जीवन की 100 अनमोल बातें - भाग 1, महात्मा विदुर

महात्मा विदुर की 100 अनमोल बातें - भाग 1
नींद किसे नहीं आती?

अभियुक्त बलवता दुर्बलं हीन साधनम् ।
हृतस्वं कामिनं चारं माविशन्ति प्रजागरः॥

बलवान् शत्रुले घिरे हुए, निःसहायः सङ्कित, लुटे हुए,
कामी और चोरको रात्रिमें नींद नहीं आती।


सम्राट् कौन होते हैं?

राजा लक्षणसंपन्नस्त्रलोकस्याधिपोभवेत् ।

जो व्यक्ति सदा प्रशंसनीय कार्य करता है, निन्दित काँसे
बचता हैं, ईश्वरपर विश्वासी और श्रद्धावान् हैं, वह तीनों
लोकोंका पूज्य या अधिपति होने योग्य है।


पण्डित कौन है?
यहां पर पंडित से मतलब किसी जाति से नहीं है बल्कि एक पद या पदवी से है।

आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्म नित्यता ।
यमर्थानापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥

जो व्यक्ति अपने धर्मको-वास्तविक कर्त्तव्यको-शास्त्र, शक्ति
और वैराग्यके वाधा देनेपर भी पालनही करते हैं, किसीकी कुछ
भी परवाह नहीं करते, वे ही पण्डित है।


निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते।
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत्पण्डित लक्षणम् ॥

जो उत्तम कर्माको करे, नीच काँको त्याग दे, ईश्वरके
अस्तित्वपर विश्वास रखे और बड़े पुरुषोंपर श्रद्धा करे, वही
पण्डित कहाता है।


क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च हीस्तम्भो मान्य मानिता।
यमर्थानापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते॥

जो क्रोध, आनन्द, अभिमान और लज्जासे धर्मका त्याग नहीं
करता, तथा आदरणीय मनुष्यका आदर करता है, वही पण्डित
कहाता है।


यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्र वा मन्त्रितं परे।
कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्चते॥

जिसके उपाय और सम्मतिको कार्यकी समाप्ति होनेतक
गैर आदमी नहीं जान सकते, वरन् कार्यके फलसे ही जिसके
कार्योंका गैर आदमियोंको ज्ञान होता है, वही व्यक्ति पण्डित
कहाता है;


यस्य कृत्य न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥

जिसके कर्त्तव्यमें जाड़ा, गर्मी, भय, काम, लोभ या निर्धनता
किसी प्रकारकी वाधा नहीं दे सकें अर्थात् जो अपने कर्तव्य
पालनमें उक्त आपत्तियोंकी कुछ भी परवा नहीं करता, वही
पण्डित कहाता है।


यस्य संसारिणी प्रज्ञा धर्मार्थावनुवर्तते।
कामादर्थ वृणीने यः स वै पण्डित उच्यते ।।

जिसकी सांसारिक कार्योंका सम्पादन करानेवाली बुद्धि
धर्म और अर्थसे युक्त हो एवं जो कामकी अपेक्षा धनको श्रेष्ठ
समझता है, वही पण्डित कहाता है।


यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते ।
न किञ्चिदवमन्यन्ते नराः पण्डितवुद्धयः॥

पण्डित लोग प्रत्येक कार्यको करनेकी इच्छा अपनी शक्तिके
अनुसार ही करते हैं और उस इच्छाके अनुसार ही प्रत्यक
कार्यको करते हैं एवं कभी किसोका निरादर नहीं करते।


क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थ भजते न कामात
नासंपृष्ठो ब्युपर्युक्त पदार्थ तत्प्रज्ञानम् प्रथमं पण्डितस्य ।।

पण्डितोंकी सबसे सरल यही पहचान है, कि प्रत्येक शब्दके आशयको वे बड़ी जल्दी समझ लेते हैं। विषयको समाप्ति
पर्यन्त सुनते रहते हैं। हरएक कामको खूब समझकर करते हैं।
वे कभी कोई कार्य काम और क्रोधसे प्रेरित होकर नहीं करते।
किसी बातका बिना पूछे जवाब नहीं देते।


नाप्राप्यमभिवांछन्ति नष्ट नेच्छति शोचितुम् ।
भापत्चम मुखन्ति नराः पण्डितपुख्यः ।।

पण्डित लोग आप्राप्य बस्तुझे पानेकी इच्छा नहीं करते, नष्ट
हुई घस्तु या सिद्धिके लिये शोक नहीं करते, एवं जीवनमें चाहे
जितनी आपत्तियोंसे सामना करना पड़े, उनसे कभी नहीं
घबराते।


निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वासति कर्मणः।
अवन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते ॥

जो व्यक्ति किसी कामको करनेसे पहले, उसको समाप्त
करनेका गृढ़ निश्चय कर लेता है एवं तदनुसार उसे लाख रुका.
वटें होनेपर भी समाप्त करके ही छोड़ता है, जो किसी भी समय
आने कर्तव्यले विमुख नहीं होता, जो अपनी इन्द्रियोंको सदा
चशमें रखता है, वहीं पण्डित कहाता है।



न हृष्यत्यात्म सम्माने नांवमानेन तप्यते।
गङ्गो हुद इवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते ॥

जो व्यक्ति आदरसे प्रसन्न नहीं होता और अपमानसे
क्रुद्ध नहीं होता, जो गङ्गाकी भाँति गम्भीर होता है, वही पण्डित
कहाता है।


श्रु तं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा !
असम्भिन्नार्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः ।।

