शहर के निवासी अधिकतर गेहूँ की रोटी खाते हैं। कभी-कभी शौक से बाजरा, ज्वार, चने की रोटी खाना पसन्द करते हैं। गाँव के लोगों को गेहूँ कम मिलता है, मोटा अनाज ही खाते हैं ।
भारतवर्ष में अनादि काल से खेती करने का तरीका प्राकृतिक ही रहा है। कृषि के साथ गो पालन की प्रथा भारतवर्ष की बहुत पुरानी रही है। भारतवासी यदि पृथ्वी माता कहते हैं, तो गौ माता भी कहते हैं। इन दो माताओं का आपस में कितना गहरा सम्बन्ध है। श्री भगवान कृष्ण ने गो पालन के कार्य को ही लेकर एक व्यापक आन्दोलन माखन चोरी के रूप में प्रारम्भ किया था। किसी ने कहा है, कि मनुष्य गो वंश के बिना नहीं रह सकता, गौ मनुष्य के बिना भी रह सकती है।
गाय के गोबर से जो अनाज उत्पन्न होता है, वही स्वास्थ्य के लिये उपयोगी होता है। आज कल कृषि में जिन रसायनिक खादों का प्रयोग अधिक अन्नोत्पादन की दृष्टि से किया जा रहा है। यह रसायनिक खादों का उत्पन्न किया अनाज स्वास्थ्य के लिये स्वास्थ्यप्रद नहीं होता है। अमेरिका से आया हुआ गेहूँ, चावल खाने में वह स्वाद नहीं देता है, जो गाय के गोबर से उत्पादन अनाज से होता है ।
अनादि काल से भारतवर्ष की जमीन गोबर की खाद के कारण बेकार नहीं हुई है। रसायनिक खादों के प्रयोग से जमीन की उर्वरा शक्ति दिनों-दिन क्षीण होती जा रही है। इसलिए कृषि के साथ गौ पालन के कार्य को जोड़ना चाहिए। तभी गेहूँ आदि अनाज स्वास्थ्य के लिये स्वास्थ्यप्रद मिल सकते हैं। इस वैज्ञानिक युग में शुद्ध खाद्य पदार्थों का मिलना कठिन हो गया है। धनी बनने की आसक्ति ने खाद्य पदार्थों को बिगाड़ दिया है। धन पैदा करने के पीछे मानव इतना अंधा हो गया है, कि जीवन के अमूल्य स्वास्थ्य रूपी धन को खो रहा है। स्वास्थ्य रूपी धन के चले जाने पर धन के रहने पर भी सुख नहीं रहता है।
भारत में मनुष्य का सबसे प्रधान भोजन रोटी, चावल, दाल है। सब्जी और फलों की गिनती भोजन में नहीं है। घी, दूध केवल ताकत के लिये खाना है। इस प्रकार की विचार धाराओं में सत्य नहीं दिखता है। रोटी बनाने की जो प्रचलित प्रथाए चल रही हैं, उनमें प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धान्त के अनुसार शिक्षण की आवश्यकता है ।
"हाथ चक्की का आटा"
भारत वर्ष में घर-घर चक्की चलाने की
पुरानी प्रथा थी। जब घर में चक्की चलती थी, उस समय लोग बहुत कम बीमार पड़ते थे। जब से मशीन से अनाज पिसने लगा, तब से रोगों की वृद्धि हो गई।
बुद्धिमान वैज्ञानिकों ने इस बात को स्वीकार किया है, कि जब तक हाथ चक्की का आटा और हाथ कुटा चावल का प्रयोग नित्य के खाद्य पदार्थों में न किया जाएगा, तब तक स्वास्थ्य को उन्नति करने वाला भोजन नहीं मिलेगा।
यदि परिवार के सभी स्त्री-पुरुष १०-१५ मिनट आटा चक्की चलाने का दैनिक नियम बना लें, तो नित्य शुद्ध ताजा आटा रोटी के लिये मिल सकता है। “जो खाये वह पीसे जो पीसे वह खाये" यह सिद्धांत परिवार में चलना चाहिए। चक्की चलाना जीवन विज्ञान है, शुद्ध आटा भी मिलता है और सारे शरीर की कसरत भी होती है ।
महिलाओं के लिये चक्की चलाना, दही विलोना, धान कूटना एक विज्ञान है। वर्तमान समय में महिलाओं का श्रम रहित जीवन रोगों की उत्पत्ति का कारण है । गाँव में रहने वाली महिलाओं को रोग कम होते हैं, शहरों में अधिकतर महिलायें रोगी रहती हैं।
चक्की के चलाने से महिलाओं के गर्भाश्य में व्यायाम होता है। जो नारियां बराबर आटा चक्की चलाने का अभ्यास रखती हैं, उनकी सन्तान स्वस्थ उत्पन्न होती है। आप स्वयं विचार करें, कि मानव शरीर ९ महीने मां के गर्भ में रहता है। यदि गर्भाश्य ही खराब हो, माँ का ही स्वास्थ्य खराब हो, तो ९ महीने जिस बच्चे के शरीर का निर्माण गर्भाश्य में होता है, वह कैसे स्वस्थ रह सकेगा। बच्चों के स्वास्थ्य के लिए तथा परिवार के स्वास्थ्य के लिए एवं अपने को भी सदा स्वस्थ रखने के लिए चक्की चलाना आवश्यक है।
परिवार के प्रत्येक व्यक्ति नित्य नियम के अनुसार, यदि १५ मिनट चक्की चलावें, आधा किलो अनाज नित्य तैयार कर लें, इससे शुद्ध ताजा आटा तो मिलेगा ही, साथ ही शारीरिक व्यायाम भी हो जाजगा। कब्ज जो सभी रोगों की जड़ है, वह कभी नहीं होगा।
श्री बद्रीप्रसाद जी गुप्त एवं रणवीर सिंह जी, उरई निवासी स्वयं नित्य चक्की चलाते हैं। कब्ज और एग्जिमा जैसे रोगों से छुटकारा हो गया।
मशीन के आटे के पोषक तत्व अधिकांशतः नष्ट होते हैं। आप देखेंगे, कि मशीन का आटा कितना गर्म हो जाता है। हाथ चक्की का आटा गर्म नहीं होता है। मशीन का आटा एक दिन का १५-२० दिन खाते रहते हैं, हाथ चक्की का नित्य ताजा आटा मिलता है, जहाँ चक्की चलाने में नित्य थोड़ा परिश्रम पड़ता है। इससे सब से बड़ा लाभ यह होता है, कि हम रोगों के शिकार नहीं होते हैं। दवा और डाक्टरों के खर्च की बचत होती है।

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