५-ब्रह्मचर्य की महिमा
ब्रह्मचर्य-प्रतिष्ठायां, वीर्य-लाभो भवत्यपि ।
सुरत्वं मानवोयाति, चान्तेयाति परांगतिम् ।।
(सूफि)
ब्रह्मचर्य का पालन करने से वीर्य का लाभ होता है। ब्रह्मचर्य की रक्षा करने वाले मनुष्य को दिव्यता प्राप्त होती है, और
साधना पूरी होने पर, परम गति भी उसे मिलती है।
"ब्रह्मचर्य की महिमा अपार है। वाणी से उसका वर्णन करना .
सूर्य को दीपक से दिखाने के समान है। 'ब्रह्मचर्य' वह उग्र व्रत है,
जिसकी साधना से लोग नर से नारायण हो सकते हैं। इसके
पालन से अब तक अनेक लोग देव-कोटि में गिने गये । तभी तो
भगवान शङ्कर ने अपने मुखारविन्द से इस प्रकार कह कर, आदेश
किया है:न तपस्तपइत्याहुर्ब्रह्मचर्य तपोत्तमम् ।
उर्ध्वरेताभवेद्यस्तु, सदेवो नतुमानुषः ॥
तप कुछ भी नहीं है। ब्रह्मचर्य ही उत्तम तप है। जिसने
अपने वीर्य को वश में कर लिया है, वह देव-स्वरूप हैमनुष्य नहीं !
“एकतश्चतुरो वेदा, ब्रह्मचर्य तथैकतः।"
(छान्दोग्योपनिषत् )
"एक ओर ता चारों वेदों के उपदेश, और दूसरी ओर ब्रह्मचर्य-दोनों एक तुला पर रखकर तौले जाय, तो दोनों पलड़े
वराबर होंगे । अर्थात् ब्रह्मचर्य का महत्व वेदों से भी विशेष है।
"तेषामेवैष स्वर्गलोको, येषां तपो
ब्रह्मचर्य, येषु सत्यं प्रतिष्ठितम् ।"
(प्रश्नोपनिषत्)
उन्हीं जनों को स्वर्ग-सुख मिलता है, जिन्होंने ब्रह्मचर्य जैसे
तप का अनुष्ठान किया है, और जिनके हृदय में ब्रह्मचर्य रूपी सत्य
विराजमान है।
ब्रह्मचर्य पालनीयं, देवानामपि दुर्लभम् ।
वोर्ये सुरक्षितेयान्ति, सर्वलोकार्थ-सिद्धयः॥
(सूक्ति)
ब्रह्मचर्य का पालन करना योग्य है । देवों के लिये भी ब्रह्म
चर्य दुर्लभ है । वीर्य की रक्षा भली भाँति होने पर, सब लोकों
के सुखों की सिद्धियाँ स्वयं मिल जाती हैं ।
अखण्ड ब्रह्मचारी पितामह भीष्म ने धर्मराज युधिष्ठिर को
ब्रह्मचर्य-विपय का उपदेश किया है, उसमें भी इस महावत की
महिमा भले प्रकार प्रकट होती है। वह इस प्रकार है:ब्रह्मचर्यरय सुगुणं, शृणुत्वञ्च सुधाधिया।
श्राजन्म भरगाद्यस्तु, ब्रह्मचारी भवेदिह ॥
मैं ब्रह्मचर्य का गुण बतलाता हूँ। तुम स्थिर बुद्धि से सुनो !
जो आजीवन ब्रह्मचारी रहता है, उसे इस संसार में कुछ भी दुःख
नहीं होता।
'न तस्य किञ्चिदप्राप्यमिति विद्धि नराधिप!
वहु-कोटि ऋषीणाञ्च, ब्रह्मलोके वसन्त्युत ॥
हे राजन् ! उस पुरुप को कोई वस्तु दुर्लभ नहीं। इस बात
को तुम निश्चय समझो ! ब्रह्मचर्य के प्रभाव से करोड़ों ऋपि
ब्रह्मलोक में वास करते हैं।
सत्येरतानां सततं, दन्तानामूर्ध्व-रेतसाम् ।
ब्रह्मचर्यदहेद्राजन् ! सर्व-पापान्युपासितम् ॥
सत्य से सदैव प्रेम करने वाले निमल ब्रह्मचारी का ब्रह्मचर्य
व्रत, हे राजन् ! समस्त पापों को नष्ट कर देता है।
चिरायुषः सुसंस्थाना, दृढ़संहननानराः।
तेजस्विनो महावीर्या, भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः ॥
(हेमचन्द्र सूरि)
जो लोग विधिवत् ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वे चिरायु,
सुन्दर शरीर, दृढ़ कर्त्तव्य, तेजखितापूर्ण और बड़े पराक्रमी होते हैं।
प्राणभूतं चरित्रस्य, परब्रीककारणम् ।
समाचरन् ब्रह्मचर्य, पूजितैरपिपूज्यते ।।
(हेमचन्द सूरि)
ब्रह्मचय सच्चरित्रता का प्राण-स्वरूप है, इसका पालन करता
हुआ मनुष्य, सुपूजित लोगों से भी पूजा जाता है ।
ऊपर के श्लोकों में जिस ब्रह्मचर्य के इतने गुण बतलाये गये
हैं, उसके विषय में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं ।
पाठक इतने से ही ब्रह्मचर्य की महिमा का अनुमान कर सकते
हैं। हमारे विचार से तो ब्रह्मचर्य की यथार्थ महिमा कहने और
सुनने से नहीं विदित हो सकती ! इसको तो भली भाँति वे ही
जान सकते हैं, जो कुछ समय तक इस व्रत की साधना करें।
क्योंकि ब्रह्मचर्य जैसे आध्यात्मिक तत्व का रस, उसके अन्तर्गत
भरा रहता है । जो लोग इसके प्रेमी होते हैं, वे ही उसे पीकर
उसके अपूर्व स्वाद का उचित अनुभव कर सकते हैं।

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