जिस व्यक्तिकी बुद्धि विद्यानुसार हो, विद्या बुद्धिके अनुसार
हो, और जो कभी किसी भी मर्यादाको नहीं तोड़ता, वहो
पण्डित कहाता है।


प्रवृत्तवाक्चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान् ।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते॥

जो सत्य बातको कहने में न रुके, प्रत्येक वातका उत्तर
तत्काल दे, तर्क-वितर्क करनेमें चतुर हो, जिसकी बुद्धि बेरोकटोंक विषय या प्रसङ्गके भावको समझ सकती हो, कथा-वार्ता
कहने में पटु हो, वही पण्डितका पद प्राप्त करता है ।


मूर्ख कौन है ?
अश्रु तश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः ।
अर्थोश्चाकर्गणा प्रप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः ॥

जो अपढ़, अभिमानी और दरिद्र होकर भी उच्च अभिलाषायें
रखता हो, जो नीच काँसे धन पैदा करे, वही व्यक्ति मूर्ख कहा,
जाता है।


स्वमर्थ यः परित्यज्य पगर्थमनुतिष्ठति ।
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते ॥

जो अपने स्वार्थको छोड़कर अपनी आवश्यकताओंकी पर.
वाह न कर, दूसरेके स्वार्थ या आवश्यकताओंको पूर्ण करनेके
लिये दौड़ता है, जो समर्थ होकर भी मित्रों और हितैषियोंकी
शत्रु ता सहायता नहीं करता एवं असमर्थ हो जानेपर सहायताके लिये
दौड़ता है, वही मूर्ख कहाता है।


अकामान्कामयति यः कामयानान्परित्यजेत् ।
बलवन्तं च यो द्वोष्टि तमहुमूढचेतसम् ।।

जो बेकारकी चीजोंकी चाह करे और कामकी चीजोंपर
उपेक्षा करे, तथा जो निःशक्त होता हुआ भी बलवानोंसे
करे, वही मूर्ख कहाता है।


अमित्र कुरुते मित्रं मित्रं द्वष्टि हिनस्ति च ।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ॥

जा शत्रु को मित्र बनाये, मित्रको नुकसान पहुंचाये, एक
सदा बुरे काम करे, वही मूर्ख कहाता है।


संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते ।
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ ।

जो व्यक्ति अपने करने लायक कर्मीको नौकरोंसे कराये,
अपनी शक्तिपर अविश्वास या सन्देह करे और जल्द निपटने
लायक कामोंमें आवश्यकतासे अधिक देरी लगाये, वही मूर्ख
कहाता है।


श्राद्ध पितृभ्यो न ददाति देवतानि न चार्गति ।
सुहृन्मित्रम् न लभते तमाहुमूढचेतसम् ॥

जो माता-पितापर श्रद्धा न करे, देवताओंका अविश्वासकर
पूजा न करे और मित्रसे प्रेम न करे, वही मूर्ख कहाता है


.वनातः प्रविशति अपृष्टो पहुभाषते।
अविश्वस्त विश्वसिति मूढचता नराधमः ।।

जो बिना बुलाये जाये, विना पूछे हुए जवाव दे. अथवा मतलबको बिना समझे ही उत्तर दे बैठे, अविश्वसनीयपर विश्वास
करें, वही मूर्ख कहाता हैं।


पर क्षिपति दोषेण वर्तमान: स्वयं तथा।
यश्च क्रुध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः॥

जो स्वयं दोषी होते हुए भी दूसरोंको दोष दे और अपने
आप सदा दूषणीय कार्य करे, बिना जरूरत गुस्सा करे, वह
महा मूख कहाता है।


आत्मनो बलमज्ञाय धर्मार्थपरिवर्जितम् ।
अलभ्यमिच्छन्नैष्कर्यान्मूढ़वुद्धिरिहोच्यते ॥

जो धर्म और अर्थके बिना, अपनेको बलवान् न समझकर
अलभ्य वस्तुको बुरे कर्मों द्वारा प्राप्त करना चाहे, वह महा
मूर्ख है।


अशिष्य शास्ति यो राजन्यश्च शून्यमुपासते ।
कदर्य भजते यश्च तमाहुर्मूढचेतसम्॥

जो पूजनीय व्यक्तिपर शासन करता है, जो पूजनीय नहीं
है, उसकी पूजा करता है और कंजूसोंकी सेवा करके अपनेको
धन्य समझता है, वह व्यक्ति मूर्ख है।


निर्दयी कौन है ?

एक: सपन्नमश्नाति वस्त वासश्च शोभनम् ।
यौऽसम्विभज्य भृत्येभ्यः को नृशंसतरस्ततः ।।

जिसके आश्रित अनेक मनुष्य हैं, तिसपर भी वह अकेले
अकेले स्वादिष्ट भोजनोंको करता है, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनता
और राज महलोंके सुखोंको भोगता है, उसके बराबर संसारमें
दूसरा निर्दयी नहीं है।


पापका भागी कौन है?

