दीर्घायुका प्रशस्त मार्ग
विभिन्न देशोंके विभिन्न पत्रोंमें कभी-कभी कुछ विचित्र बातें प्रकाशित की जाती हैं ताकि पाठकोंका मनोरञ्जन हो और शान बढ़ता जाये। उन विचित्रताओंमें कभी-कभी यह प्रसंग भी आता है कि १०० वर्षकी आयु अमुक देशके अमुक व्यक्तिका ६६ वर्ष में देहान्त होगया। ६६ वर्षकी आयुमें मरना संसारमें एक विचित्र घटना है। भारतमें लोग यह कहते हुए पाये जाते हैं कि आजकल तो ५०-६० वर्षके वाद जीवित रहना दुःख ही भोगना है। इस कथनमें कितना दर्द छिपा है। ५० वर्षकी आयुमें ही मृत्युकी आशंका करनेवाले क्या कभी इस बात पर भी विचार करते हैं कि हमारे सांसारिक जीवनके कर्तव्योंका जो विभाजन किया गया है उसमें यह भाशा की गई है कि प्रत्येक मनुष्य कमसे कम १०० वर्ष जिये।
ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासकी अवधि २५-२५ वर्प की रखी गई है, लेकिन अवधि सदैव कमसे कम समयकी रखी जाती है। इससे यह स्पष्ट है जिन पूर्वजोंने हमारे लिये इन नियमोंको प्राचीन व्यवस्था बनाया था उन्हें यह ज्ञान था कि मनुज्यकी कमसे कम आयु १०० वर्षकी होगी। और आज २५ वर्षमें मनुष्य विभिन्न रोगोंका शिकार होकर अपना आगेका जीवन बिल्कुल दुःखद बना देता है ; जब कि प्राचीन समयमें इस अवधि तक उसकी बाल्यावस्था मानी जाती थी और युवक वहीं होता था जिसने अपने २५ वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम में व्यतीत कर उन सब गुणोंको प्राप्त कर लिया हो जो कि गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेके लिये आवश्यक है जिनकी चर्वा हम पहले कर चुके हैं।
इसप्रकार गृहस्थाश्रममें मनुष्य २५ वर्षतक अपनाजीवन व्यतीत करता था और इसी प्रकार फ़िर २५ वर्षवानप्रस्थाश्रममें और फिर संन्यास। हिन्दू ग्रन्थोंमें ऐसे प्रसङ्ग आये हैं कि संन्यास लेनेके बाद अमुक व्यक्ति सैकड़ों वर्ष तक जीवित रहकर मानव जातिके कल्याणार्थ उपदेश देता रहा । उस समय १०० वर्ष तक जीवित रहना प्रत्येक मनुष्यका जन्मसिद्ध अधिकार था और इससे अधिक समय तक जीवित रहना तो उसके हाथमें था। वे अपने धर्म-कर्म अथवा अपनी इच्छा द्वारा सैकड़ों वर्ष जीवित रह सकते थे। संन्यासाश्रममें स्वेच्छासे मरने तथा समाधिस्थ होनेकी कथाए पायी जाती हैं जिससे यह प्रकट होता है कि लोग अपना कर्तव्य पूर्णरूपेण निभा कर ही मृत्युको प्राप्त होते थे। फिर ऐसे महापुरुषोंके वंशज हम ५० वर्षकी आयुको भी अधिक माने यह क्या हमारी शोचनीय अवस्थाका ज्वलन्त उदाहरण नहीं है ? भारत और भारतीयोंको इस वातका गर्व है कि बड़े-बड़े गौरवशाली हमारी शोचनीय देश, जो कि प्राचीन समयमें वैभवपूर्ण
थे, आज मिट गये और उनका नामोनिशान भी नहीं है। उनका गौरव इतिहासकी पुस्तकोंमें ही पायाजाता है।
