न उठता है कि फिर सृष्टि की रक्षा कौन करेगा। लेकिन वीर्यरक्षा द्वारा ही सन्तान पैदा हो सकती है। रोग और अकाल मृत्यु के शिकार होने वाली सन्तान माता-पिता दोनों को छोड़ जाती है और वे बराबर सन्तान की कामना लिये बैठे रहते हैं। वे ही यदि गृहस्थाश्रम में ब्रह्मचर्य का पालन करें तो -'कोति भारः समर्थानां' सामर्थ्यवान के लिये कौन-सा काम मुश्किल है। यदि हम अपनी इन्द्रियों को वश में कर लें, तो योग्य सन्तान पैदा करने और उन्हें आदर्श पुरुष बनाने में बाधा क्या है।

   सदाचारो भारतकी यह दुर्दशा। शोक! हा शोक !! देश में वीर्यपात का प्रबल तूफान वह रहा है। लोग उसके तीव्र झकोरों में उड़ते जा रहे हैं। यह अमूल्य प्राण, यह अनुपम शरीर और इन्द्रियों का दुरुपयोग हो रहा है। आओ ? आज हम मिलकर फिर सदाचारी बनें । गृहस्थाश्रम में रहकर ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करें। एक बार फिर वही वीर, ऐश्वर्यवान् और विश्वगुरु भारत का यश कोने-कोने में छा जाये।

ब्रह्मचर्य की आवश्यकता क्यों है ब्रह्मचर्य की आवश्यकता क्यों है Reviewed by Tarun Baveja on October 31, 2020 Rating: 5

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