एकः पापानि कुरुते फलं भुंक्त महाजनः ।
भोक्तारो विप्र मुच्यन्ते कर्ता “दोषेण लिप्यते।"

धनादि सञ्चय करने में एक मनुष्य ही पाप कम करता है,
किन्तु उस धन या सुखोंको भोगनेवाले अनेक होते हैं, तिसपर
तमाशा यह, कि जब पापका फल भोगनेका समय आता है, तो
वे सुखके साथी अनेक व्यक्ति तत्काल अलग हो जाते हैं, अतएव
सिद्ध हुआ, कि पापी एक मात्र वही है, जो अज्ञानवश पाप
करता हैं।


बुद्धि-बलका प्रताप।

एक हन्यान्न वा हम्यादिषुमुक्तो धनुष्मता।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद्राष्ट, सराजकम् ॥

शक्तिमान् धनुषधारीका छोड़ा हुआ वाण केवल एक आदमीको
जाकर लगता है और बहुतसे मौके ऐसे भी होते हैं, जब वह बाण
निशानेसे चूक जाता है, किन्तु बुद्धिमानोंकी बुद्धि बड़ेसे बड़े
साम्राज्यका नाश कर दे सकती है।


एकया द्वे विनिश्चित्य त्रीश्चतुर्भिर्नशे कुरु ।
पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखी भव ।।

जिसके आश्रित अनेक मनुष्य हैं, तिसपर भी वह अकेले
अकेले स्वादिष्ट भोजनोंको करता है, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनता
और राज महलोंके सुखोंको भोगता है, उसके बराबर संसारमें
दूसरा निर्दयी नहीं है।


पापका भागी कौन है?

एकः पापानि कुरुते फलं भुंक्त महाजनः ।
भोक्तारो विप्र मुच्यन्ते कर्ता “दोषेण लिप्यते।"

धनादि सञ्चय करने में एक मनुष्य ही पाप कम करता है,
किन्तु उस धन या सुखोंको भोगनेवाले अनेक होते हैं, तिसपर
तमाशा यह, कि जब पापका फल भोगनेका समय आता है, तो
वे सुखके साथी अनेक व्यक्ति तत्काल अलग हो जाते हैं, अतएव
सिद्ध हुआ, कि पापी एक मात्र वही है, जो अज्ञानवश पाप
करता हैं।


बुद्धि-बलका प्रताप।
एक हन्यान्न वा हम्यादिषुमुक्तो धनुष्मता।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद्राष्ट, सराजकम् ॥

शक्तिमान् धनुषधारीका छोड़ा हुआ वाण केवल एक आदमीको
जाकर लगता है और बहुतसे मौके ऐसे भी होते हैं, जब वह बाण
निशानेसे चूक जाता है, किन्तु बुद्धिमानोंकी बुद्धि बड़ेसे बड़े
साम्राज्यका नाश कर दे सकती है।


एकया द्वे विनिश्चित्य त्रीश्चतुर्भिर्नशे कुरु ।
पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखी भव ।।

अतः प्रत्येक मनुष्यको अपनी बुद्धिके अनुसार पहले मित्र
और शत्रुओंको पहचानना चाहिये, अनन्तर सम्मान द्वारा मित्र
तथा बुद्धिवल द्वारा शत्रुओंको जीतकर, राजनीतिके समस्त
अङ्गोंको जानकर, बुरे कामोंको परित्याग पूर्वाक सुखी बननेकी
चेष्टा करनी चाहिये।


मन्त्र विद्रोह।

एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते।
सराष्ट्र सप्रजं हन्ति राजानं मन्त्रविल्पवः ॥

जहर एकका नाश करता है; हथियारसे एक ही मनुष्य
मरता है, परन्तु अपात्रोंमें गयी हुई सलाह सारे राष्ट्र का राजा
समेत नाश कर देती है।


साधारण उपदेश।

एक: स्वादु न भुंजीत एकश्चार्थान्न चिन्तयेत् ।
एको न गच्छेदध्वानं नैकः सुप्तेषु जागृयात् ॥

प्रत्येक मनुष्यको चाहिये, कि वह आश्रितोंकी उपेक्षाकर
अकेला ही भोजन न करे, किसी विषयको अन्य लोगोंकी बिना
सम्मति लिये अकेला ही निश्चय न करे, अकेले यात्रा न करे,
और अकेला ही जागरण न करे ।


एकमेवाद्वितीयं तद्यद्राजन्नावबुध्यसे ।
सत्यां स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव ॥

ईश्वर एक है, उसका स्वरूप बिना सत्यकी सहायताके नहीं
पहचाना जाता, सत्य स्वर्ग प्राप्तिका सोपान है, ईश्वर सत्यप्रिय
मनुष्यको समस्त दुःखोंसे इस प्रकार अनायांस छुटकारा दिला
देता है, जिस प्रकार समुद्रको पार करनेके लिये नाव ।


क्षमाके गुण ।

एकः क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते।
यदेनं क्षमया युक्तमराक्तं मन्यते जनः ॥

क्षमाशील व्यक्तियोंमें एक ही दोष होता है,-"दूसरा उनमें
ढूंढ़नेसे भी नहीं मिलता और वह यह कि लोग उन्हें असमर्थ
व्यक्ति समझ लेते हैं।


सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परगं बलम् ।
क्षमा गुणी ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा ॥

किन्तु इस दोषसं क्षमावान्का निरादर नहीं करना चाहिये।
क्षमा असमाँका गुण और समर्थों का भूषण है।


क्षमा वशीकृतिलॊके क्षमया किं न साध्यते ।
शान्तिखन करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः ॥

क्षमा या शान्ति द्वारा सारा संसार वशमें किया जा सकता
है। ऐसा कोई भी काम नहीं है, जो क्षमा द्वारा सिद्ध न किया
जा सकता हो। जिसके हाथमें शान्ति-रूपी खड्ग है, उसका
दुष्ट मनुष्य क्या कर सकता है ?


