सौ वर्ष जीने की इच्छा करें
उपनिषद् का प्रसिद्ध सूक्त हैकुर्वन्तेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्
अर्थात् हम कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा करें। मनुष्य के लिए इस प्रकार की इच्छा करना स्वाभाविक है। प्राचीन समय में मनुष्य की सामान्य आयु सौ वर्ष की होती थी। प्रथम पच्चीस वर्ष में वह बह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए ज्ञान प्राप्त करता था।
परा विद्या-(आध्यात्मिक ज्ञान) और अपरा विद्या (सांसारिक ज्ञान) को प्राप्त कर वह अपने जीवन की नींव को मजबूत करता था। इसी के साथ वह इस काल खण्ड में जीवन के चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त करता था । जीवन का पहला और आधारभूत पुरुषार्थ धर्म है, धर्म किसी उपासना पद्धति का नाम नहीं है, अपितु करणीय कर्तव्यों का नाम है । वैशेषिक शास्त्र के प्रवर्तक कणाद मुनि ने कहा है-यतोऽभ्दयनिः श्रेयससिद्धः स धर्मः अर्थात् जिससे सांसारिक उन्नति और आध्यात्मिक ज्ञान की सिद्धि या आत्मकल्याण की प्राप्ति हो, वह धर्म है । धर्म के अन्तर्गत सभी
प्रकार के करने योग्य कर्तव्य शामिल हैं। सच्चरित्रता नैतिक गुण और जीवन के महान्सि द्धांतों का ज्ञान व उनको जीवन में उतारना-वैदिक ऋषियों की धर्म की परिभाषा है ।
इन सब का परिणाम होता था कि विद्या प्राप्त करने के बाद जब व्यक्ति जीवन-क्षेत्र में प्रवेश करता था तो उसका सुगठित शरीर, उज्जवल चरित्र और ब्रह्मतेज से दकमता मुख-मण्डल देवताओं के लिए भी ईर्या का विषय होता था। यह था वह सुदृढ़ आधार
जिस पर जीवन का भव्य भवन खड़ा होता था-ऐसा आधार जो ग्रहस्थ जीवन की धन कमाने और काम (अर्थ व काम के पुरुपार्थ) सम्बन्धी क्रियाओं को सिद्ध करने में सर्वथा समर्थ था। धर्म का आधार होने के कारण धन कमाना और कामेच्छा की
पूति यज्ञ के समान पवित्र थी।
इस प्रकार धर्म की रस्सी से बन्धे अर्थ और काम भी व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाते थे । अर्थ और काम पर संयम और मर्यायाओं का पहरा था । इसलिए 'मातृवत परदारेषु' अन्य स्त्रियों को माता के समान् समझना, जैसे नीति वाक्यों का पालन समाज में होता था । यदि इन सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ने का दुस्साहस किसी 'असुर के मन में उपजता भी तो समाज की सम्पूर्ण शक्ति उस आसुरी वृत्ति को नष्ट करके ही दम लेती थी।
जीवन का स्वर्ग
पुरुषार्थ चतुष्ट्य की प्राप्ति जीवन का उद्देश्य थी। यह मनुष्य-जीवन का सबसे बड़ा स्वर्ग था । धर्म के रूप में कर्तव्य, सदाचार और सच्चरित्रता की अक्षय पूंजी उसके पास होती थी, वित्तषणा (धन की इच्छा) और पुत्रेषणा (कामेच्छा), की पूर्ति के लिए गृहस्थाश्रम की व्यवस्था थी। समाज सेवा के लिए वानप्रस्थ और..