लेकिन भारत-रामकृष्णका भारतप्राचीन ऋपियोंका भारत आज भी अपनी प्राचीन संस्कृतिको अपने जर्जर शरीरमें लपेटे सर ऊँचा किये, समस्त संसारको वतला रहा है कि हम अमर हैं हमारे धर्म और संस्कृति पर किसीका सिक्का नहीं जम सकता। पाश्चात्य सभ्यता और उन्नतिके साधनके ठुकरानेकी आवाज सर्वप्रथम आज भारतसे ही आरही है और वर्तअवस्था मान अशान्ति इस यातका प्रमाण है कि आधुनिक सभ्यता मानव-समाजके लिये हितकर नहीं वरन् उसका संहार करनेके लिये है। इस पतन, इस दुःखद् जीवन और अल्पायुका कारण यहो है कि हम भारतमें रहकर भारतके जल-वायु और संस्कृतिके प्रतिकूल जा रहे हैं।
हम प्रकृति विरोधी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। फिर प्रकृति क्या हमें क्षमा करेगी और क्या हम दण्डके भागी नहीं होंगे? प्रकृतिकी रचना मानव जातिके कल्याणके लिये है और इसीलिये वह कभी अपना नियम भंग नहीं करती और जो उसे भंग करनेकी
चेष्टा करता है उसे वह दण्ड अवश्य देती है। यदि हम शान्ति और ध्यानपूर्वक विचार करें तो हम देखेंगे कि हमारी दुरवस्था और पतनका कारण प्रकृतिजन्य नियमोंकी अवहेलना है और हम उसीके दण्ड स्वरूप इस अवस्थाको प्राप्त हो रहे हैं।
हमारा आवारहीन जीवन कैसा दुःखद है यह बढ़ते हुए रोगों और अकालमृत्युसे मालूम हो जाता है। हमारे आहार-विहार तथा रहन-सहन में आज कोई आचार नहींकोई नियम नहीं। जीवनका उद्देश्य ही आचारहीन जीवन जव लोगोंको मालूम नहीं तो फिर खाना, नियमित जीवनकी कौन कहे। जहां ऐसे लोगोंका बहुमत है जो खूब खाने और आनन्द उड़ानेमें ही अपने जीवनकी सफलता समझते हैं वहां सुख कैसे मिलेगा। ऐशोआरामको मानव जीवनका उद्देश्य समझना तो उन घोड़ोंका जीवन है जो केवल इसीलिये खूब खिलाये-पिलाये जाते हैं कि उनके द्वारा प्रदर्शन हो ।
मनुष्य जीवन भी यदि अच्छा अच्छा पहनना तथा शरीरको अप्राकृतिक कर्मों द्वारा क्षीण करना हो तो फिर दीर्घायु और स्वस्थ जीवन कैसे मिलेगा। आज हम अपने जीवनका प्रत्येक कार्य प्रकृति विरुद्ध कर रहे हैं। कोई भी कार्य ऐसा न रहा जिससे मानव धर्मकी रक्षा होती हो। दीर्घायुकी प्राप्तिके लिये सर्वप्रथम आवश्यकता यह है कि हम अपना जीवन आचारयुक्त और नियमित बनायें और प्रकृतिके बनाये नियमोंके अनुसार अपना प्रत्येक कार्य वनायें। भोजनमें सात्विकता नहीं, स्त्री सहवासमें प्रकृति धर्मका पालन नहीं, वचनमें सत्यता और दृढ़ता नहीं, समयका अपव्यय, कारवारमें सत्य और ईमानदारी नहीं, विचारोंमें अश्लीलता, स्त्री जातिका अनादर, निरुद्द श्य वीर्यपात, सन्तानको उत्तम बनानेकी चेष्टा नहीं।
ये सव अल्पायुका प्रकोप असंख्य बूराइयां हममें घुस गयी हैं जिनसे हमारी आयुघटती जाती है और हम यह शिकायत करते हैं कि आजकल ५० वर्षके बाद जीना दुःखद है। यदि यही अवस्था बनी रही तो ५० वर्ष भी जीना कठिन हो जायेगा। विवार कीजिये कि किस प्रकार धीरे-धीरे देशमें अकाल मृत्यु बढ़ रही है। हमारे पूर्वज प्रकृति धर्मका पालन कर स्वेच्छासे मृत्युको प्राप्त होते थे। अभी २५ वर्ष पहले भी यदा-कदा देखनेमें आता था कि लोग १०० वर्पकी उम्रतक सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे, लेकिन अव १ इस अकाल मृत्युका कारण यही है कि हम