अतृणे पतितो वहि स्वयमेवोपशाम्यति।
अक्षमावान्पर दोषैरात्मानं चैव योजयेत् ॥

जिस स्थानपर घास-फूस नहीं है, उस स्थानपर गिरी हुई
अग्नि अपने आप शान्ति हो जाती है। किन्तु क्रोधी मनुष्य
क्षमाहीन व्यक्ति अपने दोषसे आप ही दुःख भोगता है।


एको धर्मः परं श्रेयः क्षौका शान्तिरुत्तमा ।
विद्य का परमा तृप्तिरहिन्सका सुखावहा ॥

एकमात्र धर्म ही कल्याण कारक है, एकमात्र क्षमा ही
परम शान्ति है। एक मात्र विद्या ही परम सन्तोष है, और एक
मात्र अहिन्सा ही परम सुख है।


साधारण उपदेश।

द्वाविमौ असते भूमिः सो विलशयानिव ।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥

युद्ध करनेमें असमर्थ राजा और परदेश न जानेवाले ब्राह्मण
-इन दोनोंको पृथ्वी इस प्रकार अनायास निगल जाती है. जिस
प्रकार विलमें आये हुए पदार्थको सर्प निगल जाता है ।


द्व कर्मणी नरः कुर्वन्नस्गिलोके विरोचते।
अत्रु वन्परुषं विचिदसतोऽनर्चयंस्तथा ।।

मनुष्य मीठी वाणी वोलना और सजनोंसे प्रेम करना-इन्हीं
दो कर्मोंके करनेसे इस लोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।


द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र परप्रत्ययकारिणी।
स्त्रियः कातिकामिन्यो लोकः पूजितपूजकः ।।

किसी दूसरेके चाहे हुए मनुष्यपर प्रेम करनेवालो स्त्री, और
पूजा किये हुएकी पूजा करनेवाला मनुष्य-ये दोनों जने बिना
विचारे काम करनेवाले मूर्ख हैं।


द्वाविमौ कण्टको तीक्ष्णौ शरोरपरिशोत्रिणी।।
यश्चाधन: कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्वरः॥

शरीरका नाश करनेवाले ये दो कांटे बड़े ही तीक्ष्ण हैं, एक
तो दरिद्रतासे कभी अप्राप्य वस्तुकी कामना करना और दूसरा
असमर्थ होकर भी क्रोध करना।


द्वावेव न विराजेते विपरितेन कर्मणा ।
गृहस्थश्च निरारम्भ कार्यवांश्चैव भिक्षुकः ॥

जो व्यक्ति गृहस्थ होकर भी कुछ कर्म न करे और जो संन्यासी होकर कर्मत्याग न करे, ये दोनों आत्म-विरोधी कर्म-कर्ता
है एवं इनकी संसारमें कभी प्रतिष्ठा नहीं होती।


द्वाविमौ पुरुषौ राजन्वर्गस्योपरि तिष्ठतः।
प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ॥

जो व्यक्ति सर्वा समर्थ होकर भो अपने शत्रुओंपर क्षमा करता
है और दरिद्र होकर भी दान करनेसे विमुख नहीं होता, ये दोनों
व्यक्ति स्वर्गकी भी अपेक्षा उच्चासन प्राप्त करते हैं।


न्यायागतस्य द्रव्यस्य बोधव्यो द्वावतिक्रमौ ।
अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ॥

न्याय और धर्मसे पैदा किये धनका नाश कभी नहीं होता।
और यदि होता है, तो केवल दो दोषोंसे एक अयोग्य पात्रमें दान
करने और योग्य पात्रको न देनेसे ।


द्वावंभसी निवेष्टव्यौ गले बध्वा द्रुढ़ां शिलाम् ।
धनवन्तमदातार दरिद्र चातपस्विनम् ॥

जो धनी होकर दान न करे और जो दखि होकर तप
(परिश्रम ) न करे, इन दोनों आदमियोंको अपने अपने गलेमें
भारी पत्थर बांधकर पानीमें डूब मरना चाहिये।


द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनौ ।
परिबाड्योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः

जो संन्यासो योग द्वारा प्राण त्याग करता है और जो
क्षत्रिय सम्मुख समरमें मारा जाता है, ये दोनों ही सूय्य
मण्डलको बेधकर स्वर्गमें स्थान पाते हैं


त्रयोपाया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ ।
कनीयान्मध्यमः श्रेष्ठ इति वेदविदो विदुः ।

शास्त्र विशारद पण्डितोंने तीन प्रकारके न्याय बताये हैं।
एक उत्तम (शान्ति) दूसरा मध्यम (दान) तीसरा हीन (दण्ड)।


त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः।
नियोजयेद्यथावत्तांस्त्रिविधेष्वेव कर्गसु॥

इसी प्रकार संसारमें उत्तम, मध्यम और अधम-तीन
प्रकारके मनुष्य होते हैं। इसलिये राजाको चाहिये, कि वह
उक्त तीनों प्रकारके मनुष्योंको क्रमानुसार तीन श्रेणीके ही
कामोंमें नियुक्त करे।


प्रय एवाधना राजन्भार्या दासस्तथा सुतः।
यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम् ॥

स्त्री, पुत्र और सेवक, ये तीनों प्राणी निधन या असमर्थ
कहाते हैं, ये जो भी वस्तु प्राप्त करें, उसे अपने स्वामीको अर्पित
कर दें। क्योंकि उसकी रक्षा एकमात्र स्वामी ही कर सकता है।


हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम् ।
सुहृदश्च परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः ॥

दूसरेका धन छीन लेना, पर-स्त्रियोंपर अत्याचार करना
और अपने मित्रोंका परित्याग कर देना इन्हीं तीन दोषोंसे मनुष्य
नष्ट होता है।