आत्म-कल्याण के लिए सन्यास आश्रम की योजना थी। गृहस्थी होते हुए भी विदेह (राजाजनक) और राजा होते हुए भी सन्यासी बने रहने का उच्चादर्श सभी प्रकार के सांसारिक सुखों, मानसिन आनन्द और आत्मिक शान्ति के द्वार खुले रखता था ।
मनुष्य को और क्या चाहिये था। स्वस्थ शरीर, दीर्घायु, मानसिक प्रसन्ननता, आत्मिक शान्ति-सभी कुछ तो था उसके पास । तन-भूखा-परिस्थिति वदलती गई। आक्रान्ताओं ने हमारे भौतिक सुखों को ही नहीं लूटा, हमारी जीवन-पद्धति को भी बदल डाला-उस जीवन-पद्धति को जो हमारी अनुपम निधि थी । परिणामस्वरूप आज बहाँ का हर व्यक्ति तन से भूखा है-गरीब है वह भी और अमीर है वह भी । गरीब साधन विहीन है, इसलिए और
अमीर इसलिए कि वह दवाओं के सहारे खाता है और दवाओं के सहारे ही उसे नींद आती हैं।
प्रकृति माता के ये दो अनोखे वरदान-भूख और नींद दोनों उससे किनारा कर चुके हैं। मन रीता-दया और प्रेम का अक्षय भण्डार है मनुष्य । करुणा और ममता की प्रतिमूर्ति है नारी । उससे हँसी चुराकर ही फूलों ने हँसना सीखा है । किन्तु. आज वह क्षण-क्षण रीत रहा है। उसकी संवेदनाएँ मरती जा रही हैं, प्रेम की सरिता सूखती जा रही है । आज कुछ नहीं है उसके पास देने को-न दया, न प्रम और न हंसी । अर्थात् भावनाशून्य यन्त्र-मानव बनकर रह गया है वह । आत्मा प्यासी-पानी विच मीन प्यासी मोहि सुनि-सुनि आवत हाँसी' कबीर की यह उक्ति आज खरी सिद्ध हो रही है । कस्तूरिया मृग की भांति वह इधर-उधर भटक रहा है ।
'वह कौन है' इस बात को वह पूरी तरह भूल चुका है । 'अहम् ब्रह्मास्मि' । अर्थात् 'मैं साक्षात ब्रह्म हूं' इस प्रकार का जीवन-सत्य जिस देश की पूजी रहा हो, उस देश का मनुष्यधन को, भौतिक सुखों का या विषय-वासनाओं को जीवन का एक मात्र सत्य समझ बैठे तो यह माया की चुम्बकीय शक्ति का प्रभाव ही माना जायेगा-जैसा कि कबीर ने कहा था-माया महा ठगिनि हम जानी । “ईश्वर अंश जीव अविनासी" होकर भी वह आज रेगिस्तान में चमकते रेतकणों को पानी समझने की भूल कर रहा है। सम्भवतः इसीलिए वह प्यासा है । वह भूल गया है कि भौतिक सुख व सांसारिक
आकर्षण तो साधन मात्र हैं- इस जीवन का उद्देश्य तो शारीरिकर वास्थ्य, मानसिक प्रसन्नता और आत्मिक शांति की प्राप्ति है। इनको प्राप्त करके ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है ।
स्वास्थ्य और सुख-शान्ति के लिए उसे इस सत्य को जीवन में उतारना होगा। स्वस्थ तन-मन और आत्म शान्ति का मार्ग
हमारे तत्वदशियों और आयुर्वेदाचार्यों ने केवल जीवन के उद्देश्य ही निर्धारित नहीं किये थे, उनको प्राप्त करने के सुगम उपाय भी बताये थे । आयुर्वेद उन्हीं उपायों में से एक श्रेष्ठ उपाय है । आयुर्वेद दो शब्दों से मिलकर बना है-आयुः + वेद । आयु का अर्थ-'अय् गतौ' धातु से आयु शब्द की सिद्धि होती है-अर्थात्
जो रात-दिन अबाध गति से चलती रहे उसे आयु कहते हैं ।
चरक सूत्र अ. 1 के
अनुसारशरीरेन्द्रियसत्वात्मसंयोगो धारि जीवितम् ।
नित्यगश्चानुवन्धश्च पर्यायैरायुरुच्यते ॥
