"दुग्धाहार"
ऋषियों का भोजन-दूध मर्त्यलोक का अमृत है। "अमृतं क्षीर भोजनम"। प्रकृति में शिशु के उत्पन्न होने से वृद्ध होकर मरने तक दूध मनुष्य के काम आता है। प्रकृति ने दूध में सबसे संतुलित आहार का क्रम रखा है, जिससे बच्चा खाकर पूर्ण परिपुष्ट और स्वस्थ बनता है। दूध मनुष्य की प्राकृतिक पौष्टिक खुराक है। वे धन्य हैं, जिन्हें गौ दूध नियमित प्राप्त हो जाता है।
दूध से बनने वाले अन्य पदार्थ छाछ, मक्खन, दही, पनीर इत्यादि आदर्श भोजन सब गुणों से पूर्ण हैं। दूध पृथ्वी का अमृत है। दूध का भोजन फलाहार से घटिया किंतु अनाहार से श्रेष्ठ आहार है। धारोष्ण और छना हुआ दूध सर्वोत्कृष्ट होता है। इसका मुख्य लाभ यह है, कि यह शरीर के थके हुए कोषों को नवशक्ति प्रदान करता है, वीर्य तत्काल बढ़ता है, पेट हल्का रहता है और मन शांत एवं प्रसन्न रहता है। मुंह में रखकर स्वाद के साथ दूध पीना नहीं खाना चाहिए। खाने का अभिप्राय यह है, कि धीरे-धीरे संतोष और स्वाद के साथ मजा ले लेकर पिएं। हिंदू शास्त्रों के अनुसार यह हमारा पवित्रतम आहार है। इसके पान करने से बुद्धि भी निःसंदेह सात्विक बन जाती है, आलस्य नहीं आता, मन शांत और पवित्र बना रहता है।
खालिस दूध में जल ८८ प्रतिशत, दुग्धशर्करा ४.५ प्रतिशत, खनिज-क्षार ०.७ प्रतिशत होना चाहिए। कम से कम प्रति व्यक्ति की खुराक में पाव भर दूध प्रतिदिन रहना चाहिए।
दूध के पौष्टिक रूपों में दही और मठा का विशेष स्थान है। दही भूलोक का अमृत है। इसमें जो मक्खन रहता है, वह सुपाच्य और स्निग्धता रखने वाला है।
छाछ के लिए भी अमृत की उपमा का प्रयोग किया गया है - "यथा सुराणाममृतं हिताय तथा नराणामिह तक्रमाहः" जैसे देवताओं के लिए अमृत है, मनुष्य के लिए मठा हितकारी हैं। मठा सेवन करने वाला मनुष्य कभी रोगों के जाल में नहीं फँसता, रोगी का रोग दूर हो जाता है, मठा से
रोग पुनः उत्पन्न नहीं होता। मठा पाँच प्रकार से बनाया जाता है --
(१) घोल- मलाई के सहित बिना जल डाले जो दही मथा जाता है, ऐसे मढे को द्योल कहते हैं। इसमें शक्कर मिलाकर खाने से वात पित्त का नाश करता है और आनंद देता है।
(२) मथित- मथित और द्योल में इतना ही अंतर है, कि मथित में मलाई पृथक कर लेते हैं। यह कफ और पित्त का नाश करता है।
(३) तक्र- जिसमें मथते समय दही का चौथाई भाग पानी डाल दिया जाए। यह मल को रोकने वाला, कसैला खट्टा, पाक में मधुर और हल्का है। उष्ण वीर्य, अग्नि दीपक, वीर्य वर्धक, पुष्टिकारक और वात नाशक है।
(४) उदश्वित- जिसमें दही का आधा भाग जल मिले। यह कफ कारक, बल बढ़ाने वाला और आंव का नाश करता है।
(५) लच्छिका- (छाछ) जिसमें मलाई निकल ली गई हो और मथकर बे हिसाब जल मिलाया जाए। यह शीतल, हल्का, पित्त, प्यासक्षऔर थकावट को दूर करता है, वायु नाशक है ।
बकरी के दूध का मठा संग्रहणी, वायुगोला, बवासीर, शूल और पांडु रोग को नष्ट करता है। यह हल्का और चिकना होता है।
चरक में लिखा है, कि तक्र दीपन, ग्राही और हल्का होने के कारण ग्रहणी रोग में हितकर है। पाक में होने के कारण पित्त प्रकोप से बचाता है। मधुर, अम्ल और चिकना होने के कारण वायु नाशक है। काषाय और उष्ण होने से कफ में हितकर है।
प्रो० ड्यूकले और मैशिनी काफ आदि प्रसिद्ध जंतुशास्त्र विशेषज्ञों का मत है, कि मढे में लैक्टिक जंतु रहते हैं, जो शरीर के विषैले कीड़ों का नाश करते हैं और हमारे लिए विशेष उपकारी होते हैं।
ऋतुओं के अनुसार मटे का सेवन निम्नलिखित वस्तुओं के साथ करना अधिक लाभदायक होता है। हेमंत, शिशिर और वर्षा ऋतु में मट्ठा या दही खाना उत्तम है, किंतु शरद, बसंत और गर्मी में प्रायः यह हानिकारक है। दही या मट्ठा कफ कारक है और साथ ही पित्त को भी बढ़ाता है। इस कारण बसंत में हानिकारक होता है, क्योंकि; इस ऋतु में तो कफ स्वयं ही बढ़ जाता है और रोग उत्पन्न करता है। ग्रीष्म और शरद में पित्त कुपित हो जाता है, इस कारण पित्त गुण वाला दही इन ऋतुओं में
हानिकारक है।
मट्ठा क्षुधा को बढ़ाता है, नेत्रों की पीड़ा को शांत करता है और जीवनी शक्ति को बढ़ाता है। शरीर के मांस और रक्त की कमी को दूर करता है। कफ और वायु को शांत करता है।

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