प्रकृतिके रचित नियमोंकी अवज्ञा कर अपने आप न चाहते हुए भी मृत्युको पास बुलाते हैं।
वोर्यरक्षा द्वारा मनुष्य सर्वत्र विजयी होता है और उसके लिये यह आवश्यक है कि उसमें आत्मसंयम हो। आत्मसंयम तभी सफल होगा जब सभी इन्द्रियोंपर पूरा अधिकार हो तथा प्राकृतिक धर्मआत्मसंयमकी का पालन किया जाये। शास्त्र कहिये अथवा प्रकृति, लभी इस. बातकी आवश्यकता दिखलाते हैं कि व्यर्थ में वीर्यपात महापातक है। हिन्दू शास्त्रमें तो इसको ब्रह्महत्या बतलाया गया है आवश्यकता और प्रकृति जिस रूपमें उसके लिये दण्ड देती है वह हमारे वर्तमान जीवन और अकाल मृत्युसे प्रत्यक्ष है। इतना दण्ड पाकर भी हम न चेतें तो निश्चय ही हमारे सामने सर्वनाश विकराल रूपमें खड़ा है और वर्तमान अवस्था प्रमाणित करती है कि हम दिन-ब-दिन अल्पायुको प्राप्त होते
जायेंगे। यदि १०० वर्ष जीना है और सुखपूर्वक जीना है तो प्रकृतिके नियम भङ्ग न किये जायें और सभी कार्य तदनुसार ही हों। विल्ली-कुत्तेकी मोत मरना किसको प्रिय है ? मनुष्य जीवनका उद्देश्य विश्वका कल्याण करनेके लिये है और तभी हो सकता है जब मनुष्यका व्यक्तिगत तथा पारिवारिक जीवन सुखमय हो।
प्रकृतिमाता-पिता और के नियमोंके विरुद्ध, चलकर कभी भी सुख नहीं मिल सकता और हम क्रमशः क्षीण होते जायेंगे, अपना पाप सन्तानको देते जायेंगे और साथ ही यह शिकायत करेंगे कि आजकलके नवयुवक और नवयुवतियां सदाचारी जीवन व्यतीत नहीं करते और धर्मके विरुद्ध आचरण रखते हैं, खान-पान और रहन-सहनमें दोप रखते हैं। यदि इसका कारण देखा जाय तो पहले माता-पिता ही दोपके भागी होंगे अतः यह सन्तान माता-पिताका यह सर्वोच्च कर्तव्य हो जाता है कि वे बच्चोंका पालन-पोषण नियमित और प्राकृतिक ढङ्गपर करें। इसके लिये यह जरूरी है कि वे स्वयं अपना जीवन
सुधारें।
तात्पर्य यह कि यदि मनुष्य आहार, विहार तथा सभी अन्य कार्यों में प्रकृति और स्वास्थ्यके नियमोंका पालन करे तो कोई कारण नहीं कि वह १०० वर्ष तो साधारणतः
जिये ही, साथ ही अपने आत्मवल तथा सद्कार्योंसे मनोवांछित फल पाये। वहुधा शास्त्रोंके वताये नियमोंमें युवक विश्वास नहीं रखते । किन्तु यदि आधुनिक साधनों द्वारा कृत अनुसन्धानोंका अध्ययन करें तो उन्हें मालूम हो जायेगा कि दीर्घजीवी मनुष्य तभी हो सकता है जब उसका जीवन सदाचारपूर्ण हो। अनियमित आहार-विहारकी बुराई
जितनी आजकल पाश्चात्य विद्वान करते हैं उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतके प्राचीन ग्रन्थोंमें बतलाये गये नियम मानव जातिके कल्याणके लिये हैं, अतः उनका पालन होना चाहिये।

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