भगवद गीता के अनुसार हमें किस प्रकार का भोजन करना चाहिए

गीता में योगयुक्त सुखी जीवन के लिये कहा गया है:
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।
(गीता-६/१७)

अर्थात-योग युक्त आहार(शरीर के पोषण हेतु लिये जाने वाले अन्न, जल, वायु)। विहार (शरीर के लिये आवश्यक प्रकृति का सान्निध्य)। चेष्टा (संकल्प पूर्वक मनुष्य द्वारा किये जाने वाले प्रयत्न)। कर्म (कुशलता पूर्वक किये जाने वाले क्रियाकलाप)। स्वप्न (विश्राम, सोना आदि) । जागना (चेतन अवस्था में आना ) । इनका संयोग जीवन में आने वाले दुखों का नाश कर सकता है। स्वस्थ और सुखी जीवन के इच्छुकों को अपने जीवन की इन सभी धाराओं को अनुशासित और व्यवस्थित करना होता है।
जैसे आहार शुद्ध, सुसंस्कारी और सुपाच्य होना चाहिये।
प्रकृति जिस मौसम में जो पदार्थ (अन्न, शाक, फल) पैदा करती है, वह उस मौसम के लिए प्रकृति द्वारा अनुमोदित श्रेष्ठ आहार माना जाता है। इसलिये ऋतु पदार्थों का सेवन स्वास्थ्य के लिये हमेशा उपयोगी होता है। विहार का तात्पर्य है-प्रकृति के अनुकूल आचरण । प्रकृति में हर मौसम, हर क्षेत्र का अपना-अपना प्रभाव होता है। मौसम एवं क्षेत्र में रहकर उसका लाभ मिले, इसका अनुशासन होता है। उसे समझकर प्रकृति के अनुकूल आचरण करना स्वास्थ्य के लिये लाभदायक होता है। चेष्टा और कर्म अच्छे उद्देश्य के लिए उपयुक्त समय पर, उपयुक्त अभ्यास को विकसित कर किये जाते हैं तो उनका सही लाभ मिलता है; नहीं तो मनुष्य चलते-फिरते व्यायाम करते हुए भी नुकसान उठा सकता है। 

सोना-जागना' इनका भी जीवन में संतुलित योग होता है। सोने से मनुष्य के अंग अवयव विश्राम पाते हैं और पुनः ऊर्जावान (Recharge) हो जाते हैं। बिना जागे कार्य करना संभव नहीं होता। कोई भी कार्य कुशलता से करने के लिए उससे सम्बन्धित अंगों को भी जागृत् करना पड़ता है। जैसे खिलाड़ी खेलते समय शरीर को गर्म करता है, वह भी शरीर को पूरी तरह जगाना है। गायक भी अपने गले को थोड़ी देर तैयार करता है तो यह भी अपने आपको जगाना है। उपासना के पहले उपासक भी अपने आपको जगाता है। जीवन में वांछित जागृति लाना यह भी एक साधना का विषय है। योग व्यायाम की बात जब आती है तो लोग सीधे योगासन पर पहुंच जाते हैं। महर्षि पातंजलि के अष्टांग योग के क्रम में (यम,नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि)
आसन तीसरे क्रम में आता है। 

यदि यम-नियम का आंशिक पालन भी नहीं किया जाये, तो योगासन व्यायाम का ठीक-ठीक लाभ नहीं मिल पाता। यदि अष्टांग योग के सम्बंध में विस्तृत जानकारी लेना हो तो शान्तिकुञ्ज से प्रकाशित 'पातञ्जलि योग दर्शन' पुस्तक देखी जा सकती है। यहाँ तो केवल आसन के संबंध में जानकारी दी जा रही है। यम के अंतर्गत सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय (चोरी न करना)। अपरिग्रह(संग्रह न करना) और नियम के अंतर्गत शौच(स्वच्छता), तप, स्वाध्याय, संतोष और ईश्वर प्रणिधान (ईश्वरनिष्ठ होना) आते हैं।

इन यम-नियमों का उल्लंघन करने से अंतरंग जीवन में अनेक ग्रंथियाँ बन जाती हैं, जो स्वस्थ और सुखी जीवन में बड़ी बाधाएँ खड़ी कर देती हैं । स्वस्थ सुखी जीवन की कामना करने वालों को अपने आहार-विहार, चिंतन-चरित्र के बारे में भी जागरुक रहना
आवश्यक है।


भगवद गीता के अनुसार हमें किस प्रकार का भोजन करना चाहिए भगवद गीता के अनुसार हमें किस प्रकार का भोजन करना चाहिए Reviewed by Tarun Baveja on September 13, 2020 Rating: 5

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