त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्रयां त्यजेत् ॥

काम, क्रोध और लोभ-ये तीनों नरकके द्वारा हैं, और
इन्हीं तीनोंसे मनुष्यका सानाश होता है, अतएव ये तीनों
प्रत्येक मनुष्यके लिये त्याज्य हैं।


वरप्रदान राज्यां च पुत्रजन्म च भारत।
क्षत्रोश्च मोक्षणं कृच्छात्तीणि चैकं च तत्समम् ॥

वर पाना या कार्य सिद्धि, राज्य पाना या किसीपर
विजय पाना, पुत्र-ताप्ति और किसीको दुःखसे बचाना ये चारों
समान आनन्द देनेवाले हैं।


भक्तं च भजमानं च तवास्मीति । वादिनम् ।
त्रीनेतांश्चरणं प्राप्तान्विषमेऽपि न सत्यजेत् ॥

मनुष्यको नाहिये, कि कठिनसे कठिन समयमें भी अपने
भक्त, सेवक और आश्रयीका त्याग न करे।


चत्वारि राक्षा तु महाबलेन वान्याहुः पण्डितस्तानि विद्यात् ।
अल्पप्रक्ष : सह मंगं न कुर्यान्न दीर्घसूत्र रभसैश्चारणैश्च ॥

राजा और परिडत इन दोनोंको चाहिये, कि ये मूर्ण,
आलसी शीघ्र प्रसन्न होनेवाले या विचार शून्य और रणभीरुओंसे कभी मित्रता न करें।


चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रियाभिजुष्टस्य गृहस्थधर्मे।
वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनीचानपत्या ॥

भगवान् करे, प्रत्येक व्यक्तिके घरमें कुल-धर्मका उपदेश करने
वाले बृद्ध, बालकोंको आचार-विचारवान बनानेवाले कुलीन,
हितकी बात कहनेवाले मित्र और गृहस्थके शुभ-कार्यों को कराने
वाली बहिन—ये चारों रहें। क्योंकि इन चारोंके रहनेसे धर्म
लाभ होता है।


चत्वार्याह महाराज साद्यस्कानि वृहस्पतिः।
पृच्छते त्रिदशेंद्राय तानीमानि निवोध मे ॥
देवतानां च संकल्पमनुभावं च धीमताम् ।
विनयं कृतविद्यानां विनाशं पापकर्मणाम् ॥

आचार्या वृहस्पतिने राजा इन्द्रको चार कर्म करनेका उपदेश
दिया था, जिनमें एक देवता या सत्पुरुषोंके दर्शन करना, बुद्धिमानोंके प्रभावपर विश्वास करना, पण्डितोंके साथ विनयसे काम
लेना और पापियोंका नाश करना।


चत्वारि कर्माण्यभयंकराणि भयं प्रयच्छत्ययथाकृतानि
मनाग्निहोत्रमुत मानमौनं मानेनाधीतमुत मानयज्ञः ॥

अग्निहोत्र, मौन रहना, पढ़ना और यज्ञ करना—ये चारों कर्म
सुखदायक हैं। किन्तु इन्हें भले प्रकार न करनेसे कष्ट भी
मिलता है।


पंचाग्नयो मनुष्यण परिचर्याः प्रयत्नतः।
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ ।

प्रत्येक मनुष्यको चाहिये, कि वह माता, पिता, अग्नि,
आत्मा और गुरु इन शास्त्र-कथित पञ्चाग्नियोंकी सेवा करे।


पंचैव पूजयंल्लोके यशः प्राप्नोति केवलम् ।
देवान्वितन्मनुध्यांश्च भिक्षूनतिथिपंचमान् ॥

देवता, पितर, मनुष्य, भिखारी और अतिथि, इन पांचोंकी
पूजा करनेसे मनुष्य इस लोकमें यश प्राप्त करता है।


पंच त्वानिगमिष्यन्ति गत्र यत्र गमिष्यसि ।
मित्राण्यमित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः॥

मित्र, शत्रु, मध्यस्थ, गुरु और सेवक सदा सबके साथ
रहते हैं।


पंचेंद्रियस्य मत्यस्य छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम् ।
ततोऽस्य स्रवति प्रज्ञा द्रुतेः पात्रादिवोदकम् ॥

मनुष्यकों पांचों इन्द्रियोंमें यदि एकमें भी छेद हो जाये, अर्थात्
वे कुपथपर ले जाने लगे, तो मनुष्यकी सारी बुद्धि इस प्रकार नष्ट
हो जाती है, जिस प्रकार एक छेद हो जानेपर मशकका पानी।


षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध मालस्यदीर्घ सूत्रता ॥

प्रतिष्ठा प्राप्तिकी इच्छा रखनेवाले प्रत्येक मनुष्यको चाहिये,
कि वह अधिक सोना, उघना, डर, क्रोध, आलस्य और ढीलेपन
इन छै दोषोंको छोड़ दे।


षडिमान्पुरुषो जह्याट्दिन्नां नावमिवार्णवे।
अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम् ॥
अरक्षितारं राजानं भायां चाप्रियवादिनीम् ।
ग्रामकाम च गोपालं वनकामं च नापितम् ॥

अप्रवक्ता गुरु, मूर्ख पुरोहित, अरक्षकराजा, कटु-भाषिणी
स्त्री, ग्रामकी इच्छा करनेवाले ग्वाले और वन जानेकी इच्छा
करने वाले नाईको लोग इस प्रकार छोड़ दें, जिस प्रकार नदीको
पार करने वाले टूटी नावका त्याग कर देते हैं।


षडेव तु गुणाः पुसा न हातव्याः कदाचन ।
सत्यदानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः।