अर्थात् शरीर, इन्द्रियों, सत्व (मन) और आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं । इस प्रकार गर्भ से लेकर मृत्यु पूर्व तक की मनुष्य की अवस्था का नाम आयु है । दूसरे शब्दों में जीवन ही आयु है ।
दूसरा शब्द वेद है । वेद का अर्थ-समाधि अवस्था में ऋषि-मुनियों द्वारा प्राप्त किया गया विशिष्ट ज्ञान । इस प्रकार आयुर्वेद का अर्थ हुआ-समाधि-अवस्था में आयु या जीवन के विषय में ऋषि-मुनियों द्वारा प्राप्त किया विशिष्ट ज्ञान । आयु के विषय में ज्ञान कराने वाले वेद को अर्थात् आयुर्वेद को वेदज्ञों ने पुण्यतम माना हैं क्योंकि यह इहलोक और परलोक, दोनों के लिए कल्याणकारी है
तस्यायुषः पुण्यतमो वेदो वेदविदा मतः ।
वक्ष्यते यन्मनुष्याणां लोकयोरुभयोहितः ।। च. सू. अ. 1
चरकाचार्य ने च. सू. अ. 1 में लिखा है कि हितायु, अहितायु सुखायु तथा दुःखायुरूपी इस चतुर्विध आयु का जिस शास्त्र में वर्णन हो, उस आयु के हित और अहित कारक पदार्थों का जहां वर्णन किया गया हो, तथा आयु का स्वरूप व जीवात्मा और परमात्मा का जहां विवेचन किया गया हो, उसे आयुर्वेद कहते हैं
हिताहितं सुखंदुःखमायुस्तस्य हिताहितम् ।
मानश्च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः सः उच्यते ।।
सुश्रुताचार्य के अनुसार-"आयुरस्मिन् विद्यतेऽनेन वा आयुर्विदन्तीत्यायुर्वेदः"
अर्थात् जिस शास्त्र में आयु का वर्णन तथा आयु प्राप्ति के उपाय हों उसे आयुर्वेद कहते हैं।
भाव प्रकाश के अनुसार आयु के हित और अहित का चिन्तन और रोगों के निदान तथा चिकित्सा वर्णन करने वाले शास्त्र को आयुर्वेद कहते हैं । इस प्रकार आयुर्वेद का क्षेत्र शरीर, इद्रियां, मन, आत्मा, परमात्मा रोग एवं उनकी चिकित्सा - तात्पर्य यह कि मनुष्य-जीवन के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक आदि सभी क्षेत्रों से यह सम्बन्धित है । आधुनिक चिकित्सा शास्त्र भी धीरेधीरे अपनी रोगों और उनकी चिकित्सा के दायरे से निकलकर आयुर्वेद की तरह सम्पूर्ण जीवन की ओर अपने कदम बढ़ा रहा है संक्षेप में कहें तो आयुर्वेद सम्पूर्ण जीवन का विशिष्ट ज्ञान है।
शरीर पालन महान धर्म शास्त्र का कथन है
सर्वमन्यत्परित्यज्य शरीरमनुपालयेत ।
तदभावे हि भावनां सर्वाभावः शरीरिणाम् ।।
अर्थात् सव कामों को छोड़कर शरीर की रक्षा करना मानव मात्र का धर्म है, क्योंकि देह का नाश हो जाने पर सब पदार्थ उसके लिए निरर्थक हैं। मनुष्य के शारीरिक या मानसिक रूप से रोगी हो जाने पर भी सांसारिक पदार्थों का कोई मूल्य नहीं रहा जाता । कहा भी गया है"शरीरमाद्य खलु धर्म साधनम्" अथवा
धर्मार्थकाम मोक्षाणामारोग्यं मूखमुत्तमम् ॥
अर्थात् शरीर ही धर्म का साधन है। केवल धर्म ही नहीं अपितु अर्थ, कर्म भोगविलास, मोक्ष आदि सब की प्राप्ति का एक मात्र साधन स्वस्थ शरीर ही है। अतः बुद्धिमान पुरुष इसे स्वस्थ रखने में कभी प्रमाद नहीं करते। तो आइये उपनिषद् के उक्त सूक्त "हम स्वस्थ और निरोग रहकर कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा करें, को अपने जीवन में चरितार्थ करें।
स्वस्थ रहते हुए सौ वर्ष तक कैसे जिए
Reviewed by Tarun Baveja
on
October 31, 2020
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