शत्रु के बारे में आचार्य चाणक्य की तीन अनमोल बातें।
ऋण शत्रु और रोग को जड़ से समाप्त कर देना चाहिए। आचार्य चाणक्य का मना है कि ऋण मनुष्य को चैन से नहीं जीने देता। जब तक ऋण रहता है तब तक मनुष्य चिंतित रहता है इसलिए कभी भी ऋण नहीं लेना चाहिए और अगर ऋण ले भी लिया है तो उस ऋण को जड़ से समाप्त कर देना चाहिए। इसी प्रकार शत्रु शत्रु भी रह-रहकर परेशान करता रहता है। हानि पहुंचाता रहता है। जब तक शत्रु जीवित रहेगा। आप चैन से नहीं जी पाएंगे। आप हमेशा परेशान रहेंगे। इसलिए आचार्य चाणक्य का मानना है कि शत्रु को भी जड़ से समाप्त कर देना चाहिए। अब वह बात अलग है कि शत्रु को जड़ से कैसे समाप्त करना है। शत्रु को मित्र भी बनाकर उसको जड़ से समाप्त कर देते हैं। अगर शत्रु गलत प्रवृत्ति का, राक्षस प्रवृत्ति का है तो उसका धन समाप्त करके भी उसको खत्म किया जा सकता है। अनेक तरीके हैं खत्म करने के शत्रु को लेकिन शत्रु को जड़ से समूल नाश जरूर करना चाहिए। अगर आपको बिना चिंता के जीवन बिताना है तो।अब तीसरी चीज जो जड़ से समाप्त कर देनी चाहिए वह है रोग। अगर रोग जड़ से समाप्त नहीं होता है। तो वह रह रहकर आपको परेशान करता रहेगा। आपके धन को खर्च करवाता रहेगा। आपकी सेहत को नुकसान पहुंचाता रहेगा। आप अपनी कार्य क्षमता के अनुसार काम नहीं कर पाएंगे। जब तक रोग रहेगा आपको यह सारी परेशानियां झेलती रहने पड़ेगी। इसलिए आचार्य चाणक्य जी का मानना है कि रोग को भी जड़ से समाप्त कर देना चाहिए। जैसे ही रोग पैदा होता है तभी उसका उपचार कर देना चाहिए। इस बात का इंतजार नहीं करना चाहिए कि रोग बड़े तभी उसका उपचार करेंगे और इसमें किसी प्रकार की भी लापरवाही नहीं करना चाहिए।
शत्रु की दुर्बलता जाने तक उसे अपना मित्र बना कर रखें। आचार्य चाणक्य कहते हैं जब तक शत्रु की दुर्बलता पता नहीं लग जाती तब तक उसको खत्म करना बहुत मुश्किल काम होता है। दुर्बलता पता लग जाने के बाद उसको समाप्त करना आसान हो जाता है। इसलिए जब तक शत्रु की दुर्बलता ना पता लगे। तब तक उनके मित्र बन कर रहे। यहां पर मित्र से आशय यह नहीं है कि उसका दुख सुख में साथ देना। यहां पर मित्र से आशय यह है कि शांत बनकर रहें। शत्रु को यह एहसास ना होने दें कि आप उसके शत्रु हैं।
शत्रु का शत्रु मित्र होता है। आपने अक्सर समाज में देखा होगा कि जैसे किसी का कोई शत्रु है और उस शत्रु का कोई शत्रु है तो वह पहले वाले का मित्र मित्र आसानी से बन जाता है। क्योंकि इसमें मित्रता का कारण ही है कि दोनों का शत्रु एक ही है। जो जो किसी को अपना शत्रु समझते हैं वह सभी आपस में अपने आप मित्र बन जाते हैं। लेकिन यह मित्रता पूरी की पूरी स्वार्थ पर टिकी होती है जैसे ही अपना मतलब निकल जाता है तो यह मित्रता भी समाप्त हो जाती है।
शत्रु के बारे में आचार्य चाणक्य की तीन अनमोल बातें।
Reviewed by Tarun Baveja
on
March 04, 2020
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