सत्य, दान, निरालस्य, किसीकी निन्दा न करनेका भाव, क्षमा
और धैर्य इन छहों गुणोंका त्याग मनुष्य किसी समय भी न करे।


अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च ।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरीच विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन॥

धनकी आय, सदा नीरोग रहना, सदा पिय बोलनेवाली स्त्री,
आज्ञानुवर्ती पुत्र और धन देनेवाली विद्या, संसारमें ये छही
सुख हैं।


षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्ण योऽधिगच्छति ।
न स पापैः कुतोऽनथैयुज्यते विजितेंद्रियः ॥

जो इन छहों सुखोंका सदा उपभोग करता है, वह जितेन्द्रिय
स्वप्नमें-भी दुःखोंका दर्शन नहीं करता। उसे स्वपमें भी पाप
स्पर्श नहीं कर पाते।


जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते।
चौराः प्रमत्त जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सकाः॥
पुमदा: कामयानेषु यजमानेषु याजकाः।
राजा विवदमानेषु नित्य मूर्खेषु पंडिताः।।

चोर असावधान रहनेवालोंसे, बैद्य रोगियोंसे, स्त्री कामियोंसे, पुरोहित यजमानोंसे, राजा झगड़ालुओंसे और पण्डित
मूरों से जीविका पाते हैं।


षडिमानि विनश्यन्ति मुहूर्तमनवेक्षणात्।
गाव: सेवा कृषिर्भार्या विद्या वृषलसंगतिः॥

गाय, सेवाकार्या, खेती, स्त्री, विद्या और मूों की सङ्गति
ये छहों थोड़ी देरकी असावधानतासे ही नष्ट हो जाते हैं।


षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यपूर्वोपकारिणम् ।
आचार्य शिक्षिताः शिष्याः कृतदाराश्च मातरम् ॥
नारी विगतकामास्तु कृतार्थाश्च पृयोजकम् ।।
नावं निस्तीर्णकांतारा आतुराश्च चिकित्सकम् ॥

शिक्षित शिष्य गुरुको, विवाहित पुत्र माताको, कामवासना
तृप्त व्यक्ति स्त्रीको, कार्य सिद्ध हो जानेपर लोग प्रयोजनको,
नदी पारकर लेनेपर नावको और रोग आराम हो जानेपर हकीमको, ये छहों आदमी अपने उपकारियोंके काम हो जानेपर उपकार महीं मानते।


आरोग्यमानण्यमविप्रवास: सद्भिर्मनुष्यैः सह संप्रयोगः
स्वपत्यया वृत्तिरभीतवासः षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ।।
रोग रहित रहना, किसोका कर्जदार न होना, परदेशमें जाना,
पण्डितोंका सत्संग करना, अपने हाथोंसे जीविका निर्वाह करना
और निर्भय होकर रहना, ये छे बातें इस संसारमें महासुख हैं।


ईष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्य शङ्कितः ।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःचिताः ॥

दूसरेके सुखको देखकर डाह करनेवाला, घृणित उपायोंसे
काम करनेवाला, असन्तोषी, क्रोधी, सहा शङ्का करनेवाला और
पराये भाग्यपर जीवन-निर्वाह करनेवाला ये छै व्यक्ति सदा
दुःखी रहते हैं।


स्त्रियोऽक्षा मृगया पान वाक्पारुप्यं च पञ्चमम् ।
महश्च दण्डपारुष्यमर्थदूषणमेव च ॥
सप्त दोषाः सदा राज्ञा हातव्या व्यसनोदयाः।
प्रायशो यैर्जिनश्यन्ति कृतमूला अपीश्वराः॥

परस्त्री, जुआ, शिकार, शराब पीना, कटु भाषण, कठोर
दण्ड देना, और प्रयोजनका नाश करना, ये सात दोष राजाको
त्याग देने चाहिये । इन बातोंका परिणाम बड़ा भयानक होता है,
बाज-बाज वक्त अपने राज्य समेत राजा भी इन्हींके द्वारा नष्ट
हो जाता है।


ब्राह्मणस्वानि चादत्त ब्राह्मणांश्च जिघांसति ।
रमते निन्दया चैषां पुशंसां नाभिनन्दति ॥
अष्टौ पूर्णनिमित्तानि नरस्य विनशिष्यतः ।
नैनां स्मरति कृत्येषु याचितश्चाभ्यसूयति ।
एतान्दोषान्नरः प्राज्ञो बुध्य बुद्धा विसर्जयेत्।

ब्राह्मणोंसे वैर करना, ब्राह्मणोंका धन लेना, ब्राह्मणोंकी निन्दा
करना, और उनकी प्रशंसा न करना, उन्हें यज्ञादिमें न बुलाना,
और भिक्षा-भाजन ब्राह्मणोंका निरादर करना, नष्ट होनेवाले
मनुष्य के कुछ दिनों पहले यही काम होते हैं। बुद्धिमानोंको उचित
है, कि वे इन दुष्कर्माका त्याग कर दें।


अष्टौ गुणा पुरुष दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमःक्षुतं च ।
पराक्रमश्चा बहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥
अष्टाविमानि हर्षस्य नवनीतानि भारत॥
वर्तमानानि दृश्यन्ते तान्येव स्वसुखान्यपि ।

बुद्धि, उत्तम कुलमें जन्म, इन्द्रियोंको जीतना, पराक्रम, विद्या
मितभाषण, शक्तिके अनुसार दान करना और उपकारकका कृतज्ञ
बनना ये आठ प्रकारके गुण हैं। और ये आठ गुण ही मनुष्यको
सम्मान तथा प्रतिष्ठा दिलाते हैं।


नवद्वारमिदं वेश्म त्रिस्थूणं पञ्चसाक्षिकम् ।
क्षेत्राधिष्ठितं विद्वान्यो वेद स परः कविः॥

हमारा यह शरीर एक मकानके मानिन्द है, इसमें नाक, कान
आँख, मुख, लिङ्ग, गुदा, मन, बुद्धि तथा अहङ्कार ये नौ दर्वाजे
हैं, उसकी छतको उठानेवाले अविद्या, काम और कर्ग नामके
तीन खम्मे हैं। रूप, रस, गन्ध स्पर्श और शब्द ये पांच उस
मकानमें कमरे हैं। उस मकानका निवासी आत्मा है। जो
विद्वान् इस रहस्यको जानता है, वही पण्डित कहाता है।


दश धर्म न जानन्ति श्रुणु वद्यामितेनृप ।
मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः ॥
त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीतः कामी च ते दश।
तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसजेत पण्डितः।।

मद्य आदि नशेकी चीजोंका सेवन करनेवाला, विषयों में लिप्त
रहनेवाला, हतोत्साही, पागल, थका हुआ, क्रोधी, हर एक
काममें शीघ्रता करनेवाला, लोभी, डरपोक, और कामी, ये
दश मनुष्य धर्मका स्वरूप नहीं जानते, अतएव इनसे कोई भी
व्यक्ति मित्रता न करे।


आदर्श राजाके लक्षण।

यः काममन्यू प्रजहाति राजा पात्र प्रतिष्ठापयते धनं च ।
विशेष विच्छू तवान् क्षिप्रकारी तं सर्वलोकः कुरुते प्रमाणम् ॥

जो राजा काम-क्रोधका त्यागकर योग्य पुरुषोंका आदर
करता है, सव विषयोंके विशेष मतलबको समझता है। जो
अपने कर्तव्योंका यथोचित पालन करता है, उसको सारा
संसार आदर्श राजा कहता है।


जानाति विश्वासयितुं मनुष्यान्विज्ञातदोषेषुद्धाति दण्डम् ।
जानाति मात्रां च तथा क्षमां चतं तादृशं श्रीर्जुषते समग्रा॥

जो विश्वसनीय और अविश्वसनीय मनुष्योंकी पहचान
रखता है, यथार्थ दोषीको उचित दण्ड देता है, अपराधके अनु.
सार दण्ड-विधान करता है, और क्षमाके गुणोंको जानता है, .


सुदुर्बलं नावजानाति कञ्चिद्युक्तो रिपु सेयते बुद्धि पूर्वम् ।
न विग्रहं रोचते बकस्थैः काले च यो विक्रमते स धीरः॥

जो राजा किसीको भी दुर्बल नहीं समझता, जो बुद्धि और
युक्तिके साथ शत्रुको भी अपना लेता है. जो बलवानसे बैर नहीं
करता और समयपर अपनी बलवत्ताका परिचय देता है, वही
धीर और वीर कहाता है।


प्राप्यापद्न व्यथते कदाचिदुद्योग मन्विच्छति चाप्रमत्तः।
दुःखां च काले सहते महात्मा धुरंधस्तस्य जिताः सपत्नाः ॥

जो आपत्ति-पूर्ण स्थानमें जाकर भी अभय रहता है, जो
सावधानीके साथ उद्योग करता है, जो समयपर दुःखोंको
सहने के लिये तत्पर रहता है, वही कठिन कार्योको सिद्ध
करनेमें समर्थ और शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकता है।


अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः पापैः संधि परदाराभिमर्शम् ।
दंभं स्तन्यां पैशुनं मद्यपानं न सेवते यश्च सुखी सदैव ॥

जो व्यर्थके कामोंमें अपने जीवनके अमूल्य समयको बरबाद
नहीं करता, मित्रों और आश्रितोंका बहिष्कार नहीं करता, जो
पापियोंसे मित्रता और पर-स्त्रियोंपर अधर्म नहीं करता, एवं छल
चोरी, निन्दा और नशीली चीज़ोंका सेवन नहीं करता, वह सदा
सुखी रहता है।


साधारण उपदेश।

न संरभेणारभते त्रिवर्गमाकारितः शंसति तत्वमेव ।
न मित्रायें रोचयते विवादं नापूजितः कुप्यति चाप्यमूढः ।।

जो क्रोधके वशीभूत हो धर्म, अर्थ और काम सम्वन्धी कार्योका अनुष्ठान नहीं करता। प्रत्येक बातके भावको समझता है,
जो मित्रोंके साथ विवाद नहीं करता और अपमान पाकर भी
दुःख नहीं करता, वही पण्डित कहाता है।


न योऽभ्यसूयत्यनुकम्पते च न दुर्वालः प्रातिभाव्यां करोति ।
नात्याह किंचित्क्षमते विवादं सर्वत्र तादूगलभते प्रशंसाम्॥

जो किसीकी उन्नतिको देखकर डाह नहीं करता, जो
दुर्बल होकर किसीसे विरोध नहीं करता, जो मितभाषी है
तथा विवादके समय क्षमासे काम लेता हैं, संसारमें एकमात्र
उसकी प्रतिष्ठा होती है।


यो नोद्धतं कुरुने जातु वेषं न पौरुषेणापि विकत्यतेऽन्यान् ।
न मूर्छितः कटुकान्याह किंचित्प्रियं सदा तं कुरुते जनोति ॥

जो मनुष्य कभी दुष्टोंके स्वरूपको धारण नहीं करता, अपने
बल-भरोसेपर शत्रुओंसे युद्ध नहीं ठानता, जरासे क्रोधमें कटु
बचन नहीं बोलता, वह सदा सबका प्यारा बना रहता है।


न वैरमुद्दीपयति प्रशांतं न दर्पमारोहति नास्तमेति ।
न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्य तमार्यशीतां परमाहुरार्याः ।

जो मनुष्य कभी शान्त मनुष्योंसे बैर नहीं बढ़ाता, जो स्वप्नमें
भी अभिमान नहीं करता, और आत्म-गौरवको तिलाञ्जलि दे
अपकर्म नहीं करता, उसे श्रेष्ठ लोग भी श्रेष्ठ कहते हैं।


न खे सुखे वै कुरुते प्रहणे नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्टः ।
दत्वा न पश्चात्कुरुते न नापं स कथ्यते सत्पुरुषार्थ शीलः।

जो अपने सुखके समय फ्लकर प्रसन्न नहीं होता, जो दूसरेके
दुःखको देख अपनेको दुःखी समझता है और जो किसीको कुछ
देकर पश्चात्ताप नहीं करता, वह पुरुष सर्वात्र श्रेष्ठ समझा
जाता है।


देशाचारान्समयाञ्जाति धर्मान्बुभूषते यः स परावरज्ञः ।
स यत्र तत्राभिगतः सदैव महाजनस्याधिपयं करोति ॥

जो व्यक्ति स्थान-धर्म, युग-धर्म और जाति-धर्ग-इन तीनों
धर्मों की अभिज्ञता रखता है, उसे पण्डित लोग सम्मान देते एक
महनीय लोग अपना राजा बनाते हैं।


दर्भ मोहं मत्सरं पापकृत्यां राजद्विष्टं पैशुनं पूगवैरम् ।
मत्तोन्मत्तैर्दुर्जनश्चापि वाई यः प्रज्ञावान् वर्जयेत्स प्रधानः ॥

पण्डितोंको नीचे लिखे अपकर्म त्याग देने चाहिये, जैसे
घमण्ड, भ्रम, परनिन्दा, पाप-कर्मा, राजद्वेष, वैर, मतवाले, और
पागलोंसे विवाद।


दानं मोहं देवतं मङ्गलानि प्रायश्चित्तान्विविधाल्लोकवादान् ।
एतानि यः कुरुते नैत्यकानि तस्योत्थानं देवताराधयन्ति॥

जो मनुष्य, दान, होम, पण्डितोंकी पूजा; मांगलिक कार्य,
प्रायश्चित्त और विविध संसारिक व्यवहार करता है, उसकी
देवता भी प्रशंसा करते हैं।


समैक्षिवाहं कुरुते न हीन: सगैः सख्यां व्यवहार का च ।
गुणैर्जिशिष्टांश्च पुरो दधाति विपश्चितस्तस्य नयः सुनीता ॥

जो व्यक्ति अपने ही समान व्यक्तियोंसे सम्बन्ध, प्रीति, व्यव।
हार और वार्तालाप करता है, वही बुद्धिमान कहाता है एवं जो
अपनेसे अधिक विद्वान् और पण्डितको सब कार्मोमें अगाड़ी
रखता है, उसकी नीति और व्यवहारोंकी सर्वत्र प्रशंसा होती है।


मितं भुक्ते संविभज्याश्रितेभ्यो मितं स्वपित्यमितं कसं कृत्वा।
ददात्यमित्रेष्वपि याचित: संस्तमात्मवंतं प्रजहत्यनाः ॥

जो व्यक्ति अपने आश्रितोंको बांटकर वादको अपने हिस्सेका
परिमित भोजन करता है । दिनभर अधिक परिश्रम करनेपर भी
बहुत थोड़ा सोता है, और याचना करनेपर शत्रुओंको भी हर
तरहसे मदद देता है, उसका सदा-सदा कल्याण होता है।


चिकीर्षितं विप्रकृतं च यस्य नान्ये जनाः कर्म जानन्ति किंचित् ।
मत्र गुप्ते सम्यगनुष्ठिते च नाल्पोऽप्यस्य च्यवते कश्चिदर्थः ।।

जिस व्यक्तिके इच्छित विचार, क्रोध और सलाहोंको बाहरी
आदमी किसी प्रकार नहीं जान सकते, वह कभी किसी अनर्थं
या धोखे में नहीं फंसता।


यः सर्वभूतप्रशमे निविष्टः सत्यो मृदुर्मानकृच्छुद्धभावः ।
अतीव स ज्ञायते ज्ञातिमध्ये महामणिर्जात्य इव प्रसन्नः ॥

जो सब प्राणियोंका सदा सर्वादा कल्याण चाहता है, सत्यको
प्यार करता और सबसे कोमल व्यवहार करता है एवं जिसके
सारे भाव शुद्ध है, वह अपनी जातिवालोंमें बैठकर ऐसा शोभा
पाता है, जैसा रत्नोंमें महामणि ।


य आत्मनापत्रपते भृशं नरः स सर्वलोकस्य गुरुर्भवत्युत ।
अनंततेजाः सुमनाः समाहितः स रैजसा सूर्य इवाशभासते॥

जो व्यक्ति अपने अशानसे किये कमौको देख स्वयमेव
लज्जित होता है, वही सब लोगमें गुरुता प्राप्त करता है, वही
मनुष्य महातेजस्वी और सावधान होकर सूर्यके समान प्रकाशित
होता है।

जीवन की 100 अनमोल बातें - भाग 1, महात्मा विदुर जीवन की 100 अनमोल बातें - भाग 1, महात्मा विदुर Reviewed by Tarun Baveja on October 21, 2020 Rating